अब उसे रहने दीजिए
डॉ. पद्मावती
“आइए शर्मा जी, बैठिए। भई आज तो सुबह से लू चल रही है। बेंच देखिए अभी तक गर्म है।” मेहरा जी काफ़ी समय से अकेले बैठे हुए थे। इसीलिए शर्मा जी को देखते ही चमक उठे। “मैं तो आज घूमा ही नहीं। बदन में कमज़ोरी लग रही है गर्मी के कारण।”
विष्णुशर्मा ने मुस्कुराते सर हिलाकर अभिवादन किया और अपनी नियत जगह पर बैठ गए। हमेशा वहीं बैठना उन्हें अच्छा लगता था। कलफ़ लगा सफ़ेद कुर्ता पाजामा तन ही नहीं मन को भी ठंडक दे रहा था। अभी एक-एक कर मित्र पार्क में आ रहे थे। टाउन पार्क का क्षेत्रफल काफ़ी विशाल था। वैसे उनकी कम्युनिटि में भी पार्क था पर वह इतना बड़ा न था। शर्मा जी की बिल्डिंग से आगे चार गलियों के बाद मुख्य सड़क पर एक घुमाव लेते ही ये वाला बड़ा पार्क आ जाता जिसके तीन प्रवेश द्वार तीन दिशाओं की सड़कों पर खुलते थे। यानी काफ़ी बड़ा चक्कर होता था। घने पेड़ों से आवर्त। चलते वक़्त गर्मी तो बिल्कुल न लगती थी। इसीलिए विष्णुशर्मा इसी पार्क में आते थे पार्क के बीच में तीन-चार मैदान भी थे। जालीदार क्रिकेट का मैदान, कसरत का मैदान, और टेनिस वग़ैरह खेलने वालों के लिए भी अलग जगह। सभी आयु के लोग अपने-अपने झुंडों में घूमते रहते। बच्चों के लिए खेल-कूद की अलग जगह थी। बुज़ुर्गों की अलग बैठकें, और महिलाओं की कोई अलग जगह नहीं थी। वे तो पूरे पार्क में अड्डा जमाए रहतीं। काफ़ी चहल पहल की जगह। हर बेंच पर भरे हुए लोग। अपनी ही दुनिया में मस्त। बुज़ुर्गों की कई मंडलियाँ अलग-अलग बेंचों पर। कहीं गंभीर राजनैतिक मसलों पर चर्चा, कहीं आज की युवा पीढ़ी में जर्जर होते मूल्यों के प्रति गहरी चिंता जताई जा रही होती। कहीं प्रवासी संततियों की उपलब्धियों का बढ़-चढ़ कर बखान होता रहता और कहीं हाल ही में गए किसी देश की गली सड़कों में दिखाई देने वाली स्वच्छता के गीत गाए जाते। ख़ाली समय बिताना हो या लोगों को पढ़ना हो तो पार्क से बढ़िया जगह और कोई हो ही नहीं सकती।
उन्होंने बेंच पर सर टिका लिया और पैर फैला लिए। नज़र आसमान पर गई। छह बज चुके थे। अप्रैल का अंतिम सप्ताह। घने पेड़ों का झुरमुट। पलाश की लाल और पीली चादर फैली हुई थी एक छोर से दूसरे छोर तक। सोचा—ये पेड़ हमेशा क़तार में ही क्यों होते है? शायद इसका कारण गिलहरियाँ ही होती होगी। और इन पेड़ों पर तो इस समय इतना शोरगुल? . . . होता तो रोज़ ही है। पंछी एक डाली से दूसरी डाली उड़ कर क्या खोज रहे हैं? अपनी जगह? . . . शायद इसी पर कुछ भारी विवाद भी हो रहा होगा। कुछ आध घंटे में सब शांत हो जाएँगे। उनके भी अपने नियम होते हैं। अपनी सीमाएँ होती होगी शायद। सब अपनी-अपनी जगह पर आँख मूँद पड़े रहेंगे सुबह की प्रतीक्षा में। उन्हें पंछियों का कोलाहल बहुत अच्छा लगता है। पेड़ों को चीरती हुई नज़र फिर आसमान की ओर चली। दूर सूरज छिपता हुआ हल्का गुलाबी गोला बन गया था। रूई के गुच्छों की तरह लटकते बादलों की सफ़ेदी स्लेटी रंग में तबदील हो रही थी। कुछ ही पल लगे और आसमान का गुलाबी गोला भी लुप्त हो गया। सुबह से आग उगलते सूर्य को कुछ देर आराम मिला। हल्की कालिमा आने लगी। पर अब तक भी हवा में ठंडाई न आ पाई थी। वही उमस, वही गर्मी। हल्की-हल्की हवा तो चलने लगी थी पर सुकून न दे पा रही थी। भीषण गर्मियों में कभी-कभी प्रकृति को भी मानव पर शायद दया आ जाती होगी। इसीलिए बीच-बीच में बादल घुमड़ जाते हैं और बरसात भी हो जाती है। पर आज उसकी कोई आशंका नहीं थी।
