स्मृतियों के आग़ोश में 

01-06-2024

स्मृतियों के आग़ोश में 

डॉ. पद्मावती (अंक: 254, जून प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

भविष्य सपना है तो अतीत स्मृति और वर्तमान यथार्थ। यथार्थ रुचिकर तब लगता है जब यह बीतकर अतीत बन जाता है। हम या तो स्मृतियों में जीना चाहते हैं या सपनों में। अदृष्ट सुखद कल्पना है तो अतीत सुखद स्मृति। 

आगे पढ़िए एक कहानी . . .

 

आज आभा दीदी की बेटी सीमा आई थी सुबह घर अपनी बच्ची मुन्नी को लेकर। बेचारी . . . बड़ी उदास थी मुन्नी। 

दुनिया की सताई . . . न . . . न . . . माँ–बाप की सताई। चौथी कक्षा में पढ़ रही ग्यारह वर्षीय मुन्नी जाना चाहती थी अपनी सहेलियों के साथ पिकनिक स्कूल से पर मना कर दिया था दामाद जी ने तो कर ली थी मम्मी-डैडी से कट्टी और खाना-पीना त्याग कर बैठी थी अनशन पर वह बाल-पीड़िता। 

आई थी दुःखी मन अपना दुखड़ा सुनाने, अपनी माँ-पापा की शिकायत करने। मैं मौसी हूँ उसकी माँ की। पर मज़ा तो तब आता है जब मुन्नी भी मुझे कल्याणी मौसी ही कहकर पुकारती है। दो पीढ़ियों की मौसी। वैसे हूँ ही पूरे परिवार की मौसी; सब बच्चों की प्रिय मौसी। किसी पर भी इस तरह का कोई संकट आता है तो बच्चों को लेकर सीधा आ जाता है समाधान के लिए। बच्चे ख़ूब सुनते जो हैं मेरी। ख़ूब पटती है बच्चों से। सो सीमा आ तो गई थी पर अब सुरसा की तरह मुँह खोले सामने समस्या यह है कि मुन्नी को मनाना है . . . पर कैसे? 

मुन्नी ग़ुस्से में है। अबोध उम्र और आहत मन। संबंधों का मूल्य तब पता चलता है जब वे खो जाते हैं। मुन्नी को यह समझाना होगा। क्या अबोध उम्र समझ पाएगी। समझाना तो पड़ेगा ही। पर एक बात तो है—वो समझे या न समझे . . . मैं आज फिर एक बार फिर बच्ची बन गई . . . ग्यारह बारह साल की अबोध बच्ची बना गई मुन्नी मुझे। याद आ गया पुराना अनुभव, पर इतना भी पुराना नहीं कि भूल गया सब कुछ। भले ही समय मुठ्ठी में रेत की तरह फिसल गया और देखते-देखते जीवन का आख़िरी आश्रम भी आ गया लेकिन भूला तो कुछ नहीं। कहते हैं विस्मृति वरदान होती है। होनी चाहिए। तंत्र प्रबंधन सृष्टिकर्ता का भी अप्रतिम है। मानसिक स्वास्थ्य के लिए श्रेयस्कर . . . लेकिन क्या सचमुच विस्मृति होती है? भूल गई जो गुज़र गया? जो दिल पर स्मृति पटल पर अमिट छाप छोड़ के चला गया बिसर गया क्या? हर छोटी से छोटी तुच्छ उपेक्षणीय घटना भी ब्योरेवार क्या याद नहीं रहती? उद्वेलित नहीं करती? यदा कदा समय ढूँढ़ कर यादों के पिटारे क्या अनायास खुल नहीं जाते? चलो मान भी लिया अनायास नहीं, लेकिन जब भी वैसी ही कोई मिलती जुलती घटना आँखों के सामने आती है तो क्या वह उत्प्रेरक का काम नहीं कर जाती और पुल तोड़ कर सैलाब छलाँगे लगाता अन्तरमन को भिगा नहीं जाता है? 

