कोने वाला कमरा
डॉ. पद्मावतीहमेशा जीवन में वो नहीं होता जो हम चाहते है। सच तो यह है कि जो होता है वह किसी की चाहत पर निर्भर नहीं होता। कभी-कभी बाग़ की कुछ कलियाँ माली की हठ के कारण असमय ही मुरझा जातीं हैं। लेकिन फिर सज़ा किसे मिलती है? कौन भोगता है वह यंत्रणा? माली ही तो . . . ? आगे पढ़ें—
शाम के चार बज रहे थे। चारों ओर बिखरी छिटपुट पहाड़ियों की ओट में सूरज बादलों से आँख-मिचौनी खेल रहा था। जहाँ तक नज़र जाती वहाँ तक हरियाली ही हरियाली फैली थी। गहरी घाटियों से घिरा घना जंगल। निर्जन वातावरण और निस्तब्धता। विशाखापट्टणम से अरकु वैली जाने के रास्ते में बसी आदिवासियों की एक जंगली बस्ती से सटा हुआ छोटा सा शहर।
राजेश का तबादला जब यहाँ हुआ, मीरा काफ़ी चिंतित हो गई थी कि इस जंगल में वह कैसे रहेगी? सरकारी नौकरी थी राजेश की। अच्छे ओहदे की। फिर सोचा कि केवल तीन साल की ही तो बात है, और अगर इतना ही नागवार लगे तो कोई भी कारण बनाकर यहाँ से किसी और शहर जाया जा सकता है। तो बड़ी मुश्किल से मानी थी वो पर यहाँ आकर यहाँ की रमणीयता ने तो मन ही मोह लिया था। चौबीसों घंटे बालकनी में बैठ निहारा करती थी उन नज़ारों को। दरअसल अब तक शहरों की भीड़-भाड ज़िन्दगी ही देखी थी उसने। पर्वतीय प्रदेश में आवास पहली बार हो रहा था।
राजेश को सरकारी आवास भी मिल गया था पर आवंटन में थोड़ी देर थी। इसीलिए किराये के मकान में रह रहे थे। एक मंज़िला मकान था . . . कोठीनुमा। आलीशान और बेहद ख़ूबसूरत। काफ़ी सस्ते में मिल गया था। दोनों को बहुत आश्चर्य भी हुआ था कि मकान मालिक ने बिना कुछ कहे उनकी बात कैसे मान ली थी कि केवल कुछ ही महीनों के लिए ही वे घर चाहते हैं। नीचे मकान मालिक रहते थे और ऊपरी मंज़िल इनको दे रखी थी। उसके ऊपर छत थी . . . जिसके कोने में एक कमरा था और उसके चारों ओर ख़ूब सारे पौधों के गमले थे . . .। रंग-बिरंगे फूलों वाले।
मकान मालिक ने बस एक ही शर्त उनके सामने रखी थी कि नीचे सीढ़ियों को वे हमेशा ताला लगाएँगे। राजेश ने इस बात का औचित्य यही समझा था कि जंगली प्रदेश है, तो शायद ऐसा सुरक्षा की दृष्टि से उन्होंने कहा होगा। ठीक भी था . . . तो बात को ज़्यादा तूल न देकर उन्होंने आदेश का पालन करना उचित समझा।
मकान मालिक के घर में दो ही प्राणी थे। मिस्टर श्याम सुंदर व्यास और उनकी पत्नी सुषमा व्यास। जहाँ तक उसे पता था कोई तीसरा प्राणी नहीं देखा था परिवार में। हाँ दो-तीन नौकर अवश्य थे, माली दादा, भोजन पकाने वाली लछमी और . . . काम वाली पुष्पा। नीचे बड़ा सा बग़ीचा और हरी-हरी घास। कोने में एक विशाल नीम का पेड़ था और आँगन के बीचों-बीच हरसिंगार। शाम होते ही जिसकी भीनी-भीनी ख़ुश्बू से पूरा अहाता नहा उठता था और सुबह होते ही फूलों की चादर बिछ जाती थी आँगन में।
अचानक उसे याद आया दोपहर को छत पर कपड़े सुखाए थे धोकर। मुन्ना बाहरी कमरे में बैठा खेल रहा था . . . मुन्ना अभी एक साल का ही था।
