सात समुंदर पार सपनों के बाज़ार में 

01-07-2024

सात समुंदर पार सपनों के बाज़ार में 

डॉ. पद्मावती (अंक: 256, जुलाई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

 वो तो सातवें आसमान पर पहुँच चुकी थी। धरती से नाता टूट चुका था। अब तो सपने भी ईस्टमेनकलरस्कोप के आने लगे थे, स्टैचु ऑफ़ लिबर्टी के . . . यहाँ तक कि उसने तो बाबा को भी ज्ञान दे दिया था कि डिग्री क्या चीज़ है? महज़ काग़ज़ का टुकड़ा और जब पति डॉलर में कमाई कर रहा है तो पत्नी को कमाने की क्या ज़रूरत? राकेश गाँव का पहला ऐनआरआई दामाद था। पूरे गाँव के सामने बाबा का सीना ऊँचा हो गया था। घर-घर जाकर कार्ड बाँटे थे शादी के उन्होंने। विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ था। दिल खोलकर ख़र्च किया था उन्होंने पर . . .।

आगे पढ़ें . . . कहानी . . .

 

फ़्लाइट की घोषणा हुई तो वह हड़बड़ा कर उठी और उसने यंत्रवत गेट की ओर रुख़ किया। हल्की सी कँपकँपी छूट रही थी। अकेले सफ़र करने का यह उसका पहला अनुभव था। कई पड़ाव पार करके यहाँ तक पहुँच तो गई थी पर संदिग्धता अभी भी बनी हुई थी। माइक पर कोई भी घोषणा होती तो दिल सीने ने निकल कर मुँह में आ जाता। अब तो एक बार बस फ़्लाइट में चढ़ जाए तो राहत मिले। वातानुकूलित लॉबी में भी कनपटी पर पसीने की बूँदें धार बनकर बहने लगीं। जितना अपने को सहज रखने की कोशिश करती, बेचैनी उतने ही अनुपात में बढ़ती जाती। उसकी पूरी जमा पूँजी आज उसके छोटे से बैग में बंद थी जिसे कसकर सीने से लगाए बोझिल थके क़दमों में जान डालती वह हवाई जहाज़ से लगी सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। 

“एयर इंडिया की इस उड़ान में आपका स्वागत है मैडम,” बुत की तरह खड़ी एयर होस्टेस को देख उसके होंठों पर हल्की सी मुस्कान आ गई। लंबे संघर्ष से फलीभूत इस उपलब्धि की चमक चेहरे पर अब असर दिखाने लगी . . . मन और शरीर हल्का महसूस हुआ। एकोनोमी क्लास पीछे थी फ़र्स्ट क्लास के। उत्साह से प्रत्युत्तर में हल्के से उसने भी सिर झुका दिया। इतने में अचानक पीछे से किसी बच्चे ने उसे धक्का दिया और उसका बदन लहराकर एक ओर को झुक गया। इससे पहले कि वह सँभलती, उसकी लंबी चोटी बल खाती नागिन की तरह कंधे पर आगे हो आई और उसमें लगे गजरे के धागे की गिरफ़्त से निकल कर एक चमेली का फूल फ़र्स्ट क्लास के साफ़ सुथरे रंगीन कालीन पर ऐसे गिर पड़ा जैसे आसमान से टपक पड़ा हो। उसकी साँस ही रुक गई जैसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई थी उससे। पीछे लंबी क़तार थी यात्रियों की और उसके रुक जाने से सब रुक गए थे। राकेश अगर यहाँ होता आज तो उसकी तो ख़ैर न थी। समय और स्थान की भी परवाह न करता हुआ सबके सामने उसे झाड़ देता ‘कितनी बार कहा है कि गँवारों की तरह ये गजरे न लगाया करो। कोई दिखा तुम्हें यहाँ फूलों को सर पर सजाए हुए? यह जंगलीपन वहीं छोड़ आती अपने देश में . . . तो अच्छा होता।’ 

कहने वाला वहाँ कोई नहीं था पर उसके कानों के पर्दों को वे शब्द भेदते चले गए नुकीले तीर की तरह। अनायास उसकी हथेलियाँ कानों की ओर बढ़ चली और उन्हें बंद कर दिया। पर अगले ही क्षण वह सँभल गई। झुककर फूल को उठाया और मुठ्ठी में कसकर उसे दबोच सधे क़दमों से अपनी सीट पर आगे ऐसे बढ़ गई जैसे कुछ हुआ ही न था। फ़्लाइट काफ़ी बड़ी थी। कोनों में दो-दो सीटों की लंबी क़तारें थी और बीच की क़तार थी तीन-तीन सीट वाली। उसे बीच वाली क़तार में बीच की सीट मिली थी। 

“वेलकम मैडम . . . आइए . . . क्या मैं आपका बैग ऊपर खाने में रख दूँ?” 

एयर होस्टेस ने उसका बैग हाथ से ले लिया और उसे जैसे ही ऊपर के खाने में रखने लगी वह असहज हो कह उठी, “क्या मैं इसे अपने साथ . . . ?” 