 मन भी कह रहा है कि चलकर एक बार फिर एलबम निकाल कर देखूँ। पता नहीं क्यों . . . फिर से एक बार। बहुत दिन हो गए। 

बरसों पुरानी एलबम। पुरानी चिंदी हो रही तस्वीरें। कोनों में मुड़ी–तुडी और जगह–जगह पर सफ़ेद फफूँदी चिपकी हुई। हर तस्वीर के साथ एक पतला पारदर्शी काग़ज़ होता था तब जो अब उस तस्वीर से ही चिपक कर उसे ख़राब कर रहा है। पुराने ज़माने की तस्वीरें। लगभग पचास वर्ष हो गए होंगे या उससे भी अधिक। माँ के पास थी। ले ली थी उनसे। उनकी विरासत। पास रखना चाहती थी न इसीलिए। एलबम पिताजी की है जब वे विदेश यात्रा पर थे। वहीं खीचीं गई श्वेत-श्याम तस्वीरें। और उस ज़माने में फ़ोटो तभी खींची जाती थी जब कोई विशेष समारोह हो। वरना नहीं। पिताजी सरकारी अफ़सर थे। सरकारी काम से विदेश गए थे और वहीं खिंचवाई थी कुछ गिनी-चुनी फोटुएँ। वैसे पिताजी से जुड़ी यादें भी कितनी हैं? बहुत कम। पर जितनी भी है, मनो मस्तिष्क में सहेज रखी है। 

पिता की स्मृति ने दस्तक दी और मन के मरुथल में ठंडी फुहार आ गई। रोम-रोम में मीठी तरंग। 

बचपन कैसा भी हो, अभावों से भरा हो या सम्पन्नता से माँ–पिताजी की छाँव के नीचे क्या कभी कोई कमी महसूस होती है? 

वो बचपन भी क्या बचपन था? मस्त-मौला मनमौजी। न खाने-पीने की चिंता, न काम-धाम करने की बाध्यता। पढ़ाई से अधिक खेलकूद में रमने वाली मैं और पिताजी . . . घोर अनुशासन प्रिय। शिक्षा उनके लिए सर्वस्व। 

पिताजी ने अपनी संतानों को विरासत में अगर कुछ दिया था तो वो थी केवल दो चीज़ें—शिक्षा और संस्कार। उनका मानना था कि जीवनोपयोगी बाक़ी सब कुछ इन दो के होते अर्जित किया भी जा सकता है और जो अर्जित किया गया हो उसे सुरक्षित भी रखा जा सकता है। 

पिताजी उत्तरी ध्रुव और मैं दक्षिणी। 

इसी कारण माँ से आए दिन उनका झगड़ा भी तो होता था, “तुम जान लेना इस वर्ष कल्याणी फ़ेल होकर रहेगी। कहे दे रहा हूँ। 24 घंटे उछल कूद करेगी तो पढ़ेगी क्या ख़ाक? क्यों ले जाती हो उसे हमेशा अपने साथ बाहर बाज़ार?” 

“आप भी न, अभी बच्ची है . . . ” 

“बच्ची? पाँचवीं कक्षा में पढ़ रही है और अपने से कई साल छोटे उन नासमझ आवारा छाप बच्चों के साथ दिन भर ऊधम मचाती रहती है . . . और तुम . . .? ख़ुद तो अनपढ़ हो ही उसको भी अनपढ़ बना कर छोड़ोगी। याद रखना मेरी बात . . . दोनों घर में बैठी रहना रोटियाँ बेलते।” 

एक दिन तो पूछ ही लिया था मैंने माँ से, “पिताजी क्यों चाहिएँ हमें इस घर में? खाना तुम बनाती हो, तैयार तुम करती हो, स्कूल तुम भेजती हो तो पिताजी की क्या ज़रूरत हमें?” 

