मायाधीश 

डॉ. पद्मावती (अंक: 237, सितम्बर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

संध्या अंतिम चरण में, अपने पूर्ण अवसान पर। निशा शनैः शनैः गहरा रही थी। सागर की तरंगों पर शीतल पवन का कम्पन। चारों ओर निस्तब्धता को रह रहकर तोड़ता लहरों का शोर। सुदामा ने अपनी पोटली जैसे ही सर के नीचे रखी निद्रा देवी ने अपने आग़ोश में ले लिया। 

अचानक पाया सामने रत्न जड़ित आभूषणों से सुसज्जित नववधु महामाया खड़ी थी। चिताकर्षक आभा पर सम्मोहन का आवरण। सुदामा स्तंभित रह गए। 

“आइए देव मैं आपकी प्रतीक्षा कर रही हूँ। मेरी इच्छा पूर्ण कीजिए। मुझे स्वीकार कीजिए,” चंचल मोहिनी ने नयनों से अस्त्र चला दिया। 

“देवी आपको भ्रम हुआ है। मैं कंगाल सुदामा,” सुदामा ने हकलाते आँखें मलते अपना परिचय दिया। 

“संपूर्ण सृष्टि को दिग्भ्रमित करने वाली मैं, और मुझे भ्रम हुआ है?” महा माया का अट्टहास लहरों को कँपा गया। 

“मैं आपकी राह देख रही हूँ देव! प्रभु ने स्वयं मुझे आपके पास भेजा है। आज से आप तीनों लोकों के ऐश्वर्य के स्वामी हैं और मेरा स्थान आपके हृदय में है।” 

“मैं और तीनों लोगों का स्वामी?” अब सुदामा अपनी हँसी न रोक पाए। “नहीं देवी, भ्रम है यह। हाँ, कुछ दिन मेरे मित्र ने राजभोग का स्वाद अवश्य चखाया था लेकिन प्रस्थान करते समय उसने सब छीन लिया। मेरे रत्न जड़ित आभूषण, रेशमी वस्त्र यहाँ तक की मेरी पहनी खड़ाऊँ भी। आप मेरे चीथड़े और मेरी कंगाली को नहीं देख पा रही हैं?” 

“नहीं देव। आप अब इस धरती पर सर्वाधिक भाग्यशाली बन गए हैं। मेरा और आपका अब तो अटूट नाता जुड़ चुका है और मैं आपके हृदय के स्वामिनी हूँ, आप मेरे दास,” माया ने आगे बढ़कर सुदामा का आलिंगन कर लिया

“दूर हटो दुष्टा। दूर रह मुझसे। मुझे छूने की धृष्टता की है तूने? जा पृथ्वी से तेरा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा,” सुदामा के मुँह से फूटी अंगार ने माया को थरथरा दिया। 

उनकी तंद्रा टूटी। 

प्रत्यूषा की पहली रश्मि ने स्वागत गीत गाया। हल्की सी लालिमा, अस्पष्ट धुँधला-सा दिखाई पड़ रहा था। सामने देदीप्यमान आलीशान महल खड़े थे। उनका ही गाँव था। भव्य महल की ड्योढ़ी पर उनकी अर्द्धांगिनी सुशीला क़ीमती आभूषणों से सुसज्जित राह देख रही थी। सुदामा के अश्रुओं से धार बहने लगी। 

तत्क्षण भाग कर अंदर गए, मंदिर से प्रभु कृष्ण की अपनी आराध्य प्रस्तर प्रतिमा को उठाया और हाँफते बाहर निकल आए। क्षुब्ध कंठ, आवाज़ भर्रा गई। काँपते बोले, “सुशीला मैं इस ऐश्वर्य का तिरस्कार करता हूँ। अपनी पूँजी ले कर मैं जा रहा हूँ। अगर साथ देने की इच्छा हो तो बच्चों को लेकर तत्काल यहाँ से चलो।” 

वे तेज़ी से आगे बढ़े तो देखा, सामने महामाया राह रोके खड़ी थी, विखंडित काया, कला विहीन मलिन मुख, अपराध बोध से कुम्हलाया नत शीष, आँखों से अविरल धारा। वह सुदामा के चरणों पर लोट गई और बोली, “प्रभु अब आप मेरे स्वामी हैं मैं आपकी दासी। मूर्ख का अपराध क्षमा कर जीवनदान दीजिए। यहाँ पृथ्वी पर मेरे योग्य स्थान बताइए देव।” 

सुदामा तनिक पीछे हटे और कठोर वाणी में कहा, “सुन विभ्रमे, मैं अपने शाप का संवरण करता हूँ। आज के बाद तुम किसी भी उस हृदय की स्वामिनी नहीं बन सकती जहाँ हरि का नाम स्मरण गूँजता है। मैंने तुम्हारा वो स्थान आज छीन लिया। जाओ और अपने योग्य स्थान ढूँढ़ो।” 

“जो आज्ञा स्वामी। आपकी दासी आपकी आज्ञा शिरोधार्य करती है,” माया ने विनीत होकर शीष झुकाया और अनंत में विलीन हो गई अपने स्थान की खोज में। 

1 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

बाल साहित्य कहानी
कहानी
सांस्कृतिक आलेख
लघुकथा
सांस्कृतिक कथा
स्मृति लेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सामाजिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
यात्रा-संस्मरण
किशोर साहित्य कहानी
ऐतिहासिक
साहित्यिक आलेख
रचना समीक्षा
शोध निबन्ध
चिन्तन
सिनेमा और साहित्य
विडियो
ऑडियो