तुंगभद्रा के आर-पार
डॉ. पद्मावती‘घुमक्कड़ की गति घुमक्कड़ जाने’। असाध्य होता है यह यायावरी का रोग। तो हुआ यूँ कि कुछ समय से समयाभाव और व्यस्तता ने अनुमति नहीं दी थी और हमारी चलिष्णुता बाधित सी हो गई थी। 2014-15 का वर्ष। चौदह अपने अवरोहण पर और पंद्रह का आरोहण। आंग्ल नव वर्ष, केवल पाँच दिनों का अवकाश सप्ताह अंत को मिलाकर। तो अवसर का लाभ उठाते हुए तत्काल बोरा-बिस्तर बाँधा और गाड़ी में सवार हो गए . . . गाड़ी में आकर सोचा किस दिशा में प्रस्थान करें? वैसे हमारी सारी यात्राएँ गाड़ी में ही निर्णीत हुआ करती हैं, तो इस बार निर्णय लिया कि क्यों न कर्नाटक की ओर चला जाए। कर्नाटक से हमारा सम्बन्ध केवल बंगलूरू तक ही सीमित था तो इस बार पश्चिम तट पर बसे उडुपी श्री क्षेत्र तक जाने का विचार किया गया। बंगाल की खाड़ी से होकर अरब महासागर . . . एक छोर से दूसरे छोर तक परिभ्रमण . . .। बीच में जो भी स्थान संयोगवश जुड़ते जाएँगे उन्हें भी देख लिया जाएगा। दिन कम थे यानी विस्तृत यात्रा तो नहीं पर जितना हो सके उतने स्थलों का दर्शन। तो हमारा गंतव्य बना—श्री क्षेत्र उडुपी–अरब सागर के छोर पर बसा तीर्थ स्थल . . . अब इस यात्रा के दौरान बीच में जुड़ते गए . . . शृंगेरी, होरनाडु, कुद्रेमुख, कोल्लूर और धर्मस्थल। आइए चलें इन प्रदेशों की शब्द यात्रा पर—तुंगभद्रा के पार।
राष्ट्रीय राजमार्ग पर चेन्नई से रानी पेट
गाड़ी निकल पड़ी राष्ट्रीय राजमार्ग पर चेन्नई से रानी पेट, वेल्लोर, कृष्णगिरी, होसुर से होती हुई सिलिकॉन सिटी ऑफ़ इंडिया . . . बंगलूरू। 350 किलोमीटर पर पहला पड़ाव और रात बसर कर अगली सुबह फिर गंतव्य की ओर प्रस्थान। बंगलूरू से मेंगलूरु राष्ट्रीय मार्ग अपने नैसर्गिक सौंदर्य के लिए जाना जाता है। चिकनी चार वीथिकाओं में विभक्त कहीं पर ताड़ की तरह सीधी और कहीं-कहीं पर सर्पिल घुमावदार सड़कें, रास्ते के दोनों ओर छायादार घने वृक्ष, मार्ग-भाजक पर खिली रंग-बिरंगी फूलों की क़तारें, बादलों से घिरा सूर्य और आती जाती बूँदा-बाँदी, ख़ुशनुमा मौसम यात्रा की थकान को भुलाने के लिए कारगर साबित हो रहा था। वैसे कर्नाटक राज्य की विशेषता है कि इस प्रदेश में यथेष्ट बरसात के कारण वातावरण अधिकतर आर्द्र होता है मौसम सुहावना। दिसम्बर का अंत . . . और सर्दियों में दिन छोटे होते हैं तो उडुपी पहुँचते शाम गहरा गई। दूर माल्पी तट दिख रहा था। यहाँ से केवल सात-आठ किलोमीटर की दूरी पर ही स्थित था ख़ूबसूरत अरब सागर का समुद्री तट।
माल्पी का सूर्यास्त
पारदर्शी स्पष्ट नील वर्ण की लहरें, शांत गुलाबी आसमान में अस्त होता हुआ रक्ताभ सूर्य, चारों ओर फैली हुई लालिमा, सचमुच . . . रंगीन कलाकृति सादृश्य यह नज़ारा अपने आप में एक अनोखा अनुभव रहा।
कुछ देर आराम कर हम चले मंदिर के दर्शनार्थ। आइए इस मंदिर से जुड़े कुछ दार्शनिक तथ्यों की चर्चा करें।
