गोलू और सोनी की सैर 

15-03-2025

गोलू और सोनी की सैर 

डॉ. पद्मावती (अंक: 273, मार्च द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

“आज गर्मी क़हर ढा रही है। उमस भरी दोपहर। हवा का मानो-निशान नहीं . . . सूरज है या आग का गोला . . . और ये सोनी . . . अब क्या कहूँ इससे? बात भी नहीं कर रही। थक गया हूँ समझाते . . . समझती ही नहीं। क्या समझाऊँ? कैसे मनाऊँ?” घने पत्तों की ओट में बैठा गोलू बड़बड़ा रहा था। वहीं सोनी गिलहरी उसी डाल पर उलटी लटकी कभी-कभी बीच में गर्दन टेढ़ी कर या तो उसे देख लेती या जम्हाई लेती हुई मुँह छुपाकर ऊन का गोला बन जाती थी। 

गोलू की आँखें भी नींद से भारी होने लगी थी। इतनी भीषण गर्मी में पत्तों की ठंडी छाँव तले निंदिया तो बिन बुलाए आ जाए। वह आँख मूँदने ही वाला था कि उसकी नज़र हठात्‌ पेड़ की उस निचली डाल पर पड़़ी जहाँ काली बिल्ली पंजों को अपने पेट में छिपाए सिकुड़ कर पत्तों में छुपी बैठी कानी आँखों से उसी ओर ताक रही थी। 

गोलू को मामला समझ में आ गया। उसकी नींद उड़ गई। सोनी को कभी भी ख़तरा हो सकता था क्योंकि वह थी भी बड़ी नादान और काली की नीयत तो उसे कभी ठीक न लगती थी। वैसे काली थी बड़ी धूर्त। कई बार सोनी पर पंजा आज़मा चुकी थी लेकिन ये तो गोलू की सूझ-बूझ थी जिसके आगे उसकी एक न चल पाई और सोनी हमेशा बाल-बाल बच गई थी। 

उसकी तो अब यह आदत बन गई थी। भरी दुपहरी में दबे पाँव पेड़ की झुकी डालियों से वह आसानी से ऊपर चढ़ आती और मौक़ा मिलते ही वहाँ घोंसलों में सो रहे नन्हें-नन्हे चूज़ों को या अंडों को चुपचाप निगल कर नौ दो ग्यारह हो जाती।

आए दिन शाम को किसी न किसी घोंसले में हू-हल्ला मचा रहता था। सब परेशान थे इस काली से . . . पर सब असहाय . . . क्या करें? समझ न आ रहा था। गोलू ने आज जब उसे देखा तो सोचा कि इस स्थायी समस्या का समाधान तो ज़रूरी है पर करे तो क्या करे? 

सोनी अभी छोटी-सी थी लेकिन शरारतों में पूरी बदमाश। पूरा दिन इस डाल पर तो उस डाल पर फिसलती रहती या उलटी लटकी कलाबाज़ियाँ दिखाती रहती। एक दम निडर दबंग। कभी यहाँ कुछ कुतरती तो कभी वहाँ छलाँग लगाती। गोलू ने कई बार उसे डराया–धमकाया था पर वह माने तब न। 

वह उसकी दुलारी थी। उस पर अपना ख़ूब रोब झाड़ती थी। कभी उसके कान खींचती तो कभी पंख और तो और रात को उसी के घोंसले में पूरे अधिकार से सो रहती थी। गोलू उससे ख़ूब लाड़ लडाता था क्योंकि बचपन से ही वह उसके पल्ले पड़ गई थी। माँ गिलहरी ने दम तोड़ दिया था और उसका लालन-पालन गोलू ने सहर्ष अपने ऊपर ले लिया था। गोलू उसकी ख़ूब देखभाल करता था और सोनी उसे अपनी शरारतों से ख़ूब सताती थी। आज उस पर ख़तरे की घंटी देख गोलू फिर चौकन्ना हो गया और बिना विलम्ब किए एक सूखी डंडी तोड़ी और खींच कर दे मारी काली पर। काली को इस घात की आशा न थी। तड़ाक से डंडी चुभी आँख में और इससे पहले कि वह सँभलती, पाँव फिसला और गिरी नीचे धड़ाम . . .!!! 

