अपात्र दान 

01-02-2024

अपात्र दान 

डॉ. पद्मावती (अंक: 246, फरवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

“मैंने कितनी बार मना किया है कि पिज़्ज़ा नहीं आएगा, नहीं आएगा, लेकिन कोई सुनता है मेरी? किसी ने आज खाने को हाथ नहीं लगाया,” मीरा का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। 

झल्लाहट तो आज सुबह से ही हो रही थी क्योंकि आज मंगलवार था और ‘किसी भिखारी’ को रोटियाँ और चने दान देने की कल फोन पर उसकी सास ने उसे कड़ी हिदायत दी थी। 

उसे इन बातों में कोई विश्वास न था पर सास का आदेश पत्थर की लकीर, टालने का सवाल ही न था। 

उसने बरामदे से झाँककर देखा तो वह भिखारिन वहीं बैठी थी जो अभी-अभी आवाज़ देकर गई थी जब वह काम में व्यस्त थी। दान की रोटियाँ और चने को पैकेट में रख मीरा निकल गई, उसी ओर। 

मैले-कुचैले कपड़ों में बच्चे को स्तन से चिपटाए फ़ुरसत से बैठी वह पान चबा रही थी। पास ही चार-पाँच साल का उसका बच्चा मिट्टी में खेल रहा था। पारदी थी शायद, मोतियों की लड़ियाँ हाथों गले में लटकाए। 

कई बार शाम की धुँधली रोशनी में इनको मीरा ने रंगीन मोतियों की मालाएँ या ऐसी ही चीज़ें बेचते देखा था बड़े बाज़ार में। 

दिन में ये लोग सिगनल पर भीख माँगते या पेड़ों पर परिंदों को मार गिरा कर बेचते थे। 

उसे देख मीरा सकपका गई। अब आ ही गई थी तो देना ही था। उसने सरसरी नज़र से उसे देखा और अनमने भाव से रोटियाँ उसकी ओर बढ़ा दीं। 

“ना . . . खाना नहीं चाहिए।” आँखें ततेरती निर्लिप्त भाव से वह बोली। 

न हाथ आगे बढ़ाया न कोई उत्सुकता दिखाई, फट से गरदन टेढ़ी की, होंठ सिकोड़ फुरर से पीक की पिचकारी सड़क पर दे मारी। रंग गई सड़क। बदबू फैल गई। मीरा का जी मिचला गया। ग़ुस्सा ही नहीं बेहद शर्मिंदगी महसूस हुई उसे। 

पर वह . . . वह तो ठुड्डी पर फिसलती लार पोंछ हाथ हिलाती बेशर्मी से बोली, “पैसा है तो दे . . . पैसा . . . पैसा।” 

मीरा पहले ही भरी थी अब तो ग़ुस्सा सर के पार हो गया। दाँत भींच कर उसने हाथ तुरंत पीछे यूँ खींच लिया जैसे हथेली पर किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो। तीर की तेज़ी से वह मुड़ी और वापस घर लौटने लगी। 

चार क़दम चलते ही सड़क के किनारे गली की कुतिया और उसके चार पिल्ले बेपरवाह लेटे थे जिनसे मीरा का आजकल छत्तीस का आँकड़ा चल रहा था क्योंकि बच्चे गुड्डी और चुन्नू आए दिन उसकी नज़र बचा पिता की शह पर दूध के कटोरे उस तक पहुँचा आते थे। 

मीरा क्षण भर को ठिठक गई। मुड़कर एक बार पीछे देखा। वह अब भी उसे ही घूर रही थी। उसका बच्चा रो रहा था और वह उसे चिकोटी काट रही थी। मीरा के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर आई। वह झुकी और धीरे से रोटियाँ उस कुतिया के सिरहाने रख दीं। खाने की महक आते ही झट से वह उठी और अचानक मीरा को पास देख हड़बड़ा कर पीछे हट गई लेकिन अगले ही क्षण दुम हिलाती उसने रोटी मुँह में ले ली और उसे खाता देख चारों पिल्ले रोटियों पर टूट पड़े। कुछ पलों की खींचातानी, और फिर मिनटों में सारी की सारी रोटियाँ चने नदारद। 

मीरा शान्त खड़ी तमाशा देखती रही और देखती रही उन पिल्लों को जो अब, चारों के चारों, उसके इर्द-गिर्द घूमते हुए उसके पाँव चाट रहे थे। 

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