“नहीं मैडम वहाँ बैग बिलकुल सेफ़ है। डोंट वरी। आप जब कहें मैं आकर आपको आपका बैग दे दूँगी,” वह शायद उसके भाव पहचान गई थी इसीलिए उसे आश्वस्त कर चली गई। 

विकल्पहीनता की स्थिति में वह चुप रही पर नज़रें . . . नज़रें बैग पर ही टिकी रहीं। लगा जैसे उसके जिगर का टुकड़ा छीन कर उससे दूर कर दिया गया हो। 

उसने अपनी सीट पीछे की आराम से पसर गई और सहज होने की कोशिश करने लगी। चारों ओर नज़र दौड़ाकर विमान का ब्योरा लिया। विशाल हवाई जहाज़ ऊपरी कोनों से ठंडा धुआँ उगल रहा था। उस धुएँ से निकलती हुई भीनी–भीनी इत्र की महक एक अजीब सा सुकून दे रही थी-तन मन दोनों बहे जा रहे थे। बेहद ख़ुशनुमा माहौल। यात्रियों में अजीब सी उत्सुकता। कुछ बेवजह घूम रहे थे, कुछ अपना सामान ऊपरी खानों में सजा रहे थे, तो कुछ ऊपर लगी लाल बत्तियों के स्विच जला रहे थे। जैसे ही स्विच जलता, टिंग-टिंग की आवाज़ गूँज जाती और तत्क्षण प्रत्यक्ष हो जाती एयर होस्टेस, उनकी फ़रमाइश पूरी करने के लिए। 

उसने घड़ी देखी—सुबह के चार बज रहे थे। अब अगला प्रश्न था कि कौन आएगा दाएँ-बाएँ। कोने की सीट मिलती थी तो अच्छा होता पर अब दो जनों के बीच वह . . . सोच कर ही दिल बैठा जा रहा था . . . और वो भी इतने घंटे . . . मुश्किल था। पर अगले ही पल सामने से एक परिवार आता नज़र आया। पति-पत्नी और उछलता हुआ एक दस ग्यारह साल का बच्चा। उसे देखते ही वह सजग होकर खड़ा हो गया। शायद यह वही शरारती बच्चा था जिसने आते समय उसे धक्का मारा था। दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया। शोभा ने शरारती नज़रों से मुस्कुराकर उसकी ओर देखा तो वह झेंप कर अपनी माँ के पीछे हो गया। उनकी कुछ और भी सीटें आई थीं पीछे। बड़ा परिवार था शायद जो एक साथ सफ़र कर रहा था। पर यहाँ दाएँ-बाएँ पति-पत्नी की सीट थी, बच्चे की विंडो पर। उन्होंने आते ही बड़ी कातर दृष्टि से शोभा की ओर देखा। असमंजस में थे वे भी कि क्या कहें कैसे कहे। इससे पहले वे उससे कुछ कहते, उसने ख़ुद उनकी परेशानी दूर कर दी और कहा, “अगर आप कहें तो विंडो सीट पर मैं बैठ जाऊँ ताकि आप सब एक जगह . . .” 

“ओह . . . सो नाइस ऑफ़ यू मैडम। हम तो आपसे यही चाहते हैं। सो काइण्ड ऑफ यू!” वे कृतकृत्य हो गए। शोभा भी यही चाहती थी कि उसे कुछ एकांत मिल जाए और अब तो बैग भी सीधा उसके सिर के ऊपर था . . . उसके नज़दीक। बीच की सीट देखकर ही वह कुछ हताश-सी हो गई थी। अंतिम समय का निर्णय था। इसीलिए जो मिली बिना आना-कानी किए ख़रीद ली गई थी। तब विकल्प की गुंजाइश न थी। पर अब बहुत बड़ी समस्या टल गई थी। ईश्वर का शुक्रिया अदा किया और उसने चैन की साँस ली। बंगलौर से सेन फ्रांसिस्को का सफ़र . . . सोचा अब अठारह घंटे आराम से बीत जाएँगे। खिड़की से बाहर देखा। अँधेरा फट रहा था पर सूरज अभी न निकला था। 

अठारह घंटे बिताने हैं उसे इस फ़्लाइट में . . . पूरे अठारह घंटे पर अब यही आख़िरी सफ़र था उसके लिए। इसके बाद जीवन में वह कभी भी वहाँ नहीं जा पाएगी। जाना चाहेगी भी नहीं। एक बार और सही . . . अंतिम बार . . .। तपते मन को ठंडक पहुँची। लगा जैसे बरसों से रिसते घावों पर ठंडे कपूर का लेप लग गया हो। अब ये घाव और न सताएँगे . . . हाँ . . . उसने ऊपर देखा बैग की ओर . . . पर सामान रखने के खाने बंद हो चुके थे। शायद उड़ान भरने का समय हो गया था। उसने सिर खिड़की से टिका दिया और आँखें मूँद लीं। कई दिन या महीनों से नींद भी न आई थी। अब वह जी भर के सो सकती है पूरे अठारह घंटे। 

“मैडम सॉरी . . . कृपया पेटी बाँध ले। हम उड़ान भरने को हैं। मैं आपकी मदद करूँ?” 

