अंतिम सिंगार
डॉ. पद्मावती
उसका पूरा जीवन समर्पण था, परिवार के प्रति। जब तक पति थे बहुत मान-सम्मान से गुज़रा था जीवन। न माथे से कभी सिंदूर धुँधला होता न कभी जूड़े की वेणी मुरझाती। सत्तर की उम्र में भी नई-नवेली दुलहन की तरह उजली साफ़-सुथरी रहती।
बेटे व बहुएँ बहुत मान करती थी।
पति की मृत्यु हुई तो लगा सब कुछ चला गया।
जिस परिवार को पसीने से सींचा था आज उनके लिए वह बोझ बन गई थी।
कुछ महीनों से उन पर दबाव डाला जा रहा था कि मकान बेटों के नाम कर दे।
“देखो बेटा, कहती हूँ यह घर तुम्हारा ही तो है लेकिन जब तक ज़िंदा हूँ तब तक तो . . .”
“नहीं माँ, तुम समझती क्यों नहीं? वसीयत पर हस्ताक्षर कर दो माँ, समझो हमारी ज़रूरत। हम इसे बेचकर फ़्लैट ख़रीदना चाहते हैं . . . दोनों अलग-अलग। अब यह पुराना घर हमारे काम का नहीं है और तुम हो कि समझ ही नहीं रही हो।”
उस दिन झगड़ा बहुत बढ़ गया और ग़ुस्से में बड़े ने हाथ उठा दिया। धक्का ऐसा लगा कि वह दीवार से जा टकराई। सर पर गहरी चोट आई। होश खो बैठी।
हस्ताक्षर हो गए।
डॉक्टर ने सर्टिफ़िकेट दे दिया कि “स्नान घर में गिरने से श्रीमती श्यामली देवी की मृत्यु हो गई।”
अब अन्तिम विदाई थी। अर्थी का साज-सिंगार किया जा रहा था। मृत्यु का शृंगार। फूलों से लाद दिया गया। दोनों बेटों ने दिल खोल कर ख़र्च किया। न भूतो न भविष्यति। हर देखने वाला कह उठा “संतान हो तो ऐसी”!
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