“आसमान में क्या ढूँढ़ रहे है शर्मा जी? आज जल्दी कैसे? नमस्कार मेहरा जी,” श्रीधर जोशी पधारे और आते ही गर्मजोशी से सबका अभिवादन किया।
इससे पहले विष्णु शर्मा उनके अभिवादन का उत्तर देते, मेहरा बोल उठे, “क्या है यहाँ ढूँढ़ने को जोशी जी? गर्मी के सिवा और कुछ न मिलेगा। बुरा हाल है। एक पल चैन नहीं। न दिन को न रात को। और शाम भी देखो कैसी उमस भरी।” मेहरा जी प्रवासी पुत्रों के पिता थे। हाल ही में छह महीने विदेश में ड्यूटी बजा कर आए थे। उस हवा से काफ़ी अभिभूत। और आजकल न जाने क्यों उनकी अनुवीक्षित नज़रें यहाँ की हर बात में नुक़्स देखने लगीं थी। प्रवास भोग के उन्माद से अभी भी उभरे न थे।
“हाँ भई आज जल्दी आ गया। श्रीमती जी भी घर पर न थी। उनका तो रोज़ ही शाम को मंदिर जाकर दिया जलाने का कार्यक्रम होता है पर आज कुछ जल्दी ही निकल पड़ीं। मैं भी चल पड़ा। बस और कुछ नहीं।”
विष्णु शर्मा ने ऊँचे स्वर में कहा ताकि फिर और कोई वही सवाल न करे। वह न बता पाए कि आज मन कुछ परेशान था। वैसे उसकी पत्नी मनोहरा देवी भी रोज़ शाम को मंदिर चली जाती थी क्योंकि इसी बहाने कुछ चलना भी हो जाता था और शाम की अपनी सहेलियों के साथ गोष्ठी भी हो जाती थी। कभी-कभी भजन और प्रवचन भी हुआ करते थे वहाँ। पर विष्णुशर्मा को पता नहीं इन बातों से रस न आता था। अधार्मिक वे नहीं थे, पर इन प्रवचनों से हमेशा कन्नी काटते थे। शाम से रात तक का समय तो उनका अपना व्यक्तिगत समय होता था। पार्क में मित्र मंडलियों के साथ। हर चिंता और दुनियादारी से दूर।
रिटायर्ड बुज़ुर्गों की मंडली। सैर तो सुबह ही हो जाया करती थी। दो हज़ार क़दमों की। बँधा बँधाया नियम था उन सब का। शाम की सैर का तो बहाना होता था। एक-आध चक्कर पार्क का लगता और फिर पसीना सुखाने ठंडी हवा में पेड़ों के नीचे घंटों समय गुज़ारना। यही नियत दिनचर्या बन गई थी।
मित्र मंडली लगभग जम चुकी . . . सब अपनी-अपनी जगह विराजमान हो चुके थे। मेहरा, सदानंद जोशी और मिश्रा आ गए थे। अभी कुछ आने वाले थे।
“आइए . . . आइए पंडित जी। आज देर कर दी? आपका घर तो सामने ही है पर फिर भी?” मेहरा की तो आदत थी हर एक सदस्य का यूँ ही शिकायत से अभिवादन करना। बड़ा मज़ा आता था उन्हें अपने इस व्यवहार से। सो पंडित जी पर भी आते ही सवाल उछाल दिया।
पंडित लीलाधर व्यास ने अपनी सीट सँभाली और रुमाल निकाल पसीना पोंछने लगे।
“क्यों देर जी? चार चक्कर पूरे हुए। हम तो सबसे पहले आए है। तब तक आप कोई भी न थे इधर। यहाँ देखा, कोई न मिला तो हम निकल गए। हम ही सबसे पहले आए। आज गर्मी तो बहुत है जी। देर से तो आज आप लोग आए। और इस लिए इस गड़बड़ में आज एक चक्कर हमारा अधिक भी हो गया,” व्यास जी अपनी सफ़ाई में कभी पीछे नहीं रहते थे। तो आज यह अभियोग कैसे सहते? . . . बस धावा बोल दिया।
“ओह तो ये बात है। वैसे पंडित जी आप तो मंदिर में ही परिक्रमा कर लें तो आपका दिन का टार्गेट पूरा हो जाए। फिर यहाँ क्यों जी?”