एयर होस्टेस ने आगे झुककर उसकी मदद करने की कोशिश की। 

“नौ थेंक्स मैं कर लूँगी,” बेल्ट बाँध उसने कुर्सी सीधी की और फिर से खिड़की की ओर मुँह फेर लिया। 

विमान ने गति पकड़ी, कुछ दूर धरती पर दौड़ा और फिर क्षणों में ज़मीन छोड़ वायु-वेग से आकाश को चीर चला। हल्की-हल्की रोशनी आने लगी थी आसमान में। गुलाबी लालिमा। पूरी धरती आड़ी–टेढ़ी-इतनी टेढ़ी कि उसे चक्कर आने लगे। उसने कसकर आँखें बंद कर लीं। याद आया इसी तरह पहली बार जब विमान में आँख बंद कर उसने राकेश का हाथ कस कर पकड़ा था तो उसने झटके से हाथ छुड़ा लिया था। वह समझ न पाई थी क्यों। मन धक्क से रह गया था पर डर के कारण वैसी ही बैठी रही थी बुत बनी न जाने कितने पल और अंत में राकेश की आवाज़ सुनकर ही आँख खोली थी उसने। चोर नज़रों से लोगों की ओर भी देखा था, “अरे पहली बार बैठी हो क्या फ़्लाइट में? आँखें तो खोल लो। इतना भी क्या डरना? सब तुम्हारी ओर ही देख रहे हैं।” पर वहाँ तो कोई उसकी ओर ध्यान न दे रहा था। उसे आश्चर्य हुआ था कि राकेश ऐसा क्यों बोल रहे हैं? अपनी मूर्खता पर शर्म से लाल हो गए थे उसके कान और फिर परिणति हुई थी इस अशिष्टता की आँसुओं में। पर राकेश ने उस पर ध्यान ही न दिया था। आज भी उसने झट से आँख खोल ली। आज भी लगा जैसे सब उसे ही घूर रहे थे। आज फिर आँख अनायास बहने लगी। पर आज के आँसू न डर के थे न शर्म के। अब डर उसे डराता न था और शर्म उसे आती न थी। अगर डराता था कोई उसे तो वह था उसका अपना वुजूद . . . उसका अपना अंतरमन जिसे मिटाने की उसकी सभी कोशिशें नाकाम रही थीं। उसका दोष बस इतना था कि मार न सकी थी वह अपने मन को। कितना चाहा था उसने . . . ईमानदारी से कोशिश भी की थी पर . . . अफ़सोस . . . मिटा न पाई अपने को। और इस ग़लती की भारी सज़ा मिली थी उसे . . . भारी क़ीमत चुकानी पड़ी थी। 

“मैडम . . . सॉरी। आपके लिए मैं कोई जूस और सैंडविच ले आऊँ? आपकी पसंद?” उसकी तंद्रा टूटी। प्लेन अब सीधा होकर बादलों में तैर रहा था। खान-पान शुरू हो चुका था। सब ने सीट बेल्ट खोल ली थी और चहल–पहल भी शुरू हो चुकी थी। बग़ल वाली सीट पर एक महिला बैठी हुई थी। वह अपनी सोच में इस तरह गुम थी कि उसने ध्यान ही न दिया था। 

“जी . . . जी हाँ। क्या जूस मिलेगा? उसने हड़बडा कर पूछा। जानती थी जो भी दिया जाएगा चुपचाप पीना होगा पर मुँह से निकल गया था। 

“जो आप कहें . . . ऑरेंज, मेंगो, या पाइनेपिल? 

“ओह . . . हाँ, आरेंज ठीक रहेगा।” 

बचपन में बाबा सप्ताह में एक बार उसे ऑरेंज जूस दिलवाया करते थे रामलाल जूस वाले की दुकान पर ले जाकर और वह हमेशा बर्फ़ के टुकड़ों की ज़िद करती थी और उसकी ज़िद के सामने बाबा हमेशा घुटने टेक देते थे। घर आने से पहले ही गला ख़राब हो जाता और फिर होमियोपैथी की मीठी–मीठी गोलियाँ बोनस में खाने को दी जाती थी . . . बाबा गाँव में ज़मींदार थे। कई एकड़ ज़मीन थी। घर में कई नौकर–चाकर थे। माँ बचपन में ही परलोक सिधार गई थी। बाबा और भाई ने पाला था उसे। 

दक्षिण भारत के छोटे से क़स्बे रेड्डी पालेमु की पैदाइश थी वह। उस समय गाँव में एक सरकारी स्कूल था और एक सरकारी दवाखाना। इससे बढ़कर और कोई सुविधा नहीं थी वहाँ। कॉलेज की पढ़ाई के लिए नज़दीक के शहर जाना पड़ता था . . . बाबा के लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर था और भाई दसवीं फ़ेल के बाद बाबा के साथ खेती में लग गया था। उसने इंटर में फ़र्स्ट क्लास ली थी। घर की लाडो थी वह और बाबा ने दादाजी से लड़ कर कॉलेज भेजा था उसे। गाँव से लगभग चालीस किलोमीटर दूर शहर में। 