‘श्री कृष्ण मठ’ उडुपी मंदिर का इतिहास सहस्र वर्षों से भी अधिक पुराना है। यह स्थल ‘द्वैत वेदांत दर्शन के प्रणेता और दार्शनिक भाष्यकार’ श्रीमध्वाचार्य की जन्म स्थली माना गया है। यह मंदिर अपने आप में विलक्षण है और इसका कारण यह है कि भगवान बाल कृष्ण का ‘श्री विग्रह’ अन्य वैष्णवालयों की भाँति पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है। गर्भ गृह में भगवान का दर्शन मुख्य द्वार से न होकर गर्भ-गृह की पिछली दीवार से लगी नौ छिद्रों वाली नक्काशीदार आभ्यांतरिक ‘खिड़की’ से भक्तों को सुलभ कराए जाना एक असाधारण परम्परा ही नहीं बल्कि इस मंदिर की ऐकांतिक विशेषता भी है जिसके नेपथ्य में एक रोचक कथा वर्णित है।
उडुपी श्री कृष्ण मठ
मान्यता है कि मध्वाचार्य ने भगवान कृष्ण की मूर्ति को पूर्वाभिमुख ही प्रतिष्ठित किया था लेकिन यह तो एक भक्त की प्रगाढ़ भक्ति की पराकाष्ठा थी जिसने भगवान की मूर्ति को मुड़ने पर विवश कर दिया। सोलहवीं शती के एक ‘क्षुद्र’ भक्त कनकदास का, निम्न जाति में जन्मने के कारण, मंदिर प्रवेश वर्जित कर दिया गया था। लेकिन उसकी श्रद्धा और अनन्य भक्ति ने यह साबित कर दिया कि उस नियामक नियंता के दरबार में भेद-भाव का कोई स्थान नहीं है। निश्चल भक्ति के सामने भगवान भी भक्त के दास बन जाते है। वह बेचारा मंदिर के अंदर न जा सकने के कारण हर दिन मंदिर के पिछवाड़े जाकर वहाँ की दीवार में हुई दरारों में से बाल कृष्ण की मूर्ति का पार्श्व भाग देखकर संतुष्ट हो जाता था। अश्रुपूरित नैनों से रोज़ दर्शनों की प्रार्थना याचना करता। असाध्य को साधने की असम्भव साधना। आख़िर भगवान ने भक्त के हृदय की सुन ली। उन्हें झुकना पड़ा। साधना की चरम परिणति-भगवद् दर्शन को पाकर वह ‘अछूत परित्यक्त’ धन्य हुआ जब एक दिन प्रातः काल मंदिर के किवाड़ खुले और अर्चकों ने पाया कि भगवान का श्री विग्रह तो पश्चिम की दीवार की ओर घूम गया है। अविश्वसनीय आश्चर्य! भगवान का भक्त के प्रति निज समर्पण का जीवंत प्रमाण है कि आज भी इस मंदिर का पूर्वी मुख्य द्वार बंद ही रहता है क्योंकि भगवान की मूर्ति तो पश्चिमी दिशा में मुड़ चुकी है और भक्तों को दर्शन उन्हीं दरारों में खुदी ‘कनकराज किटिकी’ जिसे ‘नवग्रह खिड़की’ भी कहा जाता है, उसी खिड़की के नौ छिद्रों से कराया जाता है। कथा के श्रवण मात्र से मन गद्गद् हो उठा। दक्षिण भारत का यह प्रसिद्ध तीर्थाटन ‘दास साहित्य’ का मुख्य केंद्र है। नित्य प्रतिदिन देश-विदेश से हज़ारों की संख्या में पर्यटक यहाँ आते हैं। मंदिर के दक्षिणी भाग में ‘मध्व-पुष्करिणी’ मीठे पानी का जलाशय बना हुआ है। गर्भ गृह में बालकृष्ण की रत्न जड़ित सुवर्ण आभूषणों से सुसज्जित छोटी सी चित्ताकर्षक मूर्ति दिव्य आलोक बिखेर रही थी। बाहरी कोष्ट में गुंजायमान होती घंटियाँ वातावरण को पवित्र बना रहीं थीं . . .