तिरुप्पावै

01-04-2024

तिरुप्पावै

डॉ. पद्मावती (अंक: 250, अप्रैल प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

तमिल संगम साहित्य की अनमोल धरोहर ‘तिरुप्पावै’ भक्ति ज्ञान दर्शन की त्रिवेणी से आप्लावित आध्यात्मिक ग्रंथ है जिसका साहित्यिक उपादान और सर्वकालिक प्रासंगिकता स्वतः सिद्ध है। अप्राचीन द्रविड़ संस्कृति में भक्ति का उदय ईसा की तीसरी चौथी शती में ही पाया जाता है जिसे ‘संगम काल’ की संज्ञा दी गई है। ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार इस समय में यहाँ भागवत धर्म अपने उत्कर्ष में था जिसमें आळवार और नायनमार भक्त संतों का अविस्मरणीय योगदान रहा। महादेव शिव की उपासना करने वाले ‘नायनमार’ कहलाए, जिनकी संख्या चौंसठ थी और इनके द्वारा रचित गीति ग्रंथ ‘तेवारम’ कहलाया। विष्णु उपासक ‘आळवार’ के नाम से जाने गए जो संख्या में द्वादश थे और उनका भक्ति साहित्य ‘दिव्य प्रबंधम’ के नाम से अभिहित था जिनमें ‘तिरुप्पावै’ ग्रंथ की रचयिता श्री आंडाल एकमात्र स्त्री थी जिनकी रचना में अध्यात्म और भक्ति का सुंदर समन्वय पाया जाता है। दक्षिण भारतीय साहित्य में भक्ति की ज्ञान गंगा नवीं शताब्दी तक अविच्छिन्न प्रवाहित होती रही जहाँ प्रपत्ति का आश्रय लेकर मानव साक्षेप समाजोन्मुखी साहित्य की रचना की गई। यह साहित्य का स्वर्णिम काल माना जाता है। ईश्वरीय प्रेम से रसासिक्त ज्ञान प्रज्ञा को अपनी गीति मालिकाओं में सहज सरल शैली में अभिव्यक्त करना ही इन संतों का अभीष्ट रहा। भक्ति और प्रेम का अंतर्संबंध भारतीय चिंतनधारा का मूलभूत आधार स्तंभ रहा है। इस काल के काव्य का अनुपम दार्शनिक चिंतन आत्मगत चेतना को साकार कर मानव मन की वृत्तियों को ऊर्ध्व क्षितिज पर ले जाता हुआ ईश साक्षात्कार में प्रवृत्त करता है। यह साहित्य गीति शैली को लेकर चला है जो सहज संप्रषणीय बन चेतना पर तीव्र और स्थायी प्रभाव डालने में सक्षम है। 