“मैडम सैंडविच लेंगी जूस के साथ?” एयर होस्टेस तीमारदारी के लिए फिर हाज़िर हो गई थी। 

“ओके,” उसने हल्के से सिर हिलाकर मूक समर्थन दे दिया। 

“एग या प्लेन?” 
“प्लेन।” 

सैंडविच लाने वह लंबे डग भरती वहाँ से चली गई। 

सैंडविच . . . सैंडविच का ध्यान आते ही उसके रोंगटे खड़े हो गए। 

‘कितनी बार कहा है कि मुझे इडली दोसा नाश्ते में न दिया करो? कुछ और बनाना नहीं सीखा तुमने? 
सैंडविच . . . पास्ता? जानती हो क्या होता है? यहाँ रहना है तो यहाँ के तौर तरीक़े भी अपना लो . . . जितना जल्दी हो सके उतना, यही बेहतर होगा तुम्हारे लिए।’ राकेश केवल आदेश देता था, उससे बात करना पसंद न करता था। 

कैलीफ़ोर्निया के ‘सैन होसे’ में रहते उन्हें अभी दो साल ही हुए थे। इन दो सालों में सुबह उठकर राकेश की हर फ़रमाइश को पूरा करना ही उसका जीने का एकमात्र लक्ष्य बन कर रह गया था। सैंडविच बनाना कोई बड़ी बात न थी, सीख लिया था उसने। एक सैंडविच बनाना ही क्यों . . . बहुत कुछ सीखने की कोशिश करती रही थी और मुश्किल से सीखा भी था पर प्रशंसा के शब्द तो दूर प्यार भरी एक नज़र भी नसीब न हुई थी। वह तरस जाती थी उससे बात करने को . . . न जाने क्या विकर्षण था उसमें, पानी में तेल की बूँद की तरह वे दिल कभी भी मिल न पाए। फ़ासला बढ़ता ही चला गया। धीरे-धीरे दिनचर्या में राकेश की माँगें कम होती चली गईं क्योंकि बिना माँगे ही वह सब कुछ उसकी इच्छा के अनुसार तैयार रखने लगी थी। बात नाम मात्र की होती थी दोनों में। उसका केवल नाश्ता घर पर होता था। बाक़ी लंच और डिनर बाहर। पूरा दिन वह अकेली घर में भूत की तरह घूमती रहती। देर रात को वह थका-हारा आता और सो जाता। अपने को कुंद कर उसकी पसंद में जीने की आदत डाल कर भी कोई सार्थक परिणाम न निकला था। 

“आपकी पाजेब बहुत सुंदर है,” बग़ल की सीट पर बैठी महिला ने सराहनीय दृष्टि से मुस्कुराकर कहा। पाँव पर पाँव चढ़ा कर बैठने के कारण उसकी साड़ी कुछ ऊपर खिसक गई थी और पायल दिखने लगी थी। 

“बहुत अच्छा लगा आपको देखकर। यानी . . . मेरा मतलब है आपकी पारंपरिक वेष-भूषा को देखकर . . . विशेषकर आपकी पाजेब और आपका पहना चमेली का गजरा तो . . . सच . . . वह तो आज इस विमान में सभी विदेशी पर्फ़्यूमस पर भारी पड़ रहा है। कितनी अच्छी ख़ुश्बू है। मुझे बहुत पसंद है,” वे मुस्कुराते हुए उसे देख रहीं थी पर इस तरह बिना परिचय बात-चीत करना और शोभा को चुप देख वे कुछ सकपका सी गई। सोचा शायद उसे अच्छा न लगा हो। तो परिचय देना आवश्यक समझा, “सॉरी . . . मैं मिसेज मल्लिका शर्मा, कर्नाटक से। बच्ची कैलिफ़ोर्निया में है, नाती हुआ है, अभी तीन महीने का है। इसीलिए जा रही हूँ है छह महीनों के लिए। बच्ची सॉफ़्टवेयर इंजीनियर है वहाँ बड़ी कंपनी में चार सालों से। छह महीने पतिदेव जाते हैं छह महीने मैंं। बस बच्चा कुछ बड़ा हो जाए और वो उसे केयर सेंटर में डाल लें तो हमारी ड्यूटी छूटे। बस यूँही चक्कर लगते रहते हैं हमारे।” शोभा अब भी चुपचाप उन्हें देख रही थी। गोरा रंग, पचास की होगी शायद, सौम्य और सभ्य छवि। 

“शायद मैंं कुछ ज़्यादा बोल गई,” उसको यूँ घूरते देख वे कुछ असहज सी हो गईं। “शायद आप डिस्टर्ब तो नहीं हो गईं? आइ एम वेरी सॉरी।” 

“‘नहीं, नहीं . . . सॉरी तो मुझे कहना चाहिए मल्लिकाजी। मैं सोच रही थी कि . . . क्या कहूँ . . . दरअ‍सल आज तक किसी ने मेरी वेष-भूषा की तारीफ़ न की थी न। याद नहीं कभी की हो . . . इसीलिए। वैसे थैंक्स् . . . ख़ुशी हुई कि आपको पसंद आया।” 