वहीं पर अन्य देव प्रतिमाओं के साथ श्री मध्वाचार्य की विशाल मूर्ति भी प्रतिष्ठित की गई है। बाहरी परिक्रमा मार्ग में बने हुए दीप स्तम्भ पर जलती हुई असंख्य दीप मालाओं की अलौकिक दीप्ति से वह स्थान अग्निकुंड की तरह तप रहा था। वहाँ की तप्त अग्नि प्रभा मन को शमित कर विचार-शून्य बना रही थी। मन स्वतः ही समाधिस्थ हो रहा था। यह भक्त ‘कनकदास’ की भक्ति का तेज था या कोई भ्रम . . .? चेतना-शून्य कुछ पलों के उपरांत हमने मंदिर की परिक्रमा की, प्रसाद पाया और चल पड़े।
शृंगेरी राज्य मार्ग
हमारा अगला पड़ाव था पश्चिमी तट के जंगलों में बसा क्षेत्र होरनाडु . . . जंगल भ्रमण और अन्नपूर्णेश्वरी माता का आलय . . . जो लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर था। लेकिन शंका हुई कि जंगलों में बसे इस क्षेत्र में आवास की सुविधा होगी या नहीं? क्षेत्र के बारे में जानकारी भी नहीं थी और रात भी हो चुकी थी। तो सोचा क्यों न पहले शृंगेरी चला जाए जो केवल चालीस किलोमीटर की दूरी पर है ताकि रात बसर हो जाए क्योंकि शृंगेरी तो काफ़ी सुविकसित स्थल है और आवास भी आसानी से मिल सकता है। सुबह दर्शनोपरांत होरनाडु जाया जा सकता है। हाँ, शृंगेरी हमारी कार्यावली में तो था नहीं, लेकिन जब ‘माता का बुलावा’ आ जाता है तो क़दम अपने आप उस राह चल देते है। हमारा जाना हमारे अपने सायास प्रयास पर निर्भर रहता है और ‘देव कृपा’ तो अनायास ही सम्भव हो जाती है। तो एक बार फिर हमेशा की ही तरह गाड़ी में बैठकर दिशा बदली और बढ़ चले . . .। चालीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित ‘दक्षिणाम्नाया श्री शारदा पीठ शृंगेरी’। पहुँचने में रात हो गई। आवास बहुत आसानी से मिल गया। मठ के पास ही कई होटल हैं जो आपकी सुविधानुसार मूल्य पर मिल जाते है।
सुबह स्नानादि से निवृत्त होकर चले दर्शनार्थ। वैसे तो हम भोजनासक्त है लेकिन फिर सोचा कर्नाटक के विशुद्ध अल्पाहार रागी दोसा का आनंद तो दर्शनों के बाद ही चखा जाएगा।
श्री शारदा मठ शृंगेरी
अद्भुत और विलक्षण शैली पर बने हुए विशाल गुम्बदाकार मठ की इमारत को देखकर आँखें चौंधिया गईं। अद्भुत सौंदर्य! अद्वैत वेदांत के पुरोधा आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म की पुनःस्थापना के लिए भारतवर्ष की चारों दिशाओं में जिन ‘चतुराम्नाया मठों’ की स्थापना की थी, वे हैं पश्चिम में द्वारका पीठ, उत्तर में बदरी ज्योतिष पीठ, पूरब पूरी में गोवर्धन पीठ और दक्षिण में कर्नाटक राज्य के तुंगा नदी के तट पर बसा शृंगेरी ‘आत्म विद्या श्री शारदा पीठ’। इन चारों पीठों में यह पीठ प्रधान मूलाधार मठ माना जाता है। पीछे बहती हुई तुंगा नदी का तट। नदी के उत्तरी और दक्षिणी दोनों तटों पर मठ के मंदिरों का निर्माण किया गया है। एक