समकाल के नेपथ्य में: सत्यान्वेषण की वैचारिक यात्रा
डॉ. पद्मावती
समीक्षित पुस्तक: समकाल के नेपथ्य में (निबन्ध संग्रह)
लेखिका: डॉ. शोभा जैन
प्रकाशन वर्ष: 2021
प्रकाशक: भावना प्रकाशन, 109,पटपड़गंज, नई दिल्ली -110091
मूल्य: ₹275/-
साहित्य और पत्रकारिता की नवोदित लेखिका डॉ. शोभा जैन का सत्यान्वेषी वैचारिक चिंतन है ‘समकाल के नेपथ्य में’ जिसमें लेखिका ने समाज, साहित्य, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और अतीत के विभिन्न बिंदुओं को समेटते हुए समकाल की मानवीय पीड़ा और उसकी समष्टिगत समस्याओं को लक्षित कर अपनी सृजनात्मक क्षमता के आलोक में उन प्रश्नों के हल ढूँढ़ने का प्रयास किया है जिन्होंने उनके मानस को उद्वेलित करके उनके चिंतन को एक रचनात्मक दिशा दी है, एक ठोस धरातल दिया है। भूमिका में ही लेखिका यह स्पष्ट कर देती है कि यह कृति उनके सृजन का प्रथम अनुष्ठान है और उनके लेखकीय भविष्य का ‘बीज’। पुस्तक में संकलित 55 निबंधों को पढ़ कर पाठक को तत्क्षण यह अनुभूति हो जाती है कि लेखिका की चिंतन दृष्टि वर्तमान के प्रति संवेदनशील है और भविष्य के प्रति चिंतित। यह लेखकीय अनुष्ठान उनकी सूक्ष्म अंतर्दृष्टि और गहन अध्ययन का परिचय तो देता ही है साथ-साथ उनकी शोधपरक मनोवृत्ति को भी उजागर करता है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि कृति के निबंधों में कुशल शब्द संयोजन से निर्मित विश्लेषणात्मक रचनाधर्मिता पाठक की चिंतन धारा पर गहरा प्रभाव डालती है।
समीक्ष्य कृति में व्याख्यायित जीवन सापेक्ष वैचारिक अंतःसलिला ने समाज के व्यापक संदर्भ में उन ज्वलनशील मुद्दों को अपने अंतर में समेटा है जिनकी सुगबुगाहट समकाल में मनुष्य को मथ रही है, उसे खोखला बना रही है। उसकी कसक उसकी छटपटाहट ने कई प्रश्नों को जन्म दिया है जिन्होंने कई संभावनाओं को भी इंगित किया है। चाहे फिर वह व्यवस्था हो या प्रशासन, शिक्षा हो या साहित्य लेखिका की संवेदनशीलता ने गंभीर प्रश्न ही नहीं उठाए है बल्कि तार्किक निष्पत्ति को देते हुए पूरी सच्चाई ईमानदारी और निर्भीकता के साथ सार्थक विकल्पों को पाठक के सम्मुख अनावृत किया है। लेखिका परिवेश के प्रति सजग है। इसी कारण समकाल के नेपथ्य में व्याप्त विषमताओं और विसंगतियों से वे अनभिज्ञ नहीं रह सकती थी। इसीलिए वे स्पष्ट रूप से स्वीकार करती हैं कि लेखन शौक़ से नहीं, विवशता से ही जन्मता है। और यही कारण है कि समकालीन जीवन और समाज के सभी परिदृश्यों को समेटते हुए इनके निबंध सामाजिक सरोकार और युग संपृक्तताको सँजो कर चलते हैं। पुस्तक का हर एक निबंध एक गंभीर प्रश्न उठाता है जिसकी व्याख्या में पारम्परिक चिंतन के साथ-साथ आधुनिक प्रगतिशील विचारधारा को भी पर्याप्त विस्तार मिला है। निबंधों में जिन प्रश्नों पर चिंतन हुआ है उन्हें मुख्य रूप से तीन बिंदुओं में देखा सकता है जैसे हिंदी साहित्य, हिंदी भाषा और उसका वैश्विक परिदृश्य तथा व्यवस्था और प्रशासन।