वह चाहती थी कि सुषमा जी से बात करे, मुन्ने के लिए किसी स्कूल की जानकारी ले उनसे, पर पता नहीं जब भी वे मुन्ने को देखती तो झट से मुँह फेर लेती थी। बालक की मुस्कान तो किसी का भी मन मोह लेती है पर न जाने क्यों वे उसे देखते ही वे असहज हो जाती थी। वह तो डरने लगी थी उनसे। उस को उनके दिमाग़ की हालत कुछ ठीक नहीं लगती थी। उसने राजेश से कहा भी था पर उसने डाँट कर उस का मुँह बंद करवा दिया था। उन्हें समय निकालना था। और दूसरा कोई विकल्प न था। जब कभी काम वाली से वह उनके बारे में पूछती तो एक ही जवाब मिलता, “मालकिन दवा खाकर सो रही है”। अब क्या बीमारी थी, मीरा ने कभी जासूसी नहीं की। उन्हें आए भी कितने दिन हुए थे।
“मुन्ना राजा चलो ऊपर चलते हैं कपड़े लाने,’ उस ने आवाज़ लगाई तो वह झट खेलना छोड़ रेंगता आया और माँ से लिपट गया। उसने उसे गोद में उठाकर दरवाज़े पर कुंडी लगाई। नीचे बरामदे से कुछ अजीब सी आवाज़ आ रही थी। झाँक कर देखा। सुषमा जी झूले पर बैठी झूल रहीं थीं। झूला हल्का-हल्का हिल रहा था। शायद उसी के घिसने आवाज़ थी।
साँझ ढलने को थी पर धूप अभी भी छत पर छितरी हुई थी। पहाड़ी प्रदेश . . . कभी भी आँधी आ सकती है, कभी भी अचानक से पानी बरसने लगता है। कुछ भरोसा नहीं। वह जल्दी-जल्दी कपड़े समेटने लगी। सामने देखा तो पाया कि उस कोने वाले कमरे की खिड़की का एक पट खुला हुआ था। ऊपर तो वह रोज़ आती रही थी, पर खिड़की कभी खुली न दिखी थी। आश्चर्य हुआ। उसने दरवाज़े की ओर देखा। ताला नहीं था। यानी . . . कोई अंदर था। जिज्ञासा उठी। कौन हो सकता है? वह धीमे से गई और खिड़की से झाँक कर देखने लगी। लगा जैसे अंदर आराम कुर्सी पर कोई बैठकर पढ़ रहा था . . . शायद . . . क्योंकि आराम कुर्सी का पिछला भाग उसके सामने था और बैठने वाले के बाल हल्के से अस्पष्ट नज़र आ रहे थे। कमरे में मद्धिम नीली रोशनी थी। कोने में टेबल लैम्प जल रहा था। कई किताबें शेल्फ़ में रखी हुईं थीं। बड़े से पलंग पर सफ़ेद चादर बिछी हुई थी। छोटा सा सोफ़ा और मेज़ भी थे। सजा-सजाया हुआ लग रहा था कमरा।
“क्या देख रही हैंहै दीदी?” पुष्पा की आवाज़ से मीरा हड़बड़ा गई और झट पीछे हट गई।
“तूने तो डरा ही दिया पुष्पा। कमरा खुला था न, इसीलिए देख रही थी। कौन है अंदर?” पुष्पा के पास ऊपर आने के लिए दूसरी चाबी रहती थी जिससे वह रोज़ आकर पौधों को पानी डाल दिया करती थी। आँगन की बाग़बानी तो माली सँभालता था।
उसकी जिज्ञासा अब भी बनी हुई थी। लगा था कि कोई अंदर है।
“कोई नहीं दीदी। माँजी ने कमरा साफ़ करने को कहा तो मैं आई। महीने में एक बार चादर बदल देनी होती है न इसीलिए। सोचा आई हूँ तो पौधों को पानी दे दूँ तो काम हो जाए।”
वह मुन्ने को पुचकारती हुई लाड़ करने लगी। मुन्ना भी उसे देखते ही उछल-उछल जाता था। उसके भी नाती-नातिन थे इसीलिए वह मुन्ने से काफ़ी घुल मिल गई थी।
अचानक किसी ने नीचे से आवाज़ दी, “पुष्पा अरी ओ पुष्पा कहाँ है? जल्दी आ।”
उसने पानी की पाइप को ज़मीन पर पटक दे मारा और वहीं से चिल्लाई, “हाँ मालकिन अभी आई।”