“हाय मर गई . . . कमर टूट गई रे!” काली की चीख निकल गई। वह ज़मीन पर औंधी गिरी। न हिली न डुली। कुछ पल पड़़ी रही फिर झटके से उठी, पूरे शरीर को झनझनाया, गर्दन उठाई और आग उगलती आँखों से गोलू की ओर ऐसे देखा मानो उसे कच्चा चबा जाएगी। गोलू ने कोई प्रतिक्रिया न दी। इस झटके से सोनी की बंद आँख पूरी खुल गई और वह सीधी हो उसे घूरने लगी। 

नीचे काली सधे क़दमों से कुछ दूर चली। एक बार फिर रुककर ऊपर देखा और फिर सिर झुकाकर अपनी राह चलती बनी। पर जाते-जाते ऐसे घूर कर गई थी जैसे चेतावनी दे रही हो कि इस धोखे का बदला वह बहुत जल्द लेगी। 

सोनी मज़े में कूदने लगी। पर उसे अचानक याद आया कि वह तो रूठी हुई है। उसे ख़ुश नहीं होना चाहिए। अगर हो भी तो दिखाना नहीं चाहिए। दरअसल आज सुबह से यही हाल था। कारण? कारण यह कि कल शाम उसने गोलू से अपनी दबी इच्छा ज़ाहिर की थी कि वह उसकी पीठ पर बैठ कर जंगल जाना चाहती है। बहुत दिनों से उसके मन में यह इच्छा कुलबुला रही थी और आख़िर कर उसने गोलू को बता ही दिया था। गोलू ने पहले तो न नुकुर की लेकिन उसकी ज़िद के सामने हार मान ली थी और विवशता में हामी भी भर ली थी पर ऐन वक़्त पर किक्कू आ गया था और उसने गोलू को डरा धमका कर यह योजना रद्द कर दी थी कि कहीं अगर वह उसका भार न ढो सका और बीच में ही कहीं वह फिसल गई तो जान का ख़तरा भी हो सकता था। सुनकर गोलू भी डर गया था पर सोनी को किक्कू पर बड़ा ग़ुस्सा आया था और तब से वह मुँह फुलाए बैठी थी। गोलू से कट्टी कर खाना पीना छोड़ अनशन करती उलटी लटकी सोने का नाटक कर रही थी। 

गोलू से रहा न गया। प्यार से उसके पास आया और पीठ पर हाथ फेरा। वह छिटक कर दूर हो गई। 

“तुम मानती क्यों नहीं सोनी . . . बड़ी हो जाना फिर तुम ख़ुद देख लेना घूम-घाम कर पूरी दुनिया पर उसके लिए पहले बड़ी तो हो जाओ,” सोनी ने मुँह घुमा लिया। उसकी आँखों में आँसू भी आ गए। उसकी गोल–गोल मोती जैसी आँखों में आँसू देख गोलू का हृदय पिघल गया। वह उसकी आँखों में आँसू कैसे देख सकता था? मन मार कर सोचा, ‘चलो इसकी बात एक बार मान ही लेता हूँ। किक्कू बाहर गया है सो उसका डर नहीं। इसे पीठ पर बिठा कर कुछ दूर ही सही घुमा लाता हूँ। किक्कू के आने से पहले दोनों वापस आ जाएँगे और उसे कानो-कान भनक भी न पड़ेगी।’ 

“चल रानी . . . आजा . . . मेरी पीठ पर बैठ जा . . . आज तुझे मैं सैर पर ले ही चलता हूँ। अब तो खुश,” गोलू ने उसे देख प्यार से कहा। सोनी को पहले अपने कानों पर विश्वास न आया। फिर अगले ही क्षण जब बात समझ में आ गई तो ख़ुशी के मारे उछल कर उसकी पीठ पर चढ़ गई। 