“आजकल कहाँ मंदिर जा रहे हैं भई? निर्माणाधीन स्थल जो रोज़ जाना पड़ रहा है। इसलिए यहाँ शाम को आ जाते है। आज तो वहाँ बिल्कुल न गए। तबीयत भी साथ न दे रही है। क्या करें? काम और तनाव। अब शरीर इस उम्र में अधिक काम न ले पा रहा है। अनिवार्यता है तो कर रहे हैं बस और क्या।”
व्यास जी वाक़ई में बुझे-बुझे से लग रहे थे।
“हाँ पंडितजी,” मेहरा उन्हें पंडित जी कहकर ही बुलाता था, “यह उम्र भाग-दौड़ की नहीं है . . . आराम की है।”
व्यास जी गत चार वर्षों से सदानंद स्वामी जी के शिष्य बन गए थे। बड़ा ही भद्र और सौम्य स्वभाव। बढ़ती आयु के कारण रक्तचाप का रोग था। सो पार्क आ जाते थे और इस मंडली से संयोग से जुड़ गए थे। उनके गुरुजी का शहर में बड़ा बोलबाला था। कई धर्मशालाएँ थी। कई वृद्धाश्रम थे और कई धार्मिक केंद्रों से जुड़ाव भी था। गुरुजी ने हाल ही में शहर से कुछ दूर छोटी सी पहाड़ी पर मंदिर बनाने का काम शुरू किया था। ज़मीन दान में आई थी और भवन निर्माण के लिए भी गुरुजी को दक्षिणा की कोई कमी न थी। सो काम ज़ोर शोर से चल रहा था। पूरी ज़िम्मेदारी पंडित लीला धर व्यास ही सँभाल रहे थे।
“क्या करें? जब गुरुजी का आदेश है तो मानना भी पड़ेगा। अब शक्ति भी तो वही देते हैं।
“तो विग्रह प्रतिष्ठापन के लिए क्या निर्णय लिया शर्मा जी?” वे विष्णुशर्मा की ओर मुड़े। “देखिए ग़लत मत मानिएगा। ज़बरदस्ती नहीं है, स्वैच्छिक देना चाहे, तो ही दीजिए। वैसे ईश्वर विग्रह को मंदिर में प्रतिष्ठित करवाना महापुण्य का कार्य होता है। ऐसा भाग्य हर किसी के नसीब में नहीं होता। धन सबके पास हो सकता है। और होता भी है। पर इस पुण्य कार्य की सदिच्छा सबके पास नहीं होती। इसी लिए मैं प्रसंगवश आप सब से कह रहा हूँ। आप इसे ज़बरदस्ती न समझें। वैसे स्वामीजी को देने वाले तो बहुत है। बस यही उद्देश्य है और कुछ नहीं।”
“बुरा न माने पंडितजी . . . कल अख़बार में कुछ संदेहात्मक ख़बर आई थी,” इससे पहले विष्णुशर्मा उनके प्रश्न का उत्तर देते मेहरा शुरू हो गए। “मैं तो नहीं कहता पर उड़ती ख़बर का क्या कहिए? यही कि उस पहाड़ी की भूमि का अनधिकार अधिग्रहण हुआ है? अब क्या पता कितनी सच्चाई है? ग़लत न समझें। हमें किसी पर शक तो नहीं है पर फिर भी . . .” मेहरा अपने आप को रोक न सके थे। घुमा-फिरा कर बात करना उनकी आदत नहीं थी। सो सीधे पूछ बैठे। वैसे सभी के चेहरों पर भी यही प्रश्न टँगा हुआ था।
कुछ ही दिन पहले विष्णुशर्मा ने निर्माणाधीन मंदिर में मूल विग्रह देने का निर्णय ले लिया था। लेकिन आज सुबह जब यह ख़बर अख़बार में पड़ी तो उन्हें अचंभा लगा। बड़ा समय लगा था उन्हें मन को मनाने में। और अचानक इस प्रकरण को पढ़कर उनकी श्रद्धा थोड़ी बहुत हिल गई थी।
“भई अब ये सब तो होता रहता है। पेपर वाले क्या न लिखें? क्या सच, क्या झूठ, कैसे पता चले?” मिश्रा ने हाँ में हाँ मिलाई।
“अब व्यास जी ही बता सकते हैं। वे बहुत क़रीबी जो हैं इस कार्य के। हमारी भी श्रद्धा है। हम भी नियमित जा रहे हैं जब से व्यास जी ने हमें जोड़ा है आश्रम से। कभी कुछ ग़लत नहीं लगा वहाँ। किसी ने कभी कुछ दान-दक्षिणा नहीं माँगी। जितना दिया, ख़ुशी से स्वीकार किया उन्होंने। और तो और हर रविवार को तो भंडारा होता है। अन्न दान में भी हम भी सम्मिलित होते हैं भई। कितना अच्छा स्वादिष्ट खाना होता है। अब सोचो इतने लोगों के लिए भंडारा, कहाँ से आएँगे पैसे? हम सब अनुयायी देंगे तभी तो यह सब सम्भव है न। बूँद-बूँद से ही तो घड़ा भरता है। वरना गुरुजी क्या करेंगे? भई यह सब अफ़वाह है, अफ़वाह। हम भी बहुत मानते हैं उन्हें। उन्हें भी, और व्यास जी को भी। अब तो वे जो कहें, वह सच। हमें पूरा विश्वास है।”
मिश्रा हाल ही में गुरुजी से जुड़े थे। काफ़ी अभिभूत थे उनकी और आश्रम की गतिविधियों से।