“अभी तो काम करके आई हूँ, इतने में ही अचानक क्या आफ़त आ गई . . . ये माँजी भी न . . . अब क्या बोलूँ . . .,” पुष्पा बड़बड़ाते हुए कमरे को ताला मार सीढ़ियों की ओर निकल पड़ी।
“दीदी मैं जा रही हूँ आप भी जल्दी आ जाना। बरसात आने को है।”
यहाँ आदिवासी महिलाएँ सब को दीदी कहकर ही पुकारती थीं भले ही उम्र में कितनी ही बड़ी क्यों न हो।
“अरे अंदर बत्ती तो बंद कर देती और ये खिड़की भी,” जाती हुई पुष्पा को मीरा ने टोका।
“न दीदी, बाद में, कोई बात नहीं . . . देर हुई तो बस शामत आई समझो,” पुष्पा चली गई।
बादल घिर आए थे। उस ने कपड़े समेटे और वापस चलने को हुई। तेज़ हवा चल रही थी और खिड़की का खुला शीशा ग्रिल से टकरा कर आवाज़ कर रहा था। लगा टूट जाएगा . . . काँच है . . . चलो बाहर से धकेल कर ही बंद कर देती हूँ। वह मुन्ने को गोद में उठाए खिड़की की ओर चली। खिड़की अभी छूने ही वाली थी कि अचानक अंदर से दबाव आया और खिड़की धड़ाम से बन्द हो गई।
उस का दिल सूखे पत्ते की तरह काँप गया। माना, हवा चल रही थी, पर खिंचाव तो अंदर से हुआ था। वह समझ न पाई। उसने मुड़कर दरवाज़ा देखा। वहाँ तो ताला लटक रहा था। यानी अंदर कोई नहीं था। एक ठंडी सी सिरहन रीढ़ की हड्डी में दौड़ गई। पैर लड़खड़ाने लगे। उसने न आव देखा न ताव। उलटे पाँव सीढ़ियों की ओर दौड़ पड़ी। मिनटों में ही सारी सीढ़ियाँ उतर गई। साँस फूलने लगी थी। मन और दिमाग़ का संतुलन गड़बड़ा गया था। उसे अपने देखे पर विश्वास नहीं हो रहा था। समझने की कोशिश कर रही थी कि ऐसा क्या हुआ था? क्यों वह डर गई थी? खिड़की भला अंदर से कैसे बंद हो गई थी?
शाम गहरा गई। अँधेरा हो आया। पूरी शाम इसी उधेड़बुन में कटी थी। बरामदे के कोने में छोर पर छत की सीढ़ियाँ थी ऊपर जाने की। अब तो उधर देखने में भी डर लग रहा था। दरअसल यहाँ सामने की सड़क भी काफ़ी वीरान थी। कोठी छोर पर थी। सड़क पार करते ही गहरी घाटी और फिर घना जंगल। वाहनों का शोर न के बराबर। काफ़ी सन्नाटा रहता था।
नीचे बरामदे में श्याम सुंदर जी बैठे हुए थे। उन्हें देखकर थोड़ी तसल्ली हुई।
मुन्ना दूध पीकर सो गया था। वह बरामदे में ही बैठी रह गई राजेश की प्रतीक्षा में। सोचा, राजेश को फोन करे। पर पता था कि वे इस बात हो हल्के में लेंगे और हवा कर देंगे। बल्कि दोष उसे और उसके टीवी सीरीयल को ही मिलेगा। और वही हुआ जिसकी आशा थी।
रात को भोजन के बाद उसने डरते-डरते राजेश को पूरी कहानी कह सुनाई। वह सकते में आ गया।
“क्या हो गया है मीरा तुमको? तुम मुन्ने को लेकर हड़बड़ी में सीढ़ियाँ उतरी थी? इतनी पढ़ी-लिखी होकर ऐसी मूर्खता की बात तुम कैसे कर सकती हो?” राजेश डर गया था, उसकी कहानी से नहीं बल्कि संभावित दुर्घटना से। “अगर पाँव फिसल जाता तो पता है मीरा कितनी आफ़त आ जाती थी? यह तो भगवान की कृपा है कि तुम दोनों सही सलामत हो। मैं कहे दे रहा हूँ, आज से ऊपर जाना बंद। सूखना-सुखाना सब पीछे के बरामदे ही होना चाहिए। समझी तुम?” उसने कठोर स्वर में आदेश दे दिया।
“पर राजेश वहाँ पीछे आम के पेड़ की छाया से धूप नहीं आती और मुन्ने के कपड़े . . .”