ओर मठाधीशों और मठाधिकारियों के आवास भी बने हुए है जो साधारणतया आदि शंकराचार की परम्परा के अनुयायी ही हुआ करते हैं। अंदर विशाल मंडप में दो आलय है। प्रधान मंदिर में ज्ञान की देवी ‘श्री शारदाम्बा’ की दिव्य प्रतिमा प्रतिष्ठित की गई है। उसी मंडप में शिव लिंग भी स्थापित है। मंदिर की बनावट शैली विजयनगर और होयसाला परम्पराओं का सम्मिश्रण है जो इसे एक असाधारण आकार की प्रतीति देता है। चारों दिशाओं से मंदिर में प्रवेश किया जा सकता है। मंदिर का ऊर्ध्व भाग अर्ध गोलाकार मेहराबनुमा है जहाँ शिखर और बाहरी दीवारें लगभग वर्तुलाकार बनी हुईं है और वहीं गर्भ-गृह और आभ्यांतरिक सदन पूर्ण वर्गाकार बना हुआ है। मंदिर का पूरा ढाँचा एक ऊँचे चबूतरे पर विन्यस्त है जो होयसाला स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण माना जा सकता है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर शैव वैष्णव शाक्त, वैदिक और पूर्व वैदिक विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियाँ तराशी गई हैं जो तत्कालीन मूर्ति कला, शिल्पकला की भव्यता को प्रदर्शित करती हैं।
मंदिर की बाहरी बनावट का अवलोकन कर हम अंदर चले दर्शन के लिए। अंदर भीड़ अधिक न थी। भीतरी कोष्ठ का मंडप काफ़ी विस्तीर्ण और विशाल था। अंदर गर्भ गृह में मठ की प्रधान मूर्ति ज्ञानदेवी ‘श्री शारदाम्बा’की दिव्य मूर्ति का अनुपम लालित्य! सुवासित पुष्प मालाओं और सुवर्ण आभूषणों से सुसज्जित, कुमकुम चंदन का तिलक धारण किए, रत्न जड़ित स्वर्ण मुकुट पहने माँ शारदा की नासिका में लगी हुई नथनी के शुभ्र हीरे में से अलौकिक कांति फूट रही थी। दिव्य चैतन्यमयी माँ के इस अकल्पित या कहिए असंभावित दर्शन पाकर हम कृतकृत्य हुए। माँ के तेज को देखकर रोम-रोम सिहर उठा। आदि श्री शंकराचार्य के इस स्थल को चुनने के पीछे एक दंत कथा हमें सुनाई गई कि एक बार जब आदिगुरु परिभ्रमण पर थे तो तुंगा नदी के इस तट पर उन्होंने एक आश्चर्य देखा। एक सर्प प्रसव देती हुई एक मेंढ़की को कड़ी धूप से बचाने के लिए अपने फन की छाया दे उसकी रक्षा कर रहा था। सर्प का प्रिय आहार मेंढक। इस अप्राकृतिक दृश्य को देखकर आदिगुरु स्माधिस्थ हुए और उन्हें इस स्थल में संभूत निज शक्ति का भान हुआ और उन्होंने तत्क्षण अपने प्रथम मठ की स्थापना के लिए यह क्षेत्र चुना। मंदिर में माँ का दर्शन कर आप भी उस स्पंदन को अनुभूत कर सकते है। इन्हीं अवर्णनीय आनंद के पलों में डूब कर, हमें उपकृत करने के लिए माँ का आभार व्यक्त कर हम वहाँ से निकल पड़े अपने अगले पड़ाव पर लेकिन अल्पाहार के पश्चात ही।
कर्नाटक का रागी दोसा और नारियल की चटनी का अपना ही स्वाद है। वैसे यहाँ का मैसूर बोंडा भी बहुत चाव से खाया जाता है। और भोजन में बिसिबेल्ली बाथ (सांबर चावल) हो और साथ ही शुद्ध घी से बनाया हुआ केसरी बाथ (हलुवा) तो क्या कहने? सोने पर सुहागा!। हम भारी आहार नहीं चाहते थे यात्रा के दौरान सो अल्पाहार से संतुष्ट होकर निकल पड़े होरनाडु . . . लगभग चालीस किलोमीटर की दूरी का प्रदेश।