इसी संदर्भ में भक्त शिरोमणि आंडाल द्वारा रचित ‘तिरुप्पावै’ पर अगर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि प्रांजल भाषा में रची तीस गीत मालिकाएँ अपने में गहन गूढ़ार्थ को सँजोए चलती हैं। प्रात: स्मरणीय श्री आंडाल जो “भूदेवी” का ही प्रतिरूप मानी जाती हैं, श्री कृष्ण की अनन्य उपासिका थीं। एक किंवदंती के अनुसार श्रीरंगम (तिरुचिरापल्ली) के पुरोहित श्री पेरीयआलवार विष्णुजित्त जी को यह स्वयंभू कन्या तुलसी की झाड़ के नीचे पाईं गई थी जिसको श्री महाविष्णु का प्रसाद मानकर उन्होंने पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया था और नाम दिया “गोदा” जो आंडाल के नाम से प्रख्यात हुआ। पिता हर दिन श्रीरंगनाथ भगवान को तुलसी की पुष्पमाला समर्पित करते थे। बालिका गोदा बचपन से ही कृष्ण की उपासिका थी। उन्होंने भगवान रंगनाथ को अपना सर्वस्व मान लिया था। हर दिन तुलसी माला पिरोने का कार्य अब आंडाल स्वयं अपने हाथों से करने लगी थी। लेकिन पहले वे स्वयं माला धारण कर लेती और उसकी सुंदरता को भली भाँति परख लेने के पश्चात अपने पिता को सौंप देती। एक दिन मंदिर में मुख्य पुरोहित ने भगवान का अलंकार करते समय माला में स्त्री का केश देखा और क्रोधित होकर पेरीय आलवार से इस विषय में जानना चाहा। पता चला कि यह तो गोदा की करामात है। गोदा को सज़ा देने का फ़ैसला किया गया और कहा जाता है पेरीय आलवार से यह तुलसी सेवा छीन ली गई। लेकिन फिर यह चमत्कार हुआ कि उसके बाद भगवान रंगनाथ के ऊपर कभी तुलसी माला न टिक सकी। भगवान की प्रतिमा ने किसी माला को स्वीकार न किया। जो भी माला चढ़ती मिनटों में टूट कर गिर जाती। पुरोहित अचम्भे में पड़ गए। असमंजस की स्थिति। उन्हें अपनी ग़लती समझ में आई और भगवान से क्षमायाचना की। गोदा की भक्ति का संज्ञान पा उसे स्वयं अपने हाथों से श्री रंगनाथ की सेवा निमित्त मंदिर में आमंत्रित किया गया और माना जाता है कि भक्ति की पराकाष्ठा का प्रतिरूप गोदा अश्रुपूरित नेत्रों से मंदिर पहुँची और सशरीर श्री रंगनाथ की प्रतिमा में एक्य हो गई थी। 

श्री कृष्ण की भक्ति में आपाद मस्तक मग्न इस मुक्ता मणि ने तीस ‘पासुरमों’ (गीतों) में प्रेम और भक्ति का विशद विवेचन प्रस्तुत किया है जिसे “तिरुप्पावै”कहा जाता है। इस तिरुप्पावै में गोदा श्री कृष्ण को पति के रूप में प्राप्त करने हेतु तीस दिनों के व्रत का अनुष्ठान करती है। यह व्रत परम पावन मार्गशीर्ष मास में किया जाता है। श्री कृष्ण मंत्र का जप करती हुई गोदा स्वयं गोपिका बन जाती है और उसे उस स्थान में उसे ब्रज की प्रतीति होने लगती है। गाय, गोपाल, यमुना, गोवर्धन सब गोदा के सामने साकार रूप ग्रहण कर लेते हैं। सब कृष्णमय हो जाता है। सूर्योदय से पहले स्वयं जगकर हर दिन एक गोपी को अर्थात् एक शक्ति को जगाना ही इस व्रत का लक्ष्य है और गोदा इन सरस गीतों में श्री कृष्ण की लीलाओं का गान करती हुई उन्हें जगाती है और इस व्रत में सम्मिलित होने का आग्रह करती है क्योंकि “शक्ति” के अनुग्रह के बिना “परम तत्त्व” की प्राप्ति असम्भव है। लौकिक अर्थ में देखा जाए तो इन तीस गीतों में प्रकृति, पर्यावरण, पंचभूत की पूजा पोषण व संरक्षण का विधान परिलक्षित होता है। लेकिन इन छुटपुट गीतों में गूढ़ साधना की तीस परतें छिपीं हुईं हैं। तीस दिनों की साधना . . . तीस गीतों का अवलम्ब। साधना की चरमावस्था—ईश से एकाकार। अनन्य भक्ति का परम लक्ष्य। यह यात्रा आध्यात्मिक यात्रा है जहाँ लौकिक उपादानों को आधार बना कर पार्थिव जगत से पारलौकिक जगत तक साधक पहुँच जाता है। प्रेम की उदात्त परिणति ‘तिरुप्पावै’—अध्यात्म और दर्शन का एकीकृत संश्लिष्ट रूप है। इस काव्य की एकांतिक विशेषता एक यह भी है कि यह स्वांत सुखाय होता हुआ भी लोक संपृक्त समाज साक्षेप प्रस्तुति है जो एक भक्त हृदय द्वारा ही सम्भव है। 