वह कह भी न पाई कि राजेश ने चिल्ला कर कहा, ”मीरा प्लीज़ अनजाने शहर में मेरे लिए नई आफ़त मत लाओ। समझो मीरा। अगर आज गिर जाती मुन्ने के साथ तो क्या होता? देखो हमारा क्वार्टर जल्दी ही मिल जाएगा। ऑफ़िसर्स कॉलोनी है, वहाँ चहल-पहल भी रहती है तुम्हारा मन भी लगा रहेगा और ऐसे वाहियात डर भी न लगेंगे। प्लीज़ थोड़ा सा सब्र करो। प्लीज़। और हाँ, तुम्हारी हॉरर स्टोरी फिर कभी, आज नींद आ रही है और कल जल्दी उठना है। चलो अन्दर।” वह उसे खींचता अंदर ले गया। उसको विश्वास था वही होगा, और वही हुआ भी।
अगले कुछ दिन यूँ ही मन को समझाने में बीते। वह भूलना चाह कर भी न भूल पा रही थी। पर वह फिर कभी छत पर नहीं गई थी। राजेश के आदेश का मान रख कर नहीं, अनसुलझे सवालों के कारण।
आज दोपहर को भोजन के बाद वह बैठक में सोफ़े पर पसर गई थी। मुन्ना नीचे बैठ खेल रहा था। टीवी चल रहा था। हल्की सी झपकी भी आ रही थी कि अचानक सुषमा जी बिना पूछे सीधा कमरे में भीतर घुस आईं और सोफ़े पर धम्म से बैठ गई। वह भौचक्की-सी रह गई। उनके चेहरे का भाव उसे अजीब सा लगा। न हाय, न हैलो . . . आकर चुपचाप चारों ओर ऐसे देखने लगी जैसे पहली बार इस घर को देख रही हो। उस ने औपचारिकता वश अभिवादन किया और उठकर सीधी बैठ गई। कुछ देर चुप्पी छाई रही। मीरा भी सोच में डूबी थी कि क्या कहे, कैसे बात शुरू की जाए?
“आपके पति बता रहे थे आप साहित्य पढ़ाती थीं?” उन्होंने ही उलझन दूर की और बात शुरू कर दी। नज़रें कमरे में कुछ खोज रहीं थीं।
“हाँ मैं शादी से पहले अंग्रेज़ी लिटरेचर पढ़ाती थी कॉलेज में पर बाद में तो नौकरी छूट गई और फिर मुन्ना . . .”
अभी उस ने बोलना शुरू किया ही था कि बीच में ही उन्होंने बात काट दी, “अभिषेक को भी अंग्रेज़ी साहित्य से बड़ा लगाव था।”
“अभिषेक . . . कौन अभिषेक?” वह उनकी आँखों को पढ़ने की कोशिश करने लगी जो कुछ तलाश रहीं थीं।
“जेन ऑस्टन और वर्जीनिया वुल्फ़ तो उसके प्रिय थे लेकिन . . .”
उन्होंने उसके प्रश्न का न उत्तर दिया न उसकी ओर देखा। मीरा सकपका गई। लगा अनावश्यक ही पूछा। वे तो अपनी ही धुन में बोले जा रहीं थीं। बोलते-बोलते वे रुकीं और सामने वाली दीवार को घूरने लगीं। अब उनकी दृष्टि स्थिर हो गई थी।
मीरा ने मुड़कर दीवार को देखा तो याद आया, कल ही राजेश ने क्रिकेट के खिलाड़ी का पोस्टर दीवार पर चिपकाया था। शायद उन्हें बुरा लगा था दिवाल पर रंग उखड़ने की सम्भावना से। वह डर गई। उसने बात सँभालते कहा, “मैं ने मना किया था पर वे नहीं माने। अगर आपको बुरा लगा तो मैं निकलवा दूँगी। आप चिंता न करें वो तो . . .”