होरनाडु नैसर्गिक सौंदर्य से भरा मार्ग
पश्चिमी तट की सघन घाटियों से घिरा राज्य मार्ग। गाँवों से निकल कर जाने वाली कहीं-कहीं पतली संकरी सड़क। आवागमन कम था। घने वृक्षों की छाया और हल्की बूँदा-बाँदी से दृष्टि बाधित हो रही थी। गाड़ी की गति अति धीमी और वैसे घाटियों की सुंदरता का आस्वादन करने के लिए आप गति तेज़ भी नहीं कर सकते है। बारिश के कारण एक घंटे का रास्ता पार करने में दो घंटे लगे और मध्याह्न तक हम पहुँचे माता अन्नपूर्णेश्वरी के धाम।
आश्चर्य! यहाँ तो काफ़ी विकास था। आवास की सभी सुविधाएँ भी थीं। तो अब समझ आया कि यह तो माँ शारदा की आज्ञा थी कि हम पहले उनके दर्शन करें। मन एक बार फिर श्रद्धा से झुक गया।
पश्चिमी तट के सघन जंगलों से आवर्त भद्रा नदी के तीर पर बसा क्षेत्र माता अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर। यह क्षेत्र ऋषि अगस्त्य मुनि की तपोस्थली माना जाता है। मंदिर मध्याह्न कुछ समय के लिए बंद किया गया था। तो हमें वहाँ के भोजनालय ले जाया गया। दरअसल हमारी यात्रा में यह स्थान यहाँ के भंडारे की प्रसिद्धि को सुनकर कौतूहल वश जिज्ञासा के कारण ही जुड़ा था। हमारी आध्यात्मिकता पर हावी हुई भोजन प्रियता ही हमें यहाँ खींच कर लाई थी। यहाँ आकर पाया, जितना सुना था वह कम था। अंदर की व्यवस्था देखकर अचंभित रह गए। प्रांजल वातावरण में यहाँ हर दिन हज़ारों भक्तों को पाँच बार गरम-गरम खाना खिलाया जाता है। भोजन बनाने के लिए आधुनिक यंत्रों और उपकरणों का उपयोग। भोजन पकाना, परोसना, थालियाँ साफ़ करना, सब कुछ यंत्रचालित किया जा रहा था। यहाँ पर किसी भी समय आइए, भोजन अवश्य मिलेगा। ‘आदिशक्त्यात्मिका माता अन्नपूर्णेश्वरी’ के दरबार में भला अन्न की क्या कमी . . .
होरनाडु अन्नपूर्णेश्वरी आलय
“भिक्षांम देही करावलंबन करी, माता अन्नपूर्णेश्वरी” का उच्चार करते ही साक्षात् ‘महादेव’ की झोली अन्न धान से भरने वाली माता अपने भक्तों की क्षुधा कैसे तृप्त न करती? ‘न भूतो न भविष्यति’! ऐसा स्वादिष्ट भोजन कभी न किया था। यह तो निश्चित ही माता की कृपा का प्रसाद था जो भोजन में स्वाद ला रहा था। भरपेट भोजन कर माता के दरबार में हाज़िरी दी और दर्शन किए। वैसे तो नियम होता है . . . दर्शन के बाद प्रसाद। लेकिन माँ के दरबार में . . . प्रसाद और फिर दर्शन क्योंकि ‘माँ’ के आँचल में सभी नियम रद्द हो जाते है, आचार संहिताएँ लुप्त हो जाती है।
दिन कम थे सो बढ़ चले कोल्लूर की तरफ़। जंगली यात्रा करते हुए ‘श्री क्षेत्र मूकांबिका’ कोल्लूर की ओर प्रस्थान। जी नहीं . . . जंगली यात्रा नहीं जंगल की यात्रा!