“ओह हाँ . . . बिलकुल सही कहा आपने। कौन सराहेगा अब अपनी संस्कृति को। अरे विदेशी हमारी वेष-भूषा चाल-चलन अपना रहे हैं और हमारे बच्चे इन सबसे दूर भाग रहे हैं। सही कहा आपने। अब तो इसे गँवारूपन भी माना जा रहा है।” मल्लिका जी ने आँखों पर काली पट्टी चढ़ा ली और पीछे की ओर पसर गईं। 

गँवारूपन? धक्का लगा उसे। हाँ . . . गँवार ही तो थी वह। थी या नहीं यह तो नहीं मालूम पर राकेश तो उसे गँवार ही मानता था। उसकी हर बात से चिढ़ रहा था वह। चिढ़ थी उसके पहनावे से, उसके इंग्लिश न बोल पाने से, उसके लंबे बालों से, उसके गजरे से और न जाने किस-किस से। इतने सालों में वह उसे अपने साथ कभी बाहर न लेकर गया था। सोम से शुक्रवार तक तो बस काम ही काम रहता और शनि रवि को अपने यार दोस्तों के साथ ग़ायब हो जाता और वह हर शाम सामने के कम्न्यूनिटी पार्क में बैठी पेड़ों के पत्ते गिनती रहती थी। अब तक इस देश में अगर कुछ देखा था उसने तो वह था एयरपोर्ट से घर तक का रास्ता और इंडियन स्टोर—घरेलू ख़रीदारी के लिए। सैंफ्रांसिस्को की लंबी-लंबी इमारतें रोमांचित कर गई थीं उसे जिस दिन जब वे घर आ रहे थे पर उस दिन के बाद कभी कहीं न जा पाई थी। मन तो बहुत करता था बाहर घूमने का उसका पर न वह हिम्मत ही कर पाई कहने की, न उसने कभी रुचि दिखाई, न समय निकाला। बहाना था समय का। वह उसे बाहर ले जाना ही नहीं चाहता था। 

गला सूखने लगा उसका। लगा आँख में जैसे कुछ गिर गया है . . . शायद रेत . . . जो चुभ रही थी। हाँ, रेत ही तो थी . . . तपती रेत जो उसके पूरे जीवन पर गिर चुकी थी और तिल-तिल जला रही थी उसकी तपन। उसने हड़बड़ा कर ऊपर लगा लाल बटन दबा दिया। तत्क्षण पानी लेकर एयर होस्टेस अवतरित हुई। उसने झट से एक गिलास उठा लिया और एक ही घूँट में ऐसे ख़ाली कर दिया जैसे बरसों की प्यासी हो। बग़ल में देखा मल्लिका जी सो रही थीं। 

आज फिर वह दिन . . . कैसे भूल सकती थी वह? उस दिन जब शादी के दो साल बाद पहली बार घर में पार्टी रखी थी उसने कुछ यार-दोस्तों के लिए। कुछ अमेरिकन भी आए हुए थे। राकेश को उसके हाथ का खाना पसंद न था इसीलिए सब कुछ इंडियन रेस्तरां से ऑर्डर किया गया था। सुबह जाते समय सिर्फ़ इतना ही कह कर गया था कि शाम को पार्टी है। न कोई आदेश न कोई हिदायत। वह तो चला गया पर पूरा दिन उसका इसी कश्मकश में गुज़रा था कि कैसे वह सबके सामने पेश आएगी। बुरी तरह से डर लग रहा था। अब तक किसी से मिली न थी वह। अनजान लोग . . . अनजान भाषा और . . . अपरिचित पति। क्या गत होगी उसकी शाम को? सोच सोच कर पसीने छूट रहे थे। आइने के सामने खड़ी होकर टूटी-फूटी इंग्लिश जो कुछ सीखी थी उन पुस्तकों से जिनको यहाँ आते समय चुपके से ख़रीद लाई थी, अभ्यास भी करती रही थी। रंग साँवला था उसका . . . गहरा साँवला जो काले की श्रेणी में आ सकता था। लंबी क़द-काठी, सुराही जैसी गर्दन पर चौड़ा उठा वक्ष, कमान जैसी पतली कमर और सुडौल नितंब। रति का प्रतिरूप लगती थी रविवर्मा की कलाकृति। पर जिस सराहना की चाहत थी, उसकी तो नज़र भी न पड़ी थी उस पर। उसके सौंदर्य की सार्थकता जंगल में छितरी चाँदनी जितनी ही थी। शेम्पू से रगड़-रगड़ बाल धोए थे उस दिन उसने और फिर लंबी चोटी गूँथी थी। पिछले साल इंडियन स्टोर से चमेली का पौधा ख़रीद कर लाई थी। हिफ़ाज़त से पाल-पोस कर बड़ा किया था उसे। उस साल मौसम में ऐसे फूल खिले थे कि पूरी डाल फूलों से लद गई थी। फूलों का गजरा लंबा बनाया और चोटी के साथ गूँथ लिया था बड़े चाव से। माथे पर लाल बिंदी लगाई, उस के नीचे चंदन की छोटा टीका, नाक में त्रिकोनी लौंग जिसके ऊपरी कोने में छोटा सा लाल मानिक था, नीचे दो पन्ने और उसके नीचे तीन असली ऑस्ट्रेलियन कट हीरे। दरअसल गाँव में परम्परा थी हर त्योहार पर गहने ख़रीदने की। सोने-हीरों से लदी होती थी उसकी अलमारी। वहाँ तो इन गहनों की नुमाइश के कई अवसर भी मिलते थे पर अब यहाँ वे दराज़ में पड़े-पड़े सड़ रहे थे। उस दिन मुश्किल से अवसर मिला था तो पहन लिए थे। गले में असली मोती की माला, सोने का बाज़ूबंद और पाँव में रुनक–झुनक चाँदी की भारी पाजेब, बदन पर कांजीवरम की असली सिल्क साड़ी। आश्वस्ति के लिए आइने में कई बार निहारा था अपने आप को। 

