छत्रछाया
डॉ. पद्मावती
“बावली है तू बावली! इत्ती बड़ी अधिकारी रिक्शे में जाएगी? अरे कार में जा तू तो कार में। और तू है कि ज़िद पर अड़ी है? दिमाग़ तो ठीक है तेरा? लोग क्या सोचेंगे ये सोच कि मैडम जी टूटे-फूटे रिक्शे में? और . . . इन मैडम का बाप रिक्शे वाला? छि . . . छि . . . न . . . न। मैं न ले जाऊँगा तुझे। जा तू किसी और के रिक्शे में।”
रघु भी ज़िद पर आ गया। मीरा का आज नौकरी का पहला दिन था और वह पिता के रिक्शे में ऑफ़िस जाने की ज़िद कर रही थी। बिन माँ की बच्ची। रघु ही तो माँ-बाप था उसका। जितनी लाड़ली उतनी होनहार।
“हाँ बाबा। तू ठीक कह रहा है। लोगों को पता चलना चाहिए कि इसी टूटे-फूटे रिक्शे ने मुझे यहाँ तक पहुँचाया पढ़ा-लिखा कर। और मैं तो तेरे रिक्शे में ही जाऊँगी। और एक बात सुन ले बापू—यह तेरा आख़िरी दिन होगा रिक्शा चलाने का। समझे?” मीरा में झुक कर पिता के चरण छुए।
“न बेटा . . . तू मेरा हाथ छीन रही है? मैं अपना काम न छोड़ूँगा। न। पर तेरी ज़िद तो बिल्कुल ठीक नहीं,” रघु का मन मान न रहा था। पर जानता था कि मीरा न मानेगी।
“चल जैसा तू कहे . . . तेरी मर्ज़ी। छतरी ले ले। धूप बहुत है। काम पर पसीने से लथपथ अच्छा न लगेगा। समझी,” रघु ने रिक्शा निकाल लिया।
मीरा उछल कर रिक्शे पर बैठ गई। रघु ने पैडल पर पाँव मारा। सर पर अचानक छाया लगी। समझ आया कि छतरी मीरा के सर पर नहीं, बल्कि उसके सर पर है।
“अब ये क्या? छतरी मेरी ओर क्यों? क्या मैं पहली बार चला रहा हूँ?” वह ग़ुस्से से बरस पड़ा।
“नहीं बापू, पता है पता है। ग़ुस्सा नहीं। अच्छे बच्चे ग़ुस्सा नहीं करते। आज तक मैं तेरी छाया में थी . . . है न? और आज से तू मेरी छाया में है। और यह भी बता दूँ कि जब तक बापू तू ठीक समझें तब तक काम कर लीजो। मैं मना न करूँगी। पर तुझे भी आज से मेरी हर बात माननी होगी। समझे?
रघु की छाती चौड़ी हो गई और आँखें नम। डबडबाई आँखों से एकटक अपनी लाड़ली को देखने लगा। सोचा, कितनी बड़ी हो गई है मेरी बच्ची।
“अब देख क्या रहे हैं रिक्शे वाले जी?” मीरा मुस्कुरा कर बोली, “मेरे बापू ने मुझे सिखाया है कि काम में देर न होनी चाहिए। जल्दी चलिए अब,” वह खिलखिला उठी।
“चल हट पगली।”
रघु ने पसीना पोंछा और रिक्शा तेज़ भागने लगा।
1 टिप्पणियाँ
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दिल छू लेने वाली छोटी सी कहानी में पिता-बेटी का एक दूसरे के लिए झलकता असीम प्यार। साधुवाद!