“उसने उनकी सब किताबें पढ़ीं थी,” उन्होंने उस की बात पर तवज्जोह नहीं दी।
“वह साहित्य का प्रेमी था पर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा . . . था। तीसरे साल में था . . .। मुम्बई के बड़ा बाज़ार जाकर वह किताबें ख़रीदता था और पूरी रात पढ़ता था। साहित्य की किताबें। अनिल ने बताया था।”
वे कुछ क्षण के लिए रुकीं। मीरा का शक विश्वास में बदल गया कि बात दीवार और रंग की न थी। उसकी ओर तो उनका ध्यान बिल्कुल न था। बहुत जल्दी ही उसे समझ में भी आ गया कि वे अपने आप से बातें कर रहीं थी। आगे जो हुआ वह तो दीवार को घूरते उनका एकालाप था।
“उसने मुझे पूरी कहानी सुनाई थी ‘टू द लाइट हाउस’ की। किस तरह जेम्स को उसके पापा लाइट हाउस नहीं जाने देते न . . . वो सब। हमने भी तो उसे साहित्य नहीं पढ़ने दिया था। ज़बरदस्ती इंजीनियरिंग में दाख़िला दिलवाया था। क्या करें . . . इनके परिवार में सभी इंजीनियर ही हैं। इनके भाई के बेटे और मेरी भी बहनों की संतानें . . . लड़कियाँ भी . . .। तो हम कैसे अपने इकलौते बच्चे को इंजीनियरिंग न पढ़ाते? हमारी इज़्ज़त का क्या होता? पर वह . . . न पढ़ सका इंजीनियरिंग। लगातार फ़ेल होता रहा। उसे फूलों से बहुत प्यार था। अपने कमरे के आगे . . . वही छत पर कोने का कमरा . . . उसी का तो था . . . हमने उसके लिए ही बनवाया था . . . पता नहीं कहाँ से रंग-बिरंगे फूलों के पौधे ले आता और आँगन भर देता था . . . जब नीचे पूरा भर गया तब ऊपर कमरे के आगे रखवा लेता। हाँ और वो हरसिंगार है न उसका प्रिय फूल . . . बहुत दूर से ख़रीद कर लाया था। उसकी ख़ुश्बू उसे बहुत भाती थी।”
वे कुछ क्षण के लिए फिर चुप हो गई।
उस का दिल बैठा जा रहा था। हाथ-पाँव सुन्न हो रहे थे। वह सोफ़े पर जकड़ सी गई थी। उसे समझ आ रहा था कि उनकी बातों में कोई तारतम्य नहीं है। और तो और मीरा सुन रही है या नहीं इससे भी उनका कोई लेना-देना नहीं लग रहा था।
अचानक मुन्ना रोने लगा। पर न वह उठ सकी न उनकी कहानी में मुन्ने के रोने से कोई व्यवधान ही पड़ा।
वे फिर बोलने लगीं, “याद है मुझे . . . इसी साल . . . मई की छब्बीस को वह आया था अनिल के साथ। अनिल . . . वही तो उसका दोस्त था . . . बचपन से दोनों साथ पढ़े थे . . . साथ ही मुम्बई में इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे। दोनों रूममेट थे। पता है उस दिन क्या हुआ था? वह तो आते ही बात किए बिना अपने कमरे में चला गया था।
“अनिल ने ही आकर बताया था, ‘अभिषेक बहुत अप्सेट है आंटी। उसके सारे पर्चे रह गए हैं। आज आप कुछ न कहिएगा उसे। बहुत ही डिप्रेस्ड है। वो तो आना नहीं चाहता था। मैं ही मना कर लाया हूँ। समय दीजिए उसे कुछ।’
“‘पर कब तक अनिल? ऐसा कब तक चलेगा?’ मैं भी अड़ गई थी। उस दिन मुझे भी ग़ुस्सा आ गया था। वह हर किसी का ग़ुस्सा सह सकता था पर मेरा नहीं। बचपन में भी कभी पापा डाँटते तो मेरी गोदी में छिप जाता। बहुत नाज़ुक स्वभाव का था। बहुत नाज़ुक।
‘नहीं आंटी, उसे थोड़ा वक़्त दीजिए . . .’ उस दिन अनिल ने हमें बहुत समझाया था।
“‘और कितना भई, तीन साल कम हैं क्या? हम अपने रिश्तेदारों में मुँह दिखाने के लायक़ नहीं रह गए हैं। और क्या होना है?’ पर उसके पापा भड़क गए थे . . . ग़ुस्से में।
“‘अंकल इंजीनियरिंग उसके बस का रोग नहीं। न रुचि है न इच्छा। वह तो दिन-रात साहित्य . . .’