उस दिन जो माँ का करारा चाँटा पड़ा था गाल पर, आज भी याद है मुझे। उस दिन के बाद कभी माँ को ऐसा सुझाव देने की उद्दंडता मैंने न की थी। 

पर कितना अंतर है उस पीढ़ी में और आज की पीढ़ी में? आज की पीढ़ी हम जितनी बुद्धू नासमझ तो बिलकुल नहीं है। मुन्नी को ही देख लो। बहुत समझदार सुलझी हुई है। बात को मनवाना आता है उसे। सब दाँव-पेंच जानती है आज की पीढ़ी। उस समय में तो कुछ पता ही न चलता था। मानसिक परिपक्वता देर से आती थी और अगर घर में सब सुभीता हो तो जल्दी बड़े होते ही नहीं थे बच्चे। 

ख़ैर। हाँ . . . डर और ख़ौफ़। यही रिश्ता था मेरे और पिताजी के बीच। पिताजी से कभी भावनात्मक लगाव बना ही नहीं या उन्होंने कभी मौक़ा दिया ही नहीं था। और वो ज़माना दूसरा हुआ करता था जब पिता और संतान की आयु में काफ़ी फ़ासला होता था और कदाचित यह फ़ासला भय और मर्यादा की एक अदृश्य रेखा हमेशा खींचें रहता था जिसे चाहकर भी दोनों न फाँदते थे। 

और इसी कारण पिताजी से दूरी बन गई थी मन में भी . . . व्यवहार में भी। माँ पर ही सभी भेद उजागर होते थे। 

“पिताजी मुझे प्यार नहीं करते न माँ? मैं काली हूँ न। क्लास में उतने अच्छे नंबर भी नहीं आते दीदियों की तरह। बुद्धू हूँ। इसलिए उनको अच्छी नहीं लगती। वे इसीलिए मुझसे प्यार नहीं करते और डाँटते रहते है?” माँ चुपचाप मुस्कुरा भर देती थी। 

वो दिन . . . जब विद्यालय में विज्ञान कार्यशाला के अन्तर्गत कुछ चयनित विद्यार्थियों को दूसरे शहर ले जाने का निर्णय लिया गया था। सबसे बड़ा आश्चर्य यह था कि उन विद्यार्थियों में मैं भी थी। 

तीन घंटे का सफ़र था। उन दिनों तबियत कुछ स्वस्थ न रहती थी। कारण वो दर्दनाक घटना। कितनी दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी वो। डरावनी। सोचते ही आज भी कँपकँपी छूट जाती है। उसका ज़िक्र आज नहीं फिर कभी। पर उस अबोध उम्र में उस भयानक दृश्य ने मन पर ऐसा आतंक डाला था कि डर के कारण नींद में चिल्लाने की बीमारी लग गई थी। माँ बहुत परेशान रहती थीं। डर की चिकित्सा तो नामुमकिन थी। तो मन्नतें माँगती, तावीजें बँधवाती . . . पर असर न के बराबर। बहुत समय लगा था उस बीमारी से नजात पाने में। 

तो कार्यशाला की सब व्यवस्था स्कूल की ओर से थी। खाना पीना रहना सब कुछ। मैं कार्यशाला की लीडर। महत्त्वपूर्ण दायित्व। अब लगता है कि शायद पिताजी से अधिक शिक्षकों को मेरी प्रतिभा पर विश्वास था। पर मैं मानती थी अपने आपको पिद्दी की पिद्दी। 

सब ठीक चल रहा था। समस्या तो तब आई जब तीन दिन के लिए अकेले जाने और रहने की अनुमति माँगनी पड़ी थी पिताजी से। पिताजी से सम्प्रेषण; बिल्ली के गले में घंटी बाँधने जितना भयानक। वो सोच भी कितनी डरावनी थी। माँ को यह काम सौंपा। वे ही मेरी खेवनहार जो थी हर समस्या में। याद आता है कैसे उन्हें पिताजी से अकेले में बात करने की पट्टी पढ़ाई थी मैंने। क़समें दी थीं। धमकाया भी था। पर मुन्नी की तरह अनशन न किया। माँ ने साथ तो दिया, मेरा नहीं पिताजी का। उन्होंने बात की, अकेले में नहीं, सबके सामने ही। शैक्षिक यात्रा-पिताजी मौन रहे। मना न कर पाए और उनके मौन को स्वीकृति मान लिया था मैंने। तैयारी ज़ोरों पर थी, पूरे उत्साह और उमंग के साथ। पर डर . . . उसका कोई इलाज नहीं होता न। बिन बुलाए मेहमान की तरह वह कहीं किसी कोने में अपनी उपस्थिति दर्ज करता रहा। 