“कैसी बात करते हैं मेहरा जी? लोगों ने श्रीराम और सीता माई को न छोड़ा तो इंसान क्या चीज़ है? ऐसे लांछन तो लगेंगे ही जब आप समाज सेवा का काम करोगे। यह सब बकवास है। क्यों व्यास जी”? जोशी जी ने मिश्रा जी का समर्थन तो किया पर संदेह की पुष्टि के लिए ही।
मेहरा का मुँह लटक गया। वे अकेले एक तरफ़ और पूरी मंडली एक तरफ़। उन्हें अपनी जल्दबाज़ी पर लज्जा आ रही थी। चुप रहना था। जब सब ही गुरुजी के शिष्य हैं, उनके मानने वाले हैं तो इस समूह में बात न उठानी थी। पर जीभ तो बोल ही गई। अनावश्यक प्रसंग छेड़ दिया था। बात सँभालनी थी। झेंप छिपाते खिसियानी सी मुस्कान के साथ बोले, “माफ कीजिए व्यास जी . . . मैं भी कहाँ पेपर की झूठी ख़बर पर बोलने लगा। हाँ, सच है। ऐसा अनाप-शनाप तो छपता ही रहता है। किसी महात्मा को बदनाम करना तो कुछ लोगों की साज़िश भी होती है। मैं ही बहकावे में आ गया। आख़िर इंसान में नीर-क्षीर विवेक भी होना चाहिए। कुछ भी नहीं मान लेना चाहिए। क्षमा करें साहब, मैं ही भटक गया था शायद,” मेहरा जी बेचारे काफ़ी लज्जित हो गए थे।
“नहीं मेहरा जी,” व्यास जी अब स्पष्टीकरण पर उतर आए। अनिवार्य लगा। सब की आँखों में संदेह के कीड़े को उन्होंने देख लिया था। सब का मन भली-भाँति जान रहे थे। तो बोले, “दरअसल सच क्या है सुनिए मैं बताता हूँ। जो ज़मीन आश्रम को दी गई थी वह विवादित थी। पिता-पुत्र में अनबन चल रही थी। पिता ने दे दी और पुत्र ने संस्था पर केस कर दिया कि पिता को बहकाकर ज़मीन ले ली गई है। मामला कोर्ट पहुँच गया। बस। आग लग गई। अब पछता रहा है पुत्र। पर ग़लतफ़हमी तो हो गई न। ख़ैर, आपने ठीक कहा, हर सेवा को पहले विरोध सहना पड़ता है। सच्चाई धीरे-धीरे सामने आ जाती है। अच्छा मैं चलूँ।”
व्यास जी जाने को खड़े हो गए। अप्रिय वार्तालाप ने उन्हें खिन्न कर दिया था। शायद कुछ नाराज़ से हो गए थे। चेहरा उतर आया। अपमानित सा अनुभूत कर रहे थे। आज तक कभी किसी ने उन की ईमानदारी पर उँगली न उठाई थी। बहुत चरित्रवान और नेक इंसान थे। सत्तर की आयु थी और अब भी लगातार सक्रिय रहते थे। गुरुजी के बहुत विश्वास पात्र। आज यह सब सुनकर, वो भी अपने ही मित्रों के मुँह से, कुछ क्षुब्ध हो गए थे।
“अरे व्यास जी बैठिए न कुछ देर . . . आप तो नाराज़ हो गए शायद।” मेहरा ने कुशल नेता की भाँति बात का मोड़ घुमाते कहा, “शर्मा जी का निर्णय अति उत्तम है। बहुत उत्कृष्ट कार्य कर रहे हैं। भाग्यवान है जो ऐसी बुद्धि मिली। योग्यता भी हो न किसी में इतना ख़र्च करने की। सच। धन्य हैं! और पंडित जी भी हैं इस पूरे मामले में तो चिंता की क्या बात। वे देख लेंगे और सँभाल लेंगे। बस अब जल्दी कर दीजिए जो भी करना है।” मेहरा ने कह तो दिया पर पंडित जी को ख़ुश न कर सके। उनका चेहरा अभी भी उतरा हुआ ही था।
“नहीं मेहरा जी, काहे की नाराज़गी। मंदिर होते जाऊँगा। उधर थोड़ी देर में आरती शुरू हो जाएगी। अच्छा राम-राम। फिर मिलते हैं।”
व्यास जी अब न रुके। विष्णुशर्मा भी झटके से उठे और मौक़ा देख सबसे विदा माँग चुपके से उनके पीछे हो लिए। एक अनजान ख़ुशी ने सब थकान भुला दी। शरीर में हल्कापन अनुभव होने लगा था।
“तो क्या सोचा है शर्मा जी”? विष्णुशर्मा को अकेले आता देख उन्होंने बात जारी तो रखी पर स्वर अत्यंत धीमा था, “शायद आपका मन बदल गया है। कोई बात नहीं। आराम से निर्णय ले पर महीने के अंत तक बता दें। अगर ना है तो भी कोई बात नहीं। फिर किसी और से संपर्क कर लिया जाएगा। मन पर न लें। जानता हूँ, हम सब रिटायर्ड हो चुके है और बस पेंशन पर जी रहे है। भविष्य निधि का पैसा भविष्य के लिए चाहिए। और फिर अपना ध्यान तो ख़ुद रखना पड़ता है न। ऐसे अवसर आते रहेंगे। कोई नहीं। मन छोटा न करें।”
व्यास जी अब कोई और आरोप सर पर न लेना चाहते थे। मन पहले ही आहत हो चुका था।