“अरे अरे पहले पंख तो खोलने दे। पगली कहीं की। अगर ऐसे ही बैठ गई तो मैं कैसे उड़ूँगा? रुक . . . उतर नीचे।” 

गोलू ने फड़फड़ा कर पंख खोल लिए और सोनी उसकी पीठ पर चिपक कर बैठ गई। 

गोलू धीरे से उड़ा। यह सोनी के लिए पहला अनुभव था। ऊँचाई पर आते ही उस की जैसे साँस रुक गई। वह और ऊपर उड़ा। सोनी को लगा जैसे वह हवा में तैर रही है। खुला आसमान कितना विशाल . . . उसका मुँह खुला रह गया। वह कसकर बैठी हुई थी लेकिन डरी-डरी विस्मित सी। और फिर धीरे-धीरे वह और ऊँची उड़ान भरने लगा। वह आश्चर्य चकित होकर इधर-उधर गर्दन घुमाती देख रही थी। तेज़ हवा नाक से सर्र सर्र करती निकलती जा रही थी। कान गुर्र गुर्र बज रहे थे। होंठ फर्र फर्र फड़फड़ा रहे थे। साँस रुकी जा रही थी। ऊँचाई से सर घूमने लगा उसका। वह और देख न पाई। उसने आँख बंद कर ली। भय फिर भी न दूर हुआ। डरते-डरते फिर आँख खोली। अब तो कुछ दिखाई न दिया। वह और डर गई, “अरे आँखों को क्या हुआ? कुछ नज़र क्यों नहीं आ रहा?” सफ़ेद रूई के रेशे आँखों में घुसे जा रहे थे। वे छोटे-छोटे बादल थे जो पूरे आसमान में बिखरे हुए थे। सब धुँधला हो गया था। उसके प्राण सूखने लगे। वह अब और न सह सकी। वह तेज़-तेज़ चिल्लाती आँखें मलने लगी, “गोलू भैय्या नीचे . . . नीचे . . . नीचे . . . उतारो . . . चलो पेड़ पर वापस . . . बस . . . बस . . . अब बस।” अब तक तो वह कसकर बैठी थी लेकिन अब जैसे ही उसके हाथ गोलू की पीठ पर से उठ गए उसका संतुलन बिगड़ा और वह उसकी पीठ से फिसलती पलटियाँ मारती नीचे गिरने लगी। आगे क्या हुआ उसे पता न चला। उसकी सुध जा रही थी। पूरा शरीर ढीला हो गया था। वह बहुत नीचे आ चुकी थी। लेकिन अचानक लगा किसी ने उसको पकड़ लिया। पर वह तो होशो-हवास खो बैठी थी और उसे कुछ भान न रहा। अधमरी सी किसी के पंजे में क़ैद थी। 

उसने आधी खुली आँखों से देखा वह तो किक्कू था जिसने उसे लपक कर बीच में ही पकड़ लिया था। दरअसल किक्कू को सुबह से ही अंदेशा हो गया था कि गोलू और सोनी कोई न कोई ऐसा कांड अवश्य करेंगे क्योंकि वह थी उसकी लाड़ली और गोलू था नर्म दिल। इसीलिए वह आज भोजन के लिए दूर न गया था। उनके आस-पास ही मँडरा रहा था और जब उसने देखा कि गोलू उसे अपनी पीठ पर बैठा कर उड़ा चला जा रहा है तो वह भी उनके पीछे हो लिया था। किक्कू को देखकर सोनी के होश वापस आने लगे। साँस फिर चलने लगी। सोनी के पीठ से फिसलते ही गोलू बुरी तरह घबरा गया था। तेज़ी से वह भी नीचे आने लगा था। बीच में किक्कू को देख कर तो वह भौंचक्का सा रह गया लेकिन तभी उसके पंजों में जकड़ी सोनी को जब देखा तो उसकी जान में जान आ गई। तीनों अपने पेड़ तक पहुँचने ही वाले थे कि अब किक्कू की भी पकड़ ढीली पड़ी। वह सोनी का भार ढो न पाया। हाथ से वह फिसलने लगी और फिर से एक बार पलटियाँ खाती नीचे गिरने लगी। 