इन गीत मालिकाओं की विलक्षण विशेषता है कि अपने शाब्दिक अर्थ से अलग इनमें व्यंजित गूढ़ार्थ गहन दार्शनिकता का आधार है। यह एक ऐसी दार्शनिक साधना है जो हर दिन एक नए स्तर पर पहुँचती है। गोदा का हर दिन एक गोपी को जगाना-साधक पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पंच कर्मेन्द्रियों को संयमित कर मन बुद्धि चित्त अहंकार को लाँघ, षड्विकारों पर विजय प्राप्त कर षड्चक्रों को नियंत्रित करता ऊर्ध्व गति को शनैः शनैः प्राप्त होता है। हर गोपी एक प्रतीकात्मक बिंब है। सहस्रार पर पहुँच साधक को ईश साक्षात्कार प्राप्त हो जाता है। सविकल्प समाधि से निर्विकल्प समाधि की ओर गमन। जहाँ सब इच्छाएँ और कामनाएँ भस्म हो जाती है। और गोदा अपने अंतिम गीत में स्वयं भगवान से एक्य हो जाती है। समाधि की चरमावस्था। द्वैत से अद्वैत की अनुभूति। साधक का साध्य में एकाकार हो जाना। साधना की चरम परिणति। लौकिक उपादानों से पारलौकिक आनंद की अनुभूति। सरल शब्दों में ये गीत मानव कल्याण हेतु किए गए व्रत अनुष्ठान को दर्शाते हैं और दार्शनिकता में अध्यात्म की चरम उपलब्धि का सोपान बन जाते हैं। यही इन गीतों का सौंदर्य है जो भक्त पिपासु ही जान सकता है, अनुभूत कर सकता है। 

3 टिप्पणियाँ

  • आपका यह सधा हुआ, भाव और बुद्धि दोनों स्तरों पर मन को बाँधने वाला लेख पढ़ कर अत्यंत प्रसन्नता हुई। अगर संभव हो तो आप "तिरुप्पावे" से दो -तीन गीतों का अनुवाद भी प्रस्तुत कर सकें तो हम हिन्दी भाषी आपके कृतज्ञ होंगे।

  • डाॅ पदमावती दवारा तिरूपपावे का विसतार से वर्णन किया गया है। उनका यह उत्कृष्ठ शोधपरख लेख है।बडे ही अध्ययन मनन से गोदा देवी भक्त शिरोमणी आंडाल की अनुपम रंगनाथ की भक्ति पर आधारित है।आडाल को दक्षिण की मीरा नाम से भी जाना जाता है। आलवार के 12 संतो मे एकमात्र नारी संत भक्त है।आडाल पर ही तिरूपावे आधारित है।उनकी जन्मस्थली श्रीवललीपुतुर है।रंगनाथ की अनन्य भक्त आलवारो के सभी संतो से श्रेष्ठ है। लेखिका के इस लेख उत्तर भारतीय भी जान सकेगे।और आडाल के इस ग्रंथ कौ पढकर अपने जीवन को धन्य बना पायैगे। हिदी इस लेख का आना हर्ष की बात है।बहूत बधाई।

  • दक्षिण की संस्कृति इतनी सधी हिंदी में मिलती है तो भारतीय चिन्तन को एक नया आयाम मिलता है। कौन करता है ऐसा लेखनl हिंदी में ? दूजा कोई और नहीं यदि कहीं हो भी तो पुरजोर ढंग से उजागर नहीं। इस लेखन को प्रशस्ति पूर्ण अभिव्यक्ति।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

बाल साहित्य कहानी
कहानी
सांस्कृतिक आलेख
लघुकथा
सांस्कृतिक कथा
स्मृति लेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सामाजिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
यात्रा-संस्मरण
किशोर साहित्य कहानी
ऐतिहासिक
साहित्यिक आलेख
रचना समीक्षा
शोध निबन्ध
चिन्तन
सिनेमा और साहित्य
विडियो
ऑडियो