“काहे का मन बदलाव जी? अब तो मोहल्ले में भी ख़बर पहुँच चुकी है कि हम मंदिर का विग्रह दान दे रहे हैं। बंधु-बाँधवों को भी पता लग चुका है। अब मुकरने का सवाल नहीं उठता। बस शंका का कीड़ा आ गया था सो आपने निवारण कर दिया। बस आप मान कर चलिए कि विग्रह हम ही देंगे। हाँ एक बात, फिर से कह रह हैं, बुरा न मानिएगा मंदिर की मुख्य दीवार पर हमारा नाम खुदेगा न? केवल पटल पर ही नहीं। देखिए कुछ वर्षों के बाद पटल टूट सकता है, ख़राब भी हो सकता है। इतना ख़र्च कर रहे हैं तो हम चाहते हैं कि हमारा नाम दीवार पर खुदवाया जाए। बस इतना ध्यान अवश्य रखिएगा। यही प्रार्थना है और कुछ नहीं,” विष्णुशर्मा उनके कंधे पर हाथ रख अति उत्साहित स्वर में बोले।
“जैसी आपकी इच्छा। जय श्री राम!” व्यास जी ने भरी नज़रों से उन्हें देखा और एक बार फिर दिलासा दिलाकर दायीं तरफ़ के गेट की ओर बढ़ गए।
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रास्ते भर विष्णुशर्मा इसी विचार में उलझे रहे। ‘एक नहीं दो नहीं, पचास हज़ार की रक़म का सवाल है। संगमरमर की तीन फुट की प्रतिमा का भाव चालीस हज़ार बताया गया है और प्रतिष्ठापन का ख़र्चा लगभग दस मान कर चले तो भी पचास तो बनता ही है। यही बताया था व्यास जी ने। और . . . और अगर दाम बढ़ गए तो . . .? दस पाँच हाथ में रखना ही होगा। पर प्रश्न तो अब यह है कि क्या इस दान की इतनी आवश्यकता है? क्या इसके बिना पुण्य न मिलेगा? पर जीवन में कभी भी दान-दक्षिणा न दी। मंदिर न बनवाए। बावड़ियाँ न खुदवाईं। न कोई पुण्य कर्म नहीं किया। कहते हैं मंदिर बनवाने तो पूरा वंश तर जाता है। ऐसा मौक़ा फिर कब मिलेगा। और कहाँ जाएगा पैसा? मूर्ति आँखों के सामने ही तो होगी। रोज़ भक्तों की पूजा प्राप्त करेगी। व्यास जी ने स्पष्ट कहा है कि राजस्थान वे स्वयं उन्हें ले चलेंगे और मूर्ति का ऑर्डर देंगे। मोल-भाव सब सामने होगा। सब कुछ पारदर्शी तो क्या डर? नहीं . . . नहीं अब पीछे हटना नहीं है। हाँ। अब तो निर्णय बस ले लिया है और पीछे नहीं हटना है। और तो मोहल्ले में आजकल कितनी इज़्ज़त होने लगी है। वे बिल्डिंग के सेक्रेटरी . . . कृष्ण कांत अय्यर, नीचे के तल पर रहने वाले मद्रासी परिवार . . . कितने कर्मकाण्डी। मुँह पर भभूत और चंदन के टीके के बिना घर से बाहर नहीं निकलते। पानी छिड़क-छिडक कर चलते हैं। ऊपर छत पर पहले उनके कपड़े सूखेंगे फिर ही कोई अपने कपड़े सुखा सकता है। मजाल है कि कोई उनका कोरियर भी छू ले। किस तरह वे कल सपरिवार आए थे और सीधा पाँव पर लौट गए थे। कितनी श्रद्धा, कितनी आस्था। वैसे बहुत सरल और निश्चल स्वभाव के हैं। कितनी ग़लतफ़हमी में थे हम। दोष हमारा नहीं, लोगों ने हमें भड़का दिया था। कल तो बेचारे फल-फूल मिठाई कुमकुम लेकर आए थे। कितने शिष्टाचारी, कितनी विनम्रता, कितनी शालीनता। कह रहे थे, “विष्णु जी आप तो सचमुच ईश्वर का अवतार हैं। इस महीने जो भजन संध्या हमारे घर में होगी उसमें हम आपका सम्मान भी करवाएँगे। कोई इतना पैसा दान कर सकता है इस ज़माने में? वो भी रिटायर्ड पर्सन? आप धन्य है . . .।” वे ही नहीं, आजकल तो सामने पड़ते ही `सब झुक-झुककर चलते है। कितना आदर और मान का काम है विग्रह प्रतिष्ठा। यह रुकना नहीं चाहिए। भले पैसा ख़र्च हो जाए . . .।’
पता नहीं यह सब सोचते कब गली आ गई और उनका घर भी आ गया।
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मनोहरा बैठक में ही मटर की परात आगे रखे बैठी थी। काल की महिमा या रसायनिकी का जमाना। अप्रेल में भी मटर? बेमौसम की सब्ज़ी को वह बड़े चाव से छील रही थी।
घड़ी ने सात बजाए।
“आज जल्दी आ गए क्यों जी? अभी तो आपका समय नहीं हुआ। रोज़ तो नौ तक नहीं आते? तबीयत ठीक है न?” उसने दो दाने परात में और चार अपने मुँह में डालते कहा। दाँतों के नीचे रस आते ही तबीयत ख़ुश हो गई।
“तुम भी आज मंदिर नहीं गई?”