शिक्षकों को पूरा विश्वास तो था लेकिन हमेशा वे सचेत भी करते रहे कि बाद में कोई संशोधन की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। 

मैंने भी पूरे आत्मविश्वास से उन्हें आश्वस्त कर दिया था। 

याद आ रही है वो अंतिम घड़ी। कल सुबह निकलना था। उस दिन पिताजी सुबह से बेचैन लग रहे थे। आज उनके व्यवहार में परिवर्तन था। कमरे की हर क़रीने से सजी वस्तु को, किताबों को बेवजह उलट-पलट कर फिर से साफ़ कर रखा जा रहा था। समाचार पत्र भी ठीक से न पढ़ा गया था। वैसे कम से कम दो घंटे लगाते हैं पढ़ने में और आज केवल देख कर परे ढकेल दिया था। पूरे घर में चक्कर लगा रहे थे। कुछ पल अपनी ईज़ी चेयर पर जा बैठते और अचानक हड़बड़ा कर ऐसे उठ जाते जैसे कोई आवश्यक काम याद आ गया हो। मैं भी कनखियों से बार-बार देख रही थी उन्हें। अधिक ध्यान न दिया और तैयारी में लग गई। कुछ देर बाद सोच में डूबे वे कमरे में आए थे। घर में हर व्यक्ति का कोई अलग कमरा नहीं था। उस कमरे में आए जहाँ तैयारी चल रही थी कपड़े वग़ैरह निकाल कर क्योंकि जानती थी कि अटैची तो ममा ही सजाएगी। अचानक उन्हें पास देख कर भौंचक्की खड़ी हो गई और प्रश्नसूचक देखने लगी। वे आकर पास बैठ गए। कुछ क्षण सिर झुकाए बैठे रहे। उन्हें इस तरह न देखा था पहले कभी भी। पहली बार पिताजी का सिर झुका हुआ था। 

मेरी उम्र ग्यारह-बारह साल की थी और वे अपने चालीसवें दशक के अंतिम छोर पर थे शायद। असमंजस में थे। कुछ कहना चाहते थे पर कहते न बन रहा था। आख़िर हिम्मत करके धीमी आवाज़ में पूछ लिया था, “पिताजी क्या बात है?” वे चुप रहे। प्यार से हाथ पकड़ कर सहलाने लगे। 

गला खंखार कर बोले, “मैं . . . बेटा तुम्हें अकेले भेजने से डर रहा हूँ। तुम अकेले नहीं रह पाओगे अगर वहाँ तबीयत ख़राब हो गई तो कौन देखेगा? ममा भी नहीं होंगी।” उनका गला भर आया था शायद इसीलिए वे चुप हो गए थे। 

उस ज़माने में घर की आर्थिक स्थिति इतनी मज़बूत न थी, इतनी सुभीती न थी कि वे भी साथ आ सकें या किसी को भेज सकें या फिर तब ऐसी सोच को बढ़ावा भी न दिया जाता था। आज तो आभा कह रही थी कि अगर मुन्नी न माने तो राजेश के साथ उसे लेकर वे देहरादून जाने की योजना पर भी सोच रहे हैं ताकि उसकी पिकनिक को चोट न पहुँचे। 