शाम को राकेश दोस्तों के साथ घर आया था। घर के गार्डेन में पार्टी अरेंज की गई थी। उसके इस रूप को देखकर उसके हाव-भाव बदल गए थे। कह तो कुछ न पाया पर पूरा समय उससे कटता ही रहा। बड़े ही औपचारिक ढंग से रूखा-रूखा सा दोस्तों से परिचय करवाया। किसी न किसी काम के बहाने उसे घर के अंदर भेजता रहा था कभी पानी लाने तो कभी शराब। वह हतप्रभ सी अनजान होकर भी सब समझ रही थी। चुपचाप अंदर ही बैठी रही थी। व्यस्त रखा अपने को रसोई में, खाने की थालियाँ सजाने में। न किसी की ओर देखा न बाहर आने की हिम्मत जुटा पाई थी और न ही बात की थी किसी से। उस दिन एक बार फिर अपने पर बहुत शर्म आई थी उसे। और राकेश . . . उसने व्यक्त रूप से तो कुछ न कहा था पर वह स्पष्ट समझ गई थी जो वह कहना चाहता था और उसके बाद फिर कभी उसने उन गहनों को हाथ न लगाया था। 

“मैडम चॉकलेट लेंगी?” ट्रे में कई विदेशी चॉकलेट लेकर एयर होस्टेस प्रस्तुत हुई। उसी ट्रे में कड़क खट्टी नींबू गोली और संतरे की गोलियाँ भी पड़ी थीं। उसने कुछ खट्टी संतरे की गोलियाँ मुठ्ठी में जकड़ लीं। एक का रैपर खोल मुँह में रखा और चूसने लगी। 

“न . . . न . . . यूँ नहीं . . . कटक कटक चबाने में जो मज़ा है न इन गोलियों का, वह चूसने में नहीं,” मिसेज मल्लिका ने पट्टी निकाल कर मुस्कुराते कहा, “है न?” 

उसके होंठों पर गहरी मुस्कान नाच गई, “बिलकुल . . . आप सोईं नहीं?” 

“उम्म . . . हूँ, नहीं। नींद कहाँ आती है? बस कोशिश जारी है,” उन्होंने पट्टी फिर चढ़ा ली। फ़्लाइट में गुनगुना अँधेरा था। बैठे-बैठे सब ऊँघ रहे थे। 

‘तुम हमेशा कटर-कटर सारी गोलियाँ एक साथ क्यों चबाने लगती हो? चूस के नहीं खा सकती? झल्ली कहीं की’ सुधाकर और रम्या खीज जाते थे उसकी इस आदत से और उन्हें इस तरह चिढ़ाने में उसे बड़ा मज़ा आता था। रम्या के पिता दुकानदार थे और सुधाकर—सूर्यकांत रेड्डी जी की इकलौती औलाद। बहुत ही होनहार-पढ़ाई में अव्वल। वे भी ज़मींदार थे और गाँव में उनका इकलौता मकान था जो दो मंज़िला था। गाँव में सबसे पहले एसी उनके घर में ही लगा था और उसकी देखा-देखी शोभा ने बाबा से बहुत ज़िद की थी अपने घर में भी एसी लगवाने की। और बाबा ने उसकी बात पर तत्क्षण उसके कमरे में एसी लगवा दिया था। केवल उसके कमरे में एसी लगा था पूरे घर में। 

रम्या, सुधाकर और वह तीनों सहपाठी थे। कॉलेजमेट। सुधाकर सीनियर था और रम्या और वह एक ही क्लास में थीं। हाइवे पर चाय की दुकान के पास रोज़ नौ बजे बस आती थी और तीनों मिलकर जाते और शाम को भी मिलकर ही वापस आते थे। सुधाकर रोज़ चॉकलेट ख़रीद कर लाता—रम्या को कैडबरी, उसे संतरे की गोलियाँ देता; जो उसे बेहद अच्छी लगती थीं। उसके हाथ से गोलियाँ झपट कर वह सारी की सारी एक साथ मुँह में डाल लेती और कटर-पटर आवाज़ करती चबाने लगती थी और दोनों बुरी तरह चिढ़ जाते थे। रम्य सुधाकर को बहुत डाँटती थी कि इस मूर्ख को गोली क्यों दी। इसे तो खाना भी नहीं आता। 