“जी नहीं, जाकर ही आई हूँ। बाज़ार गई थी। मटर दिखे तो एक किलो ले लिए। बहुत दिन के बाद देखा। मीठे हैं रस भी है। खाओगे?” उसने दो दाने आगे बढ़ाए।
“मैं सोच रहा हूँ। बहुत समय हो गया न हमें बाहर गए? मेरा मतलब है घूमने। तुम कहो तो . . . कहीं घूम आएँ? दूसरे शहर . . . ठंडी जगह या समुद्र . . . जो तुम कहो, पर पहले जाओ और ठंडा पानी पिला दो। फिर बताऊँगा,” वे मुँह में दाने चबाते बोले। ख़्याल आया . . . अच्छा है कहीं हो आएँ। फिर बाद में तो केवल भजन संध्याओं में ही समय कटेगा। आख़िर लोगों की निगाहों में वे ईश्वर के अवतार जो बन रहे है।
मनोहरा का छीलना रुक गया। आँखें आश्चर्य से फैल गई। भाग कर अंदर गई और पानी की बोतल उठा लाई। पाँव मारे ख़ुशी के डोल रहे थे।
बोतल उन्हें थमाई और बड़े प्यार से नज़दीक बैठते हुए बोली, “बिल्कुल सही कहा आपने। वो केशव जी की पत्नी आज बोल रही थी कि इन छुट्टियों में वे लोग हरिद्वार जाने का प्रोग्राम बना रहे हैं। मैं भी मन में सोच रही थी कि क्यों न हम भी कहीं घूम आएँ? आपने मेरे मन की बात कह दी। पर . . . हम कहाँ जाएँगे? क्यों जी? . . . मैं कहती हूँ काशी और बौद्ध गया चलें? माँ बाऊजी का पिण्डदान भी हो जाएगा और दर्शन भी। क्या कहते हैं?” वह उनके और नज़दीक खिसक आई। यात्रा का उन्माद आँखों में उतर आ गया।
उन्होंने एक ही साँस में बोतल गटक ली और उत्तेजित स्वर में बोले, “हाँ . . . हाँ . . . जाएँगे और अपना भी पिण्ड दान कर लेंगे। मैं घूमने की बात कर रहा हूँ। इसी लोक में . . . इसी मृत्यु लोक में। पितृ लोक में नहीं। समझीं,” मनोहरा की यही आदत उन्हें पसंद न थी। हर बात में धार्मिकता बीच में ला देती थी। जब भी देखो मंदिर . . . मंदिर और मंदिर।
“हाय . . . हाय,” मनोहरा सहम गई, “मरें आपके दुश्मन। आप जो कहें वही सही। ग़ुस्सा क्यों होते हैं इतनी जल्दी? बताइए कहाँ जाने की इच्छा है आपकी? मेरे लिए सब ठीक। बस कुछ दिन आराम हो जाए तो वही स्वर्ग। बस मूड मत बिगाड़िए।”
“तो गोवा चलें?” विष्णुशर्मा ने मौक़ा हाथ से न जाने दिया।
“क्यों? गोवा में क्या देखेंगे?” उसकी भँवें सिकुड़ गईं। कुछ जंचा नहीं। अचानक उस नाम से जैसे मुँह का स्वाद बिगड़ गया।
“अरे, तुम क्या जानो? समुद्र है, सुंदर . . . सुंदर तट है और काफ़ी ख़ूबसूरत जगह है। बस शरीर और मन को विश्राम मिल जाएगा,” विष्णुशर्मा का मन गोवा की लहरों में हिचकोले खाने लगा।
“अगर समुद्र ही देखना है तो रामेश्वरम चलते हैं न . . . गोवा क्यों? वहाँ शाकाहारियों के लिए तो कुछ मिलने से रहा। फिर काहे का विश्राम?” उसने उनकी तंद्रा में भंग डाला। उसे गोवा को लेकर मन में कुछ भ्रांतियाँ थी। सुन रखा था उसने काफ़ी उस जगह के बारे में। और सबसे बड़ी समस्या उसके लिए शाकाहारी खाना था।