अधुनातन परिदृश्य और अर्वाचीन संदर्भों से सम्बंधित निबंधों में समाज की दोहरी मानसिकता के चक्रव्यूह में उपभोक्तावादी बाज़ार की संस्कृति हो या वैश्विक अर्थ व्यवस्था के एकीकरण में लोकतंत्र का समाज शास्त्र, लेखों की भाषा पैनी और धारदार बनकर तीखे प्रश्नों को पाठक के सामने उपस्थित करती है, विचारात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करती है। हर निबंध गहन गवेष्णात्मक मनन से अनुस्यूत विचार शक्ति की छटपटाहट सा दिखता है। कुछ लेखों को अगर लिया जाए तो ‘लकीरें है जो मिटती नहीं’ निबंध में जहाँ 21वीं सदी की चुनौतियों को संदर्भ कर भारत की अर्थव्यवस्था रूपी मेरुदण्ड कृषि व्यवस्था को लक्षित करके उसके विघटन और पतन पर चिंता व्यक्त हुई है वहीं कुत्सित राज नैतिक स्वार्थों से प्रेरित हाल ही में सम्पन्न किसान आंदोलन पर भी सारगर्भित चर्चा की गई है। इतना ही नहीं कोरोना महामारी से पीड़ित मानवता की त्रस्त छवि पर भद्दे षड़्यंत्र रचती अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही वैश्विक साज़िश से उपजी अमानवीकरण तथा अवमूल्यन की बीभत्सता को कटघरे में खड़ा कर छीछालेदार उक्तियों से व्यवस्था पर प्रहार किया गया है। अपराधों के रंगों में रँगती राजधानी और साम्प्रदायिक दंगों में शिक्षित समाज की तटस्थता के कारण घटनाओं के राजनीतिकरण के चित्रण में लेखिका के शब्द बारूद उगलते हैं। कोरोना काल के वैश्विक संकट से जूझते आम आदमी की पीड़ा को समझने में असफल हृदयहीन व्यवस्था की उपेक्षा के मार्मिक चित्रण को पढ़कर पाठक का अंतःकरण यह कह उठता है कि ‘बात पसीना बहाने की नहीं, आँसू बहाने की है’। शिक्षा के सर्वांगीण विकास की सरकारी रिपोर्ट पर भी लेखिका प्रश्न चिह्न उठाती है कि ‘डिजिटल साक्षरता के लिए कितना तैयार है भारत’? समकाल में महामारी के वरदान स्वरूप उपजी ऑनलाइन शिक्षा के अधूरेपन की रिक्तता को देखकर पाठक यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि क्या हम सच में डिजिटल युग में जी रहे है या यह केवल एक जुमला मात्र बना कर हम पर थोप दिया गया है? ग्रामीण भारत में जहाँ बिजली की सुविधा आज भी प्रश्न चिह्न बनी हुई है वहाँ ऑनलाइन शिक्षा क्या तर्क संगत मानी जा सकती है’? यह निबंध ऐसे कई गंभीर प्रश्नों पर सार्थक विकल्प सुझाता हुआ चलता है। सिद्धांतों का व्यापार करती अर्थ-तंत्र के इर्द-गिर्द घूमती हुई शिक्षण संस्थाओं से प्रश्न करता हुआ लेख है ‘शिक्षकों का स्थान माइक्रो साधन ले सकेंगे कभी’। ‘विभाजन की चुनौतियाँ अभी शेष’ लेख में विघटन की विभीषिका के दुष्परिणामों का दर्दनाक चित्र उकेरा गया है। जेहादी मानसिकता और मज़हबी कट्टरता को लेखिका वैश्विक महामारी समझती है और इन बुनियादी समस्याओं से नजात पाने के मूल में वे एक कर्तव्यनिष्ठ प्रतिबद्ध लोकतंत्र की कामना करती है। ‘कॉर्पोरट सत्ता के नए आयामों’ में लेखिका उन व्यवस्थाओं की ओर इंगित करती है जो नागरिक स्वतंत्रताओं और मानवाधिकारों को हनन करने का साधन बनती जा रही है। हर निबंध सत्ता की कमियों से उपजी विसंगतियों को