होरनाडु और कोल्लूर के मार्ग में कुद्रेमुख पर्वत शृंखला को पार करना पड़ता है। कुद्रेमुख कर्नाटक के पश्चिमी तट पर सागर तल से लगभग छह हज़ार फुट की ऊँचाई पर स्थित प्राकृतिक संपदा और जैव-विविधता को समेटे ‘वन्य जीव संरक्षक राष्ट्रीय उद्यान’ है जो लोह अयस्क खनिज का गढ़ भी माना जाता है। तुंगा, भद्रा और नेत्रावती . . . तीन नदियों का उद्गम स्थल यह विस्तीर्ण जंगल पर्यटकों के विशेष आकर्षण का बिंदु है। हमारी गाड़ी अब जंगल पार कर रही थी। दोपहर का समय। जंगल अपने गर्भ में कई रहस्यों को छिपाए रहता है। हर पल अप्रत्याशित, भयानक, जोखिम भरा। कभी भी कुछ भी हो सकता है। सतर्कता और सावधानी की निरंतर अपेक्षा। जितना मनोरम उतना संकटमय। असावधानी क़तई स्वीकृत नहीं। सघन वृक्षों से घिरा सँकरा रास्ता। भयंकर निस्तब्धता . . . दोपहर में भी शाम का अहसास। निर्बाध बहती हुई मंद समीर। हवा की भीनी आर्द्र ख़ुश्बू। जंगली रास्तों में हमेशा हम गाड़ी की खिड़कियाँ आधी खोल कर ही चलाते हैं ताकि तरो-ताज़ा हवा की महक अपने फेफड़ों में भर सकें। हवा से झूमती हुई घने वृक्षों के झुरमुट को चीर कर आती हुई ढलते सूर्य की पतली महीन किरणें धरती पर पच्चीकारी दिखा रहीं थीं। निर्जन प्रदेश में इतनी शान्ति थी कि सूखे पत्तों का गिरना तक आप सुन सकते है, अनुभूत कर सकते हैं। अचानक कहीं दूर किसी पक्षी की कूक से पूरा जंगल थरथरा जाता। आवाज़ दूर तक गूँज जाती और फिर यकायक कई पंछी उस गूँज के उत्तर में कूकने लगते। सूखे पत्तों के खड़खड़ाने की आवाज़ . . .। शायद कहीं कोई जानवर छुपा खड़ा हो . . . बंदर चिल्लाते हुए पेड़ों की टहनियों पर तेज़-तेज़ झूलने लगते . . . टहनियाँ झंझावात की तरह ऊपर-नीचे झूल जाती और असंख्य पंछी अचानक से पंख फड़फड़ाकर शोर मचाते हुए वृक्षों की डालियों पर गोल-गोल उड़ने लगते। कुछ क्षणों के लिए जंगल की नीरवता भंग हो जाती, वायुमंडल ध्वनित हो जाता पर फिर कुछ ही पलों बाद सब सामान्य। सब कुछ शांत . . . रहस्यमय . . . असंभावित। हम भी साँस रोके आहिस्ता-आहिस्ता धीमी गति से बढ़े जा रहे थे।
रास्ते में आपको कई जल प्रपात मिल जाएँगे। दूर ढलान से आता हुआ फेन उगलता दूधिया जल नीचे धरती पर गिरकर चाँदी की सीपियों के समान बिखर रहा था। वातावरण में काफ़ी ठंडक आ गई थी। वैसे तो कुद्रेमुख विभिन्न वन्य जीवों के लिए प्रसिद्ध है, लेकिन हमें जंगली भैंसा, लाल मुँह लंबी-लंबी पूँछ वाले लंगूरों को देखकर ही संतुष्ट होना पड़ा। गाड़ी की गति अत्यंत धीमी हो चली थी। वैसे जंगली रास्तों में आप चाहकर भी गाड़ी तेज़ नहीं चला सकते। न जाने कब कोई वन्य प्राणी आप पर तरस खाकर आपको दर्शन देने आपका रास्ता रोककर खड़ा हो जाए? और तेज़ गाड़ी की आवाज़ें जानवरों को बाधा पहुँचाती है। तो अंततः सभी नियमों का ध्यान रखते हुए और जंगल के नैसर्गिक सौंदर्य का रस लेते हुए हमने चार घंटों में यह साहसिक सफ़र पूरा किया और पहुँचे श्री मूकाम्बिका . . . कोल्लूर।
मूकाम्बिका मंदिर श्री मूकाम्बिका मूल स्थान ‘सर्वज्ञान पीठ’ /आदि शंकराचार्य का तप स्थान