“हाँ, हाँ . . . रामेश्वरम। वहाँ जाकर डूबेंगे तो लंका में तो बॉडी मिल ही जाएगी। हर बार केवल मंदिर ही जाना है क्या? थक गया हूँ तुमसे। कहीं नहीं जाना। बैठे रहो घर में। मैं कुछ कहता हूँ तो बस उसका उलटा ही कहती हो तुम। छोड़ो सब। बहुत हुआ,” तौलिया उठा वे चिल्लाते ग़ुस्लख़ाने में घुस गए।
ठंडे पानी की बौछार बदन पर पड़ी तो तन और मन दोनों शांत हो गए। पछतावा होने लगा उन्हें अपने व्यवहार पर। सोचा . . . अरे! यह क्या कर दिया? आवश्यकता से अधिक ही झल्ला गया था। बात ही बिगड़ गई। पर . . . मन ने कहा . . . चलो अच्छा ही हुआ। अब मनोहरा उसे नाराज़ मानकर और नाख़ुश न करेगी। जो भी कहेगा, झट से मान जाएगी। यह तरीक़ा भी बढ़िया निकला अपनी बात मनवाने का। पहले हेकड़ी दिखाओ, रूठ जाओ तो फिर सामने वाला घुटने टेक ही देगा . . . और क्या? आख़िर तीर निशाने पर लगा। वे मन ही मन फूल गये अपनी समझदारी पर।
कुछ ही क्षणों में तरोताज़ा होकर निकले और कमरे से झाँक कर बाहर की स्थिति का जायज़ा लेने लगे।
मनोहरा बैठक में नहीं थी। वह तो नौकरानी लछमी के साथ बाहर आँगन में कुछ खुसर-पुसर कर रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे दोनों एक दूसरे को कुछ गंभीर मसला समझा रहीं है . . . बग़ल में उसकी बेटी नीरजा खड़ी बग़लें झाँक रही थी।
अचानक कुछ साँठ-गाँठ हुई और मनोहरा उन दोनों को बाहर बैठक में ही छोड़ तेज़ क़दमों से चलती कमरे की ओर आई। वे पीछे हट गए। अंदर आते ही उसने दरवाज़ा धम्म से बंद किया और उनके सामने खड़ी आकर हो गई।
“आपसे एक ज़रूरी बात है। आप बैठिए। खड़े होकर न हो सकेगी। विस्तार से बताना है,” उसने हाथ पकड़ कर उन्हें बिस्तर पर बिठा दिया और बात की भूमिका बाँधी . . .
“लछमी की बेटी ने इंजीनियरिंग पास कर ली है ये तो आपको पता है न”?
“हाँ तो?” वे साँस रोक एकटक उसकी ओर देखने लगे।
“वैसे उसे सरकारी कॉलेज में सीट मिल गई है। पढ़ाई का ख़र्चा वह स्कॉलरशिप से कर लेगी। काफ़ी अच्छे अंक मिले हैं न!”
“ये तो बहुत अच्छा हुआ,” फेफड़ों में रुकी हवा बाहर निकली तो जान वापस आई। चेहरे पर संतोषजनक मुस्कान आ गई। विलम्ब न करते तत्क्षण कहा, “वाह! उसे आगे और पढ़ना ही चाहिए। आजकल लड़कियाँ किसी से कम हैं क्या? काफ़ी मेहनती और होनहार बच्ची है नीरजा। उसकी माँ को कहो उसे ख़ूब पढ़ाए और छात्र वृत्ति हो तो किसी से माँगने की भी ज़रूरत नहीं। फ़ीस तो मिल जाएगी। बस पुस्तकों का ही ख़र्चा आएगा और वह तो लछमी किसी न किसी तरह इंतज़ाम कर ही लेगी। काफ़ी आत्म निर्भर है लछमी। किसी से न माँगेगी,” ख़तरा टलने की ख़ुशी में वे कुछ ज़्यादा ही बोल गए।
“आपने तो मेरे मन की बात कह दी जी। पर उसका धूर्त मामा है न? पाजी कहीं का . . .”