खंगालता हुआ गम्भीर मुठभेड़ करता हुआ चलता है। समकाल में फैली हुई अराजकता, असहमति, विरोध, विद्रोह, आत्मकेंद्रित नौकरशाह और राजनैतिक पैंतरे, हिंदी के भूमण्डलीकरण का सवाल या अंग्रेज़ी शिक्षा प्रणाली के गुण-दोष हो या फिर अर्वाचीन संदर्भ में गुणवत्ता के पैमानों को लेकर छात्र-वर्ग मैं फैला तनाव हो, हर एक क्षेत्र चाहे वो शिक्षा हो, या धर्म, राजनीति या साहित्य और भाषा, एक भी कोना लेखिका की पैनी दृष्टि से अछूता नहीं रह पाया है। राजनैतिक चालों का शिकार बनी हिंदी की दशा और दिशा तथा भाषा के उन्नयन और प्रतिष्ठापन में स्वार्थपूरित संकीर्ण अवधारणाओं का खंडन कर नवीन विचारधाराओं को स्थापित करने का प्रयास ‘आत्म निर्भर भारत में हिंदी का भविष्य’ लेख में दृष्टव्य है। इन सभी प्रश्नों को तर्कों द्वारा तथ्यात्मक प्रामाणिक सूत्रों से व्यवस्थित शोध के आधार पर प्रस्तुत कर लेखिका ने अपनी सूक्ष्म वैचारिक चिंतन का प्रमाण प्रस्तुत किया है। निबंधों को पढ़कर लगता है कि लेखिका को सांस्कृतिक और सामाजिक पक्षों की गहरी पकड़ है।
नारी दुर्दशा और उत्पीड़न के मुद्दे को लेकर लेखिका प्रश्न उठाती है कि ‘अपराधों को आख़िर कौन सा हस्तक्षेप विराम देगा’? वर्तमान संदर्भ में मनुस्मृति को ख़ारिज करती हुई वे कहती हैं कि आज अगर हमारे देश में कोई सबसे अधिक उपेक्षित और प्रताड़ित है तो वह है नारी। नेशनल क्राइम रिपोर्ट में दर्ज अपराधों के आँकड़ों को प्रमाण स्वरूप देती हुई लेखिका गुहार लगाती है कि नारी को अपनी आत्म रक्षा की ज़िम्मेदारी स्वयं उठानी होगी। यही एक विकल्प है अपराधों को कम करने का। इन भावोत्तेजक लेखों में नारी शोषण का कोई भी पहलू लेखिका की दृष्टि से अछूता नहीं रहा। नारी स्वातंत्र्य से सम्बंधित इन निबंधों में महिलाओं के प्रति समाज की विकृत मानसिकता, दोहरे मानदण्ड, किताबों में दम तोड़ते हुए क़ानून और नारी की अस्मिता के भक्षकों की धुआँधार भर्त्सना में लेखिका की क़लम आग उगलने लगती है। समकाल में नारी के प्रति बढ़ते हुए अपराधों का लेखा-जोखा प्रस्तुत कर बड़े ही कठोर शब्दों में उसका खंडन भी किया गया है। लेखिका नारी स्वतंत्रता की पैरवी ही नहीं करती बल्कि नारी की ‘सुरक्षित स्वतन्त्रता’ की कामना भी करती है।
साहित्यिक संदर्भों से संबद्ध निबंधों को देखा जाए तो लेखिका समकालीन चेतना को साहित्य के मूल्यांकन की कसौटी मानती है। लेखिका की दृष्टि में काल-बोध से संपन्न लेखन ही कवि को कालजयी बनाने में सक्षम होता है। तभी रचना का प्रभाव चिरकालिक और शाश्वत बन जाता है। लेकिन यहाँ पर भी उनका चिंतन आज के पुरस्काराकांक्षी साहित्यकारों की रचनाधर्मिता पर सवाल उठाता है जिनमें आत्म द्वंद्व से उद्भूत सामाजिक सरोकार व प्रतिबद्धताओं का वह वास्ता नहीं जो निराला और मुक्तिबोध की कविताओं में परिलक्षित हुआ करता था। लेखिका समकाल के ऐसे साहित्यिक परिदृश्य पर भी क्षोभ व्यक्त करती है जहाँ महिमामंडन और पुरस्कारों की चकाचौंध से ग्रस्त साहित्यकार शब्द संपन्न्ता और अर्थ गांभीर्य से वंचित हो रहा है और वहीं साहित्य अनुभव रस से। साहित्य में मॉबलीचिंग निबंध में लेखिका उन सभी शर्मसार स्थितियों पर से पर्दा उघेड़ती है जहाँ बाज़ारवाद से प्रेरित पुस्तक बाज़ार है, सत्य व नैतिकता का दम तोड़ते हुए संस्कारहीन प्रकाशक है, आत्म प्रशंसक लेखक है और जहाँ उत्कृष्ट साहित्य की कसौटी गुणवत्ता न होकर आद्यतन मात्रा बन गई है।