“‘बस करो अनिल बस। क्या ख़ाक कमा लेगा यह सब पढ़ के? सभी को सरकारी नौकरी मिल जाती है क्या? और क्या सोचते हैं महाशय? बाप-दादाओं की जागीरें भी बैठ कर खाने से पिघल जाती है। देर नहीं लगती। और हमारी इज़्ज़त . . . उसका क्या? क्या समझते हो . . . प्रो. मेहरा ने मुझे नहीं बताया? आजकल रमा के घर में तुम्हारी शामें बीतती हैं। क्यों? फिर कैसे मन लगे पढ़ाई में?’
“‘नहीं अंकल आप ग़लत समझ रहे हैं। हम तीनों ज्योयंट स्टडी करते हैं उनके घर में। उनके माँ-पिताजी के सामने। वो हमारी अच्छी दोस्त है बस।’
“‘सब पता है। क्या दूसरों को मुश्किल नहीं लगती पढ़ाई? इसे ही लगती है? फिर तुम कैसे पास हो गए? नाटक है सब। तुम सब उसकी तरफ़दारी कर रहे हो। बस। अब जाओ अपने घर। तुम्हारे माता-पिता राह देख रहे होंगे।’ वे बहुत ग़ुस्से में थे।”
“उस शाम उन्होंने अभिषेक को ख़ूब डाँटा था। हाँ ख़ूब डाँटा था।”
वे कुछ पल के लिए चुप हो गईं। मीरा का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा। साँस की गति लगातार तेज़ हो रही थी। मुन्ने को भूख लगी थी। वह हाथ-पाँव धरती पर पटक कर रो रहा था। उसे चुप कराना था। वह बड़ी मुश्किल से उठी और अंदर जाकर जल्दी से एक कटोरी में बताशे डाल कर ले लाई। मुन्ना बताशे देखकर चुप हो गया।
उनका बोलना जारी था, “देर हो गई . . . वह खाना खाने नहीं आया। मैंने सब उसकी पसंद के व्यंजन बनाए थे। आठ बज गए। न ये गए उसे मनाने, न मुझे जाने दिया। आख़िर मैं ही गई . . . इनसे लड़कर। ऊपर गई तो देखा . . . ”
वे फिर कुछ क्षणों के लिए रुकीं, मीरा को पसीने आने लगे। वह बहुत डर गई थी। आस-पास कोई न था जिसे आवाज़ देकर बुला पाती। हिम्मत करके सुनने लगी।
उनकी पुतलियाँ स्थिर थीं . . . शून्य में घूरतीं हुईं और आवाज़ मद्धम।
“उसके कमरे का दरवाज़ा खुला हुआ था और वो पंखे से झूल गया था। वैसे वह जिम जाता था . . . रोज़ . . . उसे झूलना अच्छा भी लगता था। पर क्या कोई पंखे से झूलता है? नहीं न? वह बहुत नाज़ुक स्वभाव का था। कहता था वर्जीनिया वुल्फ़ ने भी नदी में कूद कर आत्महत्या की थी। सच्चे अर्थों में चेला था उसका। हमेशा चुप रहता था। कभी अपना दुख किसी से न कहता। बचपन में भी जब खेलने जाता तो रोज़ किसी न किसी से पिट कर रोता हुआ आता था।”
यकायक वे हँसने लगीं। झूलती हुई, अबोध बच्चे की तरह . . .