नीचे खुन्नस खाई दूर झाड़ियों में छिपी बैठी हुई काली ने यह दृश्य देखा। पहले तो समझ न सकी लेकिन जैसे ही माजरा समझ आया वह पूँछ उठाकर भागी उसी ओर। मौक़ा मिला उसे उनको मज़ा चखाने का। सोचा, बड़ा अकड़ रहा था। अब देख क्या करती हूँ। काली ने लपक कर सोनी को दबोचा और पलक झपकते ही चंपत हो गई। गोलू और किक्कू बुरी तरह घबरा गए। दिमाग़ सन्न . . . अब क्या करें। सोचने का समय नहीं था। बिना एक पल गँवाए दोनों सरपट काली के पीछे दौड़े और उस पर झपट पड़े। 

जान की भी परवाह न करते हुए वे दोनों उससे भिड़ गए। दोनों ने अपनी चोंच उसकी आँखों में घुसा दीं और उसकी दोनों आँखों को फोड़कर लहुलुहान कर दिया। काली उछलती दहाड़ती नुकीले दाँतों से उन पर हमला करने लगी लेकिन वे ऊपर से लपक-लपक कर वार कर रहे थे और यह पगली हाथ में फँसा शिकार न छोड़ना चाहती थी। इस घात-प्रतिघात में वह बुरी तरह से आहत हो गई और आँखों से ख़ून की धार बहने लगी। दर्द से कराहती अपने बचाव में वह बड़ी–बड़ी छलाँगे लगाने लगी और इस बीच सोनी उसकी गिरफ़्त से आज़ाद हो फ़ुर्ती से लुड़कती हुई पेड़ पर चढ़ गई। सब कुछ इतना झट-पट हुआ कि किसी को कुछ समझ न आया। गोलू और किक्कू ने जब देखा सोनी सुरक्षित ऊपर निकल गई है तो वे भी उछल कर ऊँची डाल पर उड़ गए और काली अजीब-ओ-ग़रीब आवाज़ें निकालती उछलती बिलखती हाथ पटकती फिर से झाड़ियों में घुस गई। 

डाल पर तीनों अपनी-अपनी जगह बैठे गए। सोनी अपराधी मुद्रा में सिकुड़ी सी थर-थर काँप रही थी। गोलू की आँखें झुकी हुई थीं। वह लंबी-लंबी साँस ले रहा था। किक्कू से आँख मिलाने में भी शर्म आ रही थी उसे। किक्कू ने बारी–बारी दोनों को देखा। कुछ पल शान्ति। आख़िर किक्कू ने ही मौन तोड़ा, “तो आज के करतब से क्या सीखा गोलू”? 

“यही कि हर काम सोच समझ कर करना चाहिए,” गोलू ने दबी आवाज़ में कहा। 

“और रानी तुमने?” 

“यही कि बड़ों का कहना हमेशा मानना चाहिए। अपनी बात मनवाने की ज़िद नहीं करनी चाहिए।” 

“चलो अच्छा हुआ। कुछ तो सीखा हमने। इसे कहते है जान बची तो लाखों पाए . . . समझे कुछ?” किक्कू हँस पड़ा। 

“लौट के बुद्धू घर को आए!” गोलू ने वाक्य पूरा किया। 

दोनों ने कान पकड़ कर किक्कू से माफ़ी माँगी और फिर किक्कू चला सबके लिए खाने का इंतज़ाम करने। 

आख़िर इस पूरी कसरत के बाद भूख भी ज़ोर की जो लगने लगी थी . . . तीनों को। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

बाल साहित्य कहानी
पुस्तक समीक्षा
लघुकथा
साहित्यिक आलेख
चिन्तन
कहानी
सांस्कृतिक आलेख
सांस्कृतिक कथा
स्मृति लेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सामाजिक आलेख
यात्रा-संस्मरण
किशोर साहित्य कहानी
ऐतिहासिक
रचना समीक्षा
शोध निबन्ध
सिनेमा और साहित्य
विडियो
ऑडियो