अचानक ख़तरे की घंटी बजी। उन्हें अनकहा भी सुनाई देने लगा। लगा उपसंहार तो अभी बाक़ी है। देवी जी ज़रूर कोई न कोई तिकड़म लगाएगी। माहिर जो है। उनकी बोलती बंद थी और नज़रें उसी पर गढ़ीं। पढ़ रहे थे उसकी आँखों में छुपे रहस्य को।
“अब तक तो सब दायित्व उठा रहा था पर अब उसने हाथ खींच लिया। सुबह से चार बार हमारे घर के चक्कर काट चुकी है लछमी। एक ही बात कह रही है। कल कॉलेज का पहला दिन है न। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए एक लैपटॉप चाहिए उसे। कैसे ख़रीदे वह? इसीलिए गुहार लगा रही है कि ‘साहब तो बड़े दानी हैं। हमारे लिए भी कुछ न कुछ अवश्य करेंगे।’ मैं भी सोच रही थी हम मदद कर दें तो अच्छा हो।”
बिना किसी घुमाव-फिराव के उसने अपनी बात साफ़-साफ़ कह दी।
विष्णुशर्मा का मुँह खुला रह गया। ज़ोर का झटका ज़ोरों से लगा। कहने सुनने की शक्ति गुम। कुछ कहने की सोच ही रहे थे कि मनोहरा उनकी मुख मुद्रा देख झटपट बोली, “आप चिंता न कीजिए। दान नहीं है यह। कह रही है कि धीरे-धीरे चुका देगी अपने वेतन में से। और अभी तो आपने कहा न कि लड़कियों को भी पढ़ना चाहिए।”
“हाँ। पर इसका यह अर्थ तो नहीं। लैपटॉप? इतना पैसा? हम कहाँ से ला सकते है? कुछ जानती हो अच्छी कम्पनी का लैपटॉप कितने में आएगा? पचास-साठ हज़ार में। कुछ अंदाज़ा है तुम्हें? बस यूँ ही वादा कर दिया?” बिना सोचे समझे उनकी चीख निकल गई। अपने अति उत्साह प्रदर्शन पर झल्ला गए। क्या सोचा था और क्या हो गया। मनोहरा ने तो पूरा पासा ही पलट दिया था।
“सुनो जी मुझे नहीं जाना रामेश्वरम हरिद्वार और गोवा। मत भूलिए आप किसी बच्ची का भविष्य बना रहे हैं।”
उसने ब्रह्मास्त्र छोड़ा। उसका यह साहस देखकर विष्णुशर्मा चकित रह गए।
“पर तुम जानती हो न मैं ने भी मंदिर के लिए . . .”
इससे पहले वे अपना अधूरा वाक्य पूरा करते, मनोहरा ने निर्णयात्मक स्वर में कहा, “अब उसे रहने दीजिए . . . आपके भगवान आपके दान पर आश्रित नहीं है, पर यह बच्ची है। आपके भगवान बेघर नहीं रहेंगे, पर इस बच्ची का भविष्य आप के हाथों में है। लछमी पैसा वापस न करे तो भी मुझे चिंता नहीं है। उसे हम पर कितना विश्वास होगा कि मदद माँगने हमारे द्वार आई? अगर दहेज़ के लिए पैसे की माँग लेकर मेरे पास आती तो मैं तत्क्षण बाहर निकाल देती। एक पैसा न देती इतनी छोटी बच्ची के विवाह के लिए। पर आज वह शिक्षा के लिए माँग रही है। समय पर उसकी मदद करना आवश्यक है। आप जानते हैं कि इस कोर्स में लैपटॉप कितना आवश्यक है उसके लिए? अगर यह चीज़ उसके पास न हो तो पढ़ाई में पिछड़ जाएगी। सोच लीजिए . . . हम कुछ ग़लत नहीं कर रहें है। ग़रीब है, पर है प्रतिभावान। आगे आपकी इच्छा।”
कमरे में सन्नाटा छा गया। मनोहरा चुप हो गई थी। तरकश से तीर निकल कर निशाना भेद चुका था।
“अब आप तैयार होकर बाहर आ जाइए। हम अभी बड़ा बाज़ार जाकर ख़रीद लेंगे,” उसका स्वर काफ़ी संयत था और आवाज़ में दृढ़ता।
“क्यों कल भूकंप आ जाएगा जो इतनी रात को जाएँगे?” विष्णुशर्मा जान चुके थे कि अब तो लैपटॉप ही ख़रीदा जाएगा।
“नहीं। पर नेक काम में देरी नहीं होनी चाहिए। कल अगर मेरा ही मन बदल गया तो? बड़ा बाज़ार की दुकानें दस बजे तक खुली रहती हैं बड़ी रौनक़ होती है। चलिए,” मनोहरा देवी बाहर आँगन में निकल गई।
कुछ देर में उनकी गाड़ी बड़ा बाज़ार की ओर जा रही थी। मनोहरा ने सच कहा था। बड़ी रोशनी थी वहाँ। अँधेरे का तो नामो-निशान न था। पर उस रोशनी की असली चमक तो नीरजा की पुतलियों में थी जो कार की पीछे वाली सीट पर बैठी नाक को शीशे से चिपकाए सड़क की रंगीनी देख रही थी।
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