कोदाचारी पर्वतों की उपत्यका पर सौपर्णिका नदी के दक्षिणी तट पर बसा ‘मूकाम्बिका’ मंदिर परशुराम द्वारा उद्भासित सात मुक्ति धामों में से एक माना गया है। पार्श्व भाग में ‘मूकाम्बिका वन्य जीव अभयारण्य’। उष्ण कटिबंधीय सदाबहार सघन निविड़ वन। इस पर्वत माला के शिखर पर एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है जो आज भी दर्शनार्थियों के लिए खुला रहता है। यही मूकाम्बिका देवी का मूल स्थान है। इसी शिखर को ‘सर्वज्ञानपीठ’ कहा जाता है जहाँ बैठकर आदि शंकराचार्य ने तपस्या की थी और उन्हें देवी मूकाम्बिका के दर्शन प्राप्त हुए थे। एक मान्यता यह भी है कि इसी स्थान पर देवी माँ ने कौमासुर का वध किया जिस कारण उनका नाम ‘मूकाम्बिका’ पड़ गया। ‘शाक्ताराधना’ का श्री क्षेत्र . . . कोल्लूर स्थित ‘मूकाम्बिका मंदिर।
हम समयाभाव के कारण शिखर पर तो नहीं जा पाए लेकिन नीचे स्थापित मंदिर का दर्शन प्राप्त किया।
मंदिर का क्षेत्रफल विशाल तो नहीं लेकिन विलक्षण अवश्य था। गर्भ-गृह में तेजोमय स्वयंभू ज्योतिर्लिंग का दर्शन किया। इस शिवलिंग की विशेषता यह है कि इसने ‘आदिपराशक्ति’ देवी को अपने में समाहित कर लिया है और ‘अर्धनारीश्वर’ के रूप में आराधित है। शिवलिंग को एक सुवर्ण रेखा दो भागों में विभक्त करती है। वाम भाग में सृजनात्मक शक्ति स्वरूप महालक्ष्मी, महाकाली महा सरस्वती ‘त्रिदेवियाँ’ और दक्षिण भाग में चैतन्य स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु महेश्वर ‘त्रिदेव’ के रूपों की प्रतीति भक्तों को होती है। वहीं पर उसी लिंग के पार्श्व भाग में श्री शंकराचार्य द्वारा ‘श्रीयंत्र’ पर पंच लोह की चतुर्भुजी मूकाम्बिका देवी को प्रतिष्ठित किया गया है।
एक दंत कथा के अनुसार इसी स्थल पर कोला महर्षि के तप से प्रसन्न होकर आदिपराशक्ति देवी ने कौमासुर, जिसका एक नाम मूकासुर भी था, को तारण मोक्ष दिया था। उनके तप से प्रसन्न होकर महादेव भी उन्हें आशीर्वाद देने आए और उन्हें वर माँगने को कहा। उनकी प्रार्थना पर भगवान शिव अपनी ‘शक्ति’ के साथ इस ज्योतिर्लिंग में विलीन हो गए। और यही वह स्थान है जहाँ शंकराचार्य को उसी महा शक्ति मूकाम्बिका के दर्शन हुए। हमारे लिए इन दंत कथाओं के पीछे का विज्ञान तो रहस्य ही बना रहा, लेकिन जब हम इस क्षेत्र के नाम को देखते है . . . ’कोल्लूर’ तो लगता है कि यह नाम ‘कोला’ महर्षि के नाम पर ही पड़ा होगा। अब यह तो शोधकर्ता का क्षेत्र है हमारा नहीं। तो बस इतना कहा जा सकता है कि भारत भूमि तपोसिक्त ज्ञान भूमि रही है। यहाँ आत्मसंयमी ऋषि मुनियों और परिव्राजकों ने अपनी साधना की जीवंत तपो अग्नि को इन मंदिरों में भावी मानवजाति के आत्मोद्धार के लिए सहेज कर सुरक्षित कर दिया है और हर दिन असंख्य भक्त गण लाभांवित भी हो रहे है। अब यह तो श्रद्धा का विषय है। जिसकी जितनी श्रद्धा, उतना विश्वास! प्रकृति की सुरम्य वादियों में बसे इस महिमान्वित स्थल के बाद आरंभ हुई हमारी वापसी।
धर्मस्थल मंजूनाथ शिवालय