इतिहास में दर्ज हो चुकी भारतीय सभ्यता, संस्कृति, भाषा, साहित्य, कला का पुनर्सृजन भी लेखिका का अभीष्ट रहा है। यहाँ एक और रोचक बात यह कि है हर निबंध का आरंभ किसी न किसी प्रसिद्ध भारतीय व विदेशी साहित्यकार या दार्शनिक के उद्धरण से होता है जो इनकी पठनीयता को और भी आकर्षक बना देता है। कृति में देशज मेधा, पारम्परिक कौशल, लोक चेतना, सांस्कृतिक पर्व, ओशो दर्शन, हिंदी के प्रतिष्ठित लेखकों के जीवन दर्शन इत्यादि सकारात्मक पहलुओं पर भी लेखिका की क़लम चली है। पुस्तक का अंतिम लेख युद्ध के विस्फोटक परिणामों को निरस्त कर भारत की महान संत परम्परा और अहिंसा दर्शन के ‘उजाले में हर अंधेरे’ को तब्दील करने का विकल्प उपस्थित करता है। इसी संदर्भ में आतंकवाद की अंतरराष्ट्रीय समस्या पर विजय प्राप्त करने के लिए किए जाने वाले प्रयासों के सार्थक विकल्पों पर भी सार गर्भित चर्चा की गई है।
पुस्तक में भाषा विमर्श से संबंधित निबंध भी काफ़ी कारगर प्रश्नों को लेकर चले हैं। हिंदी साहित्य के युग पुरुष रामविलास शर्मा की मार्क्सवादी दृष्टि को रेखांकित करते हुए भाषा चिंतन के विविध पहलुओं पर शोधपरक विस्तृत और तथ्यात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। वहीं सुप्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम के व्यक्तित्व में जो साहस था, सामाजिक वर्जनाओं के विरुद्ध उनमें जो विद्रोही भावना थी उस जीवन दर्शन को मनोवैज्ञानिक धरातल पर अभिव्यक्ति मिली है।
निराशा और नकारात्मकता के गहन अंधकार से घिरे समकाल में लेखिका ने अपने चिंतन को पूरी सच्चाई के साथ निर्भीकता से प्रस्तुत किया है। प्रवाहमयी भाषा ओजपूर्ण वाणी ने उनके बौद्धिक चिंतन को और भी विलक्षण बना दिया है। कही-कहीं पर अनावश्यक विस्तार भी देखा गया है लेकिन भावों की गहराई में उसे अनदेखा किया जा सकता है। जीवंत प्रांजल भाषा और कलात्मक घनत्व ने भावाभिव्यक्ति में चार चाँद लगा दिए है। भाववक्रता और अलंकारिक शब्दावली ने कहीं-कहीं बोधगम्यता पर प्रहार भी किया है लेकिन लेखिका ने अपने कलात्मक उत्कर्ष के औचित्य की पुष्टि आरंभ में डॉ. रमेश दवे के उद्धरण से ही कर दी है कि ‘भाषा साहित्य में आविष्कृत होती है’। लेखिका हिंदी साहित्य के पाठक गण से श्रेष्ठता और गंभीरता की अपेक्षा रखती है। यह वैचारिक अवगुम्फन पाठक से गहन बौद्धिक परिपक्वता की माँग करता है। आशा है यह कृति भाषा और अर्थ गाम्भीर्य के कारण परिपक्व पाठकों की प्रशंसा अवश्य प्राप्त करेगी। चिंतनशील पाठकों के लिए यह पुस्तक अवश्य संग्रहणीय है।
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