मीरा का सर चकराने लगा। लगा जैसे कमरा दीवार छत सब गोल-गोल घूम रहे हैं और उस पर अभी गिर जाएँगे। उसने चीखने की कोशिश की पर . . . आवाज़ बाहर ही न निकली।
अगले ही पल वे हँसते-हँसते गंभीर हो गईं।
“उसे अपना बचाव करना भी न आता था इतना नाज़ुक था उसका स्वभाव। पर देखो क्या ऐसे भी करते हैं? नहीं न? झूलना हो तो जिम जाना चाहिए . . . है न? पगला कहीं का?” वे चुप हो गईं थीं।
नज़रें दीवार को ही घूर रहीं थीं। ख़ाली, निस्पृह . . . विक्षिप्त सी . . .
मीरा के तो होश उड़ गए थे। समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या सुन रही है। दिमाग़ अपनी शक्ति खो चुका था। रुलाई कंठ तक आकर रुक गई थी। भयानक दर्द हो रहा था उसे गले में।
मुन्ना फ़र्श पर ख़ाली कटोरी पीटता शोर कर रहा था। उसने पूरा फ़र्श गीला कर दिया था। दरअसल बहुत देर तक उसका डाइपर न बदलने की वजह से वह रूई का गोला बन चुका था और पूरा फ़र्श भीग गया था। और वह . . . वह तो गीले में मज़े से बैठा कटोरी बजाते खेल रहा था। मीरा पहले ही डरी हुई थी। फ़र्श की हालत देखकर वह और डर गई पर . . . पर उठ भी न पाई।
कुछ क्षण यूँ ही बीते।
इस बीच सुषमा जी कुछ सामान्य हुईं। चारों ओर नज़रें घुमाईं। मीरा की घबराहट देख उठकर खड़ी हो गईं।
“आपका मुन्ना बड़ा प्यारा है . . . देखिए मुन्ने को कुछ मत कहना,” वे सधे क़दमों से चलकर मुन्ने के पास पहुँचीं और झुक कर प्यार से उसके बालों पर हाथ फेरती बोलीं, “बच्चों को करने देना चाहिए जो वो करना चाहते हैं। फ़र्श ही तो है . . . साफ़ हो जाएगा . . . पुष्पा कर देगी।”
मीरा पागलों सी उनकी ओर देखे जा रही थी। उसने चाहा कि दौड़ कर जाए और मुन्ने को गोदी में छिपा ले पर उसके पाँव हिल भी न पाए।
कुछ पल चुप्पी रही।
अचानक उनकी पुतलियाँ फिर से स्थिर होने लगीं थीं। चेहरा सर्द हो गया। आँखें फैल गई। बड़ी-बड़ी लाल-लाल आँखें। शून्य में घूरती वे बोलने लगीं, “मुन्ने को कुछ मत कहना . . . कुछ नहीं . . . डाँटोगे तो वह झूल जाएगा। अपना मन कभी न थोपना उस पर . . . वरना तो वे गुम हो जाते हैं . . . बच्चे रूठ जाते हैं और फिर गुम हो जाते हैं।”
“नहीं . . . नहीं . . . नहीं . . .” अंततोगत्वा मीरा की चीख निकल गई . . . एकाएक अपनी पूरी शक्ति समेट कर वह उठी . . . धकेल कर उसने उन्हें मुन्ने से दूर कर दिया और उसे उठाकर कसकर सीने से चिपटा लिया।
“नहीं सुनना मुझे कुछ . . . नहीं सुनना . . . कुछ नहीं सुनना . . . आप चली जाइए . . . प्लीज़ आप चली जाइए यहाँ से . . . हे भगवान . . . यह क्या हो रहा है . . . चली जाओ . . . चली जाओ . . . मेरे मुन्ने से दूर।”
वह तेज़-तेज़ चिल्लाती मुन्ने को चूमे जा रही थी और रोए जा रही थी। उसका पूरा शरीर काँप रहा था।
पर इसका सुषमा जी पर कोई प्रभाव न पड़ा। वे न हिलीं न डुलीं, न ही विचलित हुईं। शांत और स्थिर खड़ी रहीं . . . अनंत में घूरते हुए।
नीचे श्याम सुंदर जी और पुष्पा के कानों में मीरा के रोने-चिल्लाने की आवाज़ें पड़ीं तो वे दोनों घबरा गए। दौड़ते हुए ऊपर आए और अंदर आते ही उन्हें स्थिति समझ में आ गई। सुषमा जी शांत खड़ीं थीं और मीरा कमरे की दीवार से सटी मुन्ने को सीने से चिपकाए फूट-फूट कर रो रही थी।
पुष्पा को देखते ही वह भागी और दौड़कर उससे लिपट गई। उसने मीरा को सँभाला और उसे बैठने का इशारा किया। वह वहीं मुन्ने को लेकर फ़र्श पर गठरी हो गई। उसे छोड़ पुष्पा तेज़ी से सुषमा जी की ओर मुड़ी और बाँह पकड़ कर झंझोड़ती उन्हें होश में लाने लगी, “क्या माँजी आप यहाँ हो? मैं कित्ति देर से आपको कहाँ कहाँ ढूँढ़ रही हूँ। चलो . . . आज गोली नहीं ली दोपहर को?