“बंदर क्या जाने अदरक की मिठास? तुम दोनों क्या जानो कि इस तरह चबाने में जो मज़ा है वह चूसने में कहाँ?” यह स्वरचित मुहावरा शोभा का तकिया कलाम था और उसे उसके मुँह से यह सुनकर तीनों ठहाका लगाकर लोट-पोट हो जाते थे। 

सूर्यकांत जी शोभा को अपनी बहू स्वीकारना चाहते थे। सुधाकर को भी शोभा ख़ूब पसंद थी। बाबा और सूर्यकांत जी अच्छे मित्र थे और मित्रता को रिश्तेदारी में बदलना चाहते थे। पर उसकी तरफ़ से न हाँ थी और न ही न। लेकिन जब हैदराबाद की बुआ राकेश का रिश्ता लेकर आई तो बाबा के सब समीकरण गड़बड़ा गए। ऐनआरआई दामाद मित्रता पर भारी पड़ गया और शोभा . . . वह तो बस राकेश को देखते ही फ़िदा हो गई थी। छह फ़ुट लंबा टॉल एण्ड हैंडसम गोरा चिट्टा मुंडा जिसने उससे विवाह करने की स्वीकृती दे दी थी। शोभा के दिमाग़ पर उसके रंगरूप की ऐसी माया आवृत हुई थी कि उसे न कुछ सुनाई देता था, न कुछ दिखाई देता था। वो तो सातवें आसमान पर पहुँच चुकी थी। धरती से नाता टूट चुका था। अमरीका से कम कुछ सूझता ही नहीं था। अब तो सपने भी ईस्टमेनकलरस्कोप के आने लगे थे, स्टैचु ऑफ़ लिबर्टी के। पिक्चरों में जो कुछ देखा था, सपनों में सब साकार हो जाता और वह उन रंगीन गलियों में राकेश की बाँहों में बाँहे डाले घूमने लगती थी। उन्होंने एक महीने के अंदर विवाह की शर्त रखी तो बाबा ने विरोध किया था कि बच्ची की डिग्री हो जाए तो विवाह करें पर वह तो झटपट राज़ी भी हो गई थी और बाबा को भी ऐसी पट्टी पढ़ाई थी कि अगर यह रिश्ता हाथ से निकल गया तो फिर कभी ऐसा मौक़ा न आएगा। बाबा को ज्ञान दिया गया कि डिग्री क्या है? महज़ काग़ज़ का टुकड़ा और जब पति डॉलर में कमाई कर रहा है तो पत्नी को कमाने की क्या ज़रूरत? राकेश गाँव का पहला ऐनआरआई दामाद था। पूरे गाँव के सामने बाबा का सीना तन गया था। घर-घर जाकर कार्ड बाँटे थे शादी के। विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ था। दिल खोलकर ख़र्च किया था उन्होंने। सूर्यकांतजी के परिवार से केवल वे आए थे, चाँदी की थाली उपहार में लेकर। 

अचानक झटका लगा और उसकी आँख खुली। हल्का टरबुलेंस था। समय देखा चार छह बज रहे थे। खाना खाने के बाद पता ही न चला कब उसकी आँख लग गई थी। उसने टीवी खोला और उड़ान की गतिविधि देखने लगी। गम्य स्थान पहुँचने के लिए अभी समय था। शाम का जलपान शुरू हो गया था। 

“मैडम आपके लिए चाय या जिन विद लाइम?” उसकी ट्रे में दोनों थे। 

“प्लेन सोडा विद स्वीट लाइम मिल सकता है?” मल्लिका जी ने एयर होस्टेस से पूछा। “बैठे-बैठे इतना खाने से एसीडिटी हो जाती है। अब घर जाकर पैन लेनी होगी . . . है न?” वे शोभा की ओर मुख़ातिब हुईं। 

“हाँ। मेरे लिए भी प्लीज़ नींबू पानी।” एयर होस्टेस ने दोनों को गिलास पकड़ाए और चली गई। 

“अरे यार तुम भी न . . . टू मच। जिन तो पी सकती हो न यार! जिन, वाइन शराब नहीं है . . . समझो डार्लिंग। अंगूर का रस समझ गटक जाओ। कब तक निंबू पानी पीती रहोगी? कमौन यार . . .” निशा हमेशा उससे यही ज़िद करती पर वह थी कि टस से मस न होती। 

निशा शर्मा, राकेश की अंतरंग सखी, गोरी चिट्टी, हाई पैकेज पर कार्यरत ग्रीन कार्ड होल्डर, वहीं के रंग में रँगी, राकेश की सीढ़ी उसे अमरीका पहुँचाने की, विवाह से पहले और विवाह के बाद में भी उसकी हम-बिस्तर . . . जिसके सौजन्य से ही यह रहस्य खुला था कि राकेश का उससे विवाह करने का एकमात्र कारण था—बाबा की दी हुई पाँच करोड़ की ज़मीन। हाँ . . . पाँच करोड़़। वरना उसका और राकेश का क्या मेल? वह कहाँ आसमान का चाँद, और वो . . . गाँव की गँवार, कम पढ़ी-लिखी काली कलूटी . . . वह उस पर क्यों कर एहसान करता? 

