मिलन का रंग
डॉ. पद्मावती
“देव रक्षा। पाहिमाम . . . त्राहिमाम!”
वसुंधरा की करुण पुकार पर वरुण लोक कंपकंपा उठा।
“प्रभु मेरी विखण्डित काया की पीड़ा समझिए। आपसे बिछोह और सहन नहीं होता। इस तरह यह उपेक्षा, यह विमुखता तो मेरी संतति के विनाश का आह्वान है। जल ही जीवनाधार है प्रभु। मानव की धृष्टता को क्षमा कीजिए और अपना अनुग्रह बरसाइए।”
“देवी? क्या इस विनाश का उत्तरदायित्व मेरा है? जिस प्रकृति ने जीवन दिया, उसी का दोहन क्या क्षमा योग्य है? क्या आपकी संतति को परोपकार की परिभाषा का स्मरण भी है? प्रकृति के प्रति यही प्रत्युपकार अपेक्षित था? अपनी अनियंत्रित मृग तृष्णा के कारण आपकी काया खंडित कर दी। नदी, जल, वायु, प्रदूषित कर दिए। और क्या होना शेष रहा? इसमें मेरी भूमिका क्या है देवी? उसने स्वयं अपने विनाश को आमंत्रित किया है। और दोष मेरे सर? कहाँ का न्याय है?”
“तो क्या समस्या असमाधेय है देव?” वसुधा चिंता में डूब गई।
“देवी . . . अब तो बुद्धि के देव बृहस्पति ही रक्षा कर सकते हैं। जब तक मानव स्वयं चेतेगा नहीं, विनाश अवश्यम्भावी है। और . . . चिंता मत कीजिए। विनाश से ही सृजन प्रसूत होता है। प्रतीक्षा कीजिए और प्रार्थना,” वरुण देव ने निर्लिप्त भाव से कहा।
“नहीं देव। हम अपनी मर्यादा का कभी त्याग नहीं कर सकते। सृष्टि की रक्षा और पालन ही हमारा कर्त्तव्य है। जानती हूँ प्रभु, आज मानव भोग लिप्सा में मदांध होकर अपनी सीमाएँ लाँघ गया है पर हम . . . हम अपना धर्म नहीं भूल सकते प्रभु। आपको मेरी संतति की रक्षा करनी ही होगी। और कोई उपाय नहीं। यही सत्य है और शिव भी। आइए देव, अब और बिछोह सम्मत नहीं,” वसुधा ने अश्रु निमीलित नेत्रों से बाँहें फैला दीं!
“ओह! देवी! ये आपने क्या कर दिया?” वरुण देव विचलित हो उठे। “आपने एक बार फिर मुझे विवश कर दिया। आपका वचन सत्य है। चलिए, आपकी प्रार्थना शिरोधार्य।”
नभ में बादल मँडरा गए। अस्तगामी सूर्य देव अचानक छिपकर छाया के पाश में बँध गए। अवसर पाकर मेघ घड़घड़ाए और मूसलाधार बारिश होने लगी। अपने प्रियतम से मिलकर वसुधा की क्षुधा तृप्त हो गई। चारों ओर नवजीवन अंकुरित हो आया। राग की ऐसी दुंदुभि बजी कि प्रकृति सुरमयी रंग में रंग गई।
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