“क्या दीदी आज सीढ़ी को ताला नहीं मारा? माँजी का ऊपर आना मना है,” उसने मीरा की ओर देखा। मीरा अब भी पत्ते की तरह काँप रही थी।
वे ग़ुस्से में आ गईं। तैश में अपनी बाँह छुड़ाती हुई चीखी, “क्यों ऊपर आना मना है मेरा? क्यों मैं नहीं मिल सकती अपने बेटे से? क्या मैं बीमार हूँ? नहीं लेती गोली। जा भाग। दुष्ट हो तुम सब। मिलने नहीं देते मुझे अभिषेक से। रोज़ मुझे गोली देकर सुला देते हो और अभिषेक आकर चला जाता है। देखो आज उससे कितनी देर तक मैं बात करती रही? जाओ नहीं लेती। पता नहीं फिर कब आए वो?” उनका स्वर कठोर हो गया। आँखें फिर से निस्तेज। दृष्टि स्थिर।
“माँजी चलो नीचे . . . अब बस बहुत हुआ। चलो,” पुष्पा धकेलती हुई उन्हें दरवाज़े की ओर ले जाने लगी और वे अर्धचेतन सी लड़खड़ाती हुई जा रहीं थी . . . पर . . . होंठों पर अब भी वही शब्द थे, “बच्चे रूठ जाते हैं . . . गुम हो जाते हैं।”
वे दोनों चले गए। मीरा कुछ शांत हुई। उसने मुन्ने को धीरे-से अलग किया और सर उठाकर देखा। सामने श्याम सुंदर जी हाथ जोड़कर खड़े थे। उनके होंठ काँप रहे थे। वे कुछ बोलना चाह रहे थे, लेकिन आवाज़ न निकली। आँख से आँसू टपक रहे थे . . . टप . . . टप . . . वे कुछ पल वहीं खड़े रहे . . . चुप्प . . . फिर धीरे से दरवाज़ा बंद कर कमरे से बाहर निकल गए।
तूफ़ान आया और थम गया था। अब शान्ति थी। सन्नाटा। भयंकर सन्नाटा। आवाज़ थी तो बाहर नीम के सूखे पत्तों के हिलने की . . . सुर्र . . . सुर्र और उसमें लय मिलाती मीरा की सिसकियों की आवाज़।
कमरा महक रहा था . . . हरसिंगार की ख़ुश्बू से।
वह अब भी घुटनों में सर छिपाए सिसक रही थी। अचानक कानों में आवाज़ आई, “छ्पाक।”
उस ने डरते-डरते देखा। मुन्ना फ़र्श पर बहते गीले में अपनी नन्ही हथेली मार रहा था। हथेली गीली हो गई थी और वह चकित-सा अपनी हथेली को देख रहा था। एक बार फिर उसने हथेली पटकी। “छ्पाक”। बूँदें उछली और मीरा के मुँह पर पड़ी। आँसुओं के खारे पानी में यह खारा पानी मिलकर एक हो गया। वह नादान गीली हथेली देख खिलखिलाया। अपने किए पर ख़ुशी से फूलता हुआ एक और हाथ मारा . . . छ्पाक . . .
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