तभी हुई घोषणा से उसकी तंद्रा टूटी “यात्रियों से निवेदन है कि अपनी सीट की पेटी बाँध ले। कुछ ही समय में विमान सैन फ्रेसिस्को की धरती पर . . .” उसने खिड़की से बाहर देखा-विमान को क्लीयरेंस न मिल रही थी। अनावश्यक चक्कर लगा रहा था। 

“आपने अपने बारे में कुछ न बताया। क्या मैं पूछ सकती हूँ अगर आपको बुरा न लगे तो? आप यहाँ काम करती हैं?” मल्लिका जी ने उसके बारे में जानने की उत्सुकता दिखलाई। 

न्यूनतम औपचारिकता थी और शोभा अब चुप न रह सकी। विमान की बत्तियाँ बुझा दी गई थी। हल्का अँधेरा था—शायद रोशनी में वो बोल न पाती पर अब अँधेरे का फ़ायदा उठाकर वह बोलने लगी, “ओह हाँ . . . मैं शोभा चौधरी मेरे दो बच्चे हैं–जुड़वाँ, यहीं पर हैं अमरीका में। हम सपरिवार भारत आए थे लेकिन मुझे मायके में छोड़ मेरा पति मेरे बच्चों को और मेरा पासपोर्ट लेकर अमरीका भाग आया। वह मुझसे मुक्ति चाहता था . . . और आज बड़ी मुश्किल से मैंने भी निकाल फेंका उस फाँस को अपनी ज़िन्दगी से जो बहुत दुःख दे रही थी। देश कोई भी क्यों न हो, माँ को बच्चों से अलग नहीं रख सकता न इसीलिए मुझे इस देश में रहने की क़ानूनन अनुमति मिल गई है बच्चों की वैध कस्टडी के साथ। पर मैं यहाँ रहने के लिए नहीं, अपने बच्चों को वापस भारत ले जाने के लिए आ रही हूँ।” एक ही साँस में बोलकर वह चुप हो गई थी। बिलकुल चुप लेकिन मल्लिकाजी तो हिल ही गई थीं जैसे थीं, मुँह खुला रह गया था। पलक झपके बिना देखती रहीं बस . . . प्रत्युत्तर में कुछ कह भी न पाई। 

अचानक विमान के पहियों ने सैन फ्रासिस्कों की धरती छुई। विमान की बत्तियाँ जल उठीं और वह रोशनी से जगमगाने लगा। उसने तो काफ़ी सहजता के साथ सब कुछ कह दिया था और वे उसकी कहानी पर नहीं उसके संयम पर आश्चर्यचकित हो गई थीं। वह उठी और अपना बैग हाथ में लिया और बोली, “इसमें मेरा दस महीनों का संघर्ष बंद है—मेरी दस महीनों की तपस्या। विडंबना है, अपने ही बच्चों को अपना बनाने का क़ानूनी हथियार।” उसने बैग सीने से भींच लिया। “सॉरी . . . आप मेरी कहानी सुनकर बोर हो गई न।” 

“नहीं . . . बिलकुल नहीं पर हैरान अवश्य।” मल्लिका जी ने ठंडी साँस ली अपने पर्स से अपना कार्ड निकाल कर उसे दे दिया और उसकी हथेली को अपने दोनों हाथों से पकड़कर कहा, “जीवन में कितनी बार विमान में बैठी होऊँगी . . . याद नहीं, कितने सफ़र किए होंगे पता नहीं, पर यह सफ़र यादगार रहेगा। मैं और तो कुछ नहीं बस आपको और आपके बच्चों को शुभकामनाएँ दे सकती हूँ। कभी भी कोई परेशानी हो तो . . . तो संपर्क कीजिएगा। मेरे दामाद लीगल फ़ील्ड में है यहाँ पर। उस कार्ड में उनका पर्सनल नंबर है . . .।” 

उसने हल्के से सिर हिलाया और अपना बैग सँभाले सधे क़दमों से एग्ज़िट मार्ग की ओर आगे बढ़ गई। 

1 टिप्पणियाँ

  • बहुत सुंदर कहानी परोसी है।पढकर मजा आ गया।पूर्व की भांति भाषा शैली भाव अलंकारित उपमा भरे शब्द जिसका कोई जवाब नही।कहानी की रूपरेखा शीर्षक शोभा और राकेश मुख्य पात्र की भूमिका ने कहानी को रोमांचित कर दिया।खानपान के पदार्थ जूस सभी मे देसी पूट है।कहानी बहुत लंबी है।अच्छी है। आपको बहुत बधाई। किसी अच्छी पत्रिका मे छपवाएं।कई लोग पढूगे।

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