मूकाम्बिका से बंगलूरू की दूरी 375 किमीटर की थी तो हमने बीच पड़ाव वह रास्ता चुना जो ‘श्री क्षेत्र मंजूनाथ’ से होकर गुज़रता था। इसे ‘धर्मस्थल’ क्यों कहा जाता है उसका तर्क वहाँ जाकर ही समझ आया। मूकाम्बिका से लगभग अस्सी किलोमीटर की दूरी पर है यह स्थान। ‘मंजूनाथेश्वर’ महादेव का एक ऐसा अद्वितीय शिव मंदिर है, जहाँ मंदिर का संचालन तो जैन-धर्माचार्यों द्वारा होता है और पूजा आराधना मध्वाचार्य वंशजों के पुरोहितों द्वारा संपन्न की जाती है। गर्भ-गृह में मंजूनाथ महादेव शिवलिंग के समानांतर ही जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं को देखकर आश्चर्य हुआ। पूछताछ करने पर बताया गया कि आज भी मंदिर की कार्यकारिणी जैन मतावलम्बी ही निभाते हैं। जैनों का यह प्रसिद्ध तीर्थ स्थल माना जाता है। वैसे देखा जाए तो जैन धर्म हिंदू घर्म से अलग कहाँ? श्रीमद् भागवत के पंचम स्कंध चतुर्थोध्याय में नाभि नंदन ऋषभदेव का आख्यान श्री शुक देव सुनाते हैं जिसमें ऋषभ देव के सौ पुत्रों का विस्तृत वर्णन मिलता है। यही नाभि नंदन ऋषभदेव जैन पुराणों के अनुसार आदि तीर्थंकर माने गए हैं। तो कहिए जैन धर्म हिंदू धर्म का ही एक अंग हुआ न? इसीलिए यह क्षेत्र दोनों धर्मों के विलयन का उत्तम उदाहरण दिखाता है और ‘धर्मस्थल’ की संज्ञा हमें सर्वथा अनुरूप और तर्कसंगत लगी। मंदिर में काफ़ी भीड़ थी। दर्शन किए और वापस गम्य स्थान की ओर।
इन स्मृतियों को सहेजे हम अपनी वापसी पर चल पड़े। कर्नाटक राज्य का अभी एक अंश ही देखा था। वैसे इस राज्य की विशेषता रही इसका ख़ुशनुमा वातावरण और इस प्रदेश की प्राकृतिक सुंदरता। जिन प्रदेशों को इस यात्रा के दौरान देखा था, हर एक स्थान अनूठा और विलक्षण था। कभी कभार लगता है कि यात्रा गंतव्य से अधिक ख़ूबसूरत लगने लगती है और कर्नाटक में वह हुआ भी। दूर तक हरियाली, अनुकूल वातावरण, साफ़ पारदर्शी जलाशय, चाँदी उगलते जल-प्रपात, स्तब्ध कर देने वाले जंगल और मंत्रमुग्ध करने वाले महिमांवित मंदिर और स्वादिष्ट भोजन। सब मज़ेदार और यादगार रहा। यह यात्रा आध्यात्मिक भी रही और रोमांचक भी। बस अब विराम, शेष अगली यात्रा के बाद . . .!
3 टिप्पणियाँ
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उडुपी श्री कृष्ण मठ, श्रृंगेरी शारदा मठ, होरनाडु अन्नपूर्णेश्वरी मंदिर, कोल्लूर मूकाम्बिका मंदिर और धर्मस्थला जैसे पुण्य स्थलों का दौरा और दर्शन केलिए मैं एक पैसा खर्च किए बिना कर चुका । धन्यवाद महोदया । नास्तिक को भी आस्तिक बनाने की शक्ति आपका आध्यात्मिक यात्रा लेख में निहित है। स्थल पुराण कथा सहित वर्णित लेख अवश्य पाठकों को प्रत्यक्ष दर्शन का अनुभव देगा । अनेक बधाइयाँ ।
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दर्शनीय हरे भरे कर्नाटक प्रदेश के देव स्थलों का अत्यंत मनोरम और प्रत्येक स्थल के साथ जुड़ी कथाओं का इतना सुंदर चित्रण कि समुद्र में उतरते चांद और निकलते सूर्य को पुनः देखने, रमणीय स्थलों की एक बार फिर यात्रा की इच्छा हो रही है। लेखिका पद्मावती जी को हार्दिक बधाई
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इतना रमणीय और रोमांचक वर्णन कि मन मचल रहा है इस यात्रा पर निकल पड़ने के लिए
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