पर मेरी बात और थी। विद्यालय की यात्रा–अनुमति भी कैसे मिलती? कुछ क्षण चुप्पी। और फिर अचानक पता नहीं क्या हुआ पिताजी की आँख से आँसू बहने लगे। छोटे मासूम बच्चे की तरह वे रोने लगे।, गर्म गर्म मोटे-मोटे आँसू गालों से लुढ़क कर मेरी हथेली पर गिरे। पहले कभी पिताजी को रोते नहीं देखा था . . . पिताजी का यह रूप मेरे लिए अज्ञात था। उन्हें या किसी बड़े को रोते अपने इन ग्यारह वर्षों में रोते कभी न देखा था। हमेशा तना रहने वाला चेहरा आज इस तरह असहाय, झुका हुआ, आँसुओं से तर और वे आँखें मुझसे माफ़ी माँग रही थीं। अपनी हथेलियों को रगड़ते, होंठ भींच कभी वे मुझे देखते कभी ज़मीन को। मेरे पिताजी और रो रहे हैं मेरे कारण? मैं देख क्या सोच भी न सकती थी ऐसा दृश्य। कितना दर्दनाक। ऐसा हो ही नहीं सकता। मेरे पिताजी रो नहीं सकते। फिर क्यों रो रहे हैं? मैं यह क्या देख रही हूँ? क्या यह सच है? जो पिता दिन-रात मेरे पीछे पड़े रहते थे, पढ़ाई की दुहाई देते रहते थे, क्या ये वही पिता हैं? छोटे-मोटे मौसमी बुख़ार पर भी मुझे स्कूल भेजा जाता है और माँ के विरोध करने पर ताना सुनाया जाता है कि अपनी तरह उनकी बेटियों को अनपढ़ न बनाया जाए क्योंकि बेटियों को पढ़ लिख कर जीवन में कुछ बनना है, क्या ये वही पिताजी हैं जो आज रो रहे है? अगर हाँ तो यह शैक्षिक यात्रा है पिकनिक नहीं तो फिर क्यों मना किया जा रहा है जाने से? यानी तय हुआ कि तीन दिन भी मुझे अकेले छोड़ना उन्हें पसंद नहीं है। क्या सच में वे मुझे देखे बिना तीन दिन भी नहीं रह सकते हैं? क्या मैं भी उनकी प्यारी बेटी हूँ? और मैं प्यारी बेटी उन्हें रुला रही हूँ? इतनी निर्लज्ज हूँ मैं? हाय! मैं भी रो पड़ी थी। ज़ार-ज़ार बहने लगे थे आँसू। 

कार्यशाला में न जा पाने के दुख से सौ गुना अधिक सुख दे गई थी यह अनुभूति कि मैं भी प्यारी बेटी हूँ उनकी। उस उम्र में भी मन बाग-बाग़ हुए जा रहा था। उस क्षण उस अबोध उम्र में भी समझ आ गया था कि अब तक जिसे मैं पिताजी का “आतंक” समझ रही थी, वह उनका प्रेम था बस . . . प्रेम . . . और कुछ नहीं। मैं नीचे बैठ गई थी अपनी ठोड़ी उनके घुटनों पर टिकाकर। और मेरे हाथ अनायास उठे उनके आँसू पोंछने के लिए। तत्क्षण पोंछ दिए वे आँसू जो मुझे बिलकुल अच्छे नहीं लगे थे उनके सुदर्शन चेहरे पर, उनके गंभीर व्यक्तित्व पर। उन्होंने सिर उठा कर मेरी ओर देखा था। मेरी दोनों हथेलियों को कसकर पकड़ कर अपने चेहरे से लगा लिया था। 

आह! आज भी रोंगटे खड़े हो गए उस घटना को याद कर। आज भी याद है वह स्पर्श . . . कौन कहता है विस्मृति होती है? कभी नहीं। मरते दम तक न भूल पाऊँगी उस प्यार भरे स्पर्श को। 

उसके बाद फिर वे कुछ न बोले। उनका मौन बहुत कुछ कह रहा था और मैं बुद्धू सब समझ भी गई थी उस दिन। हाथ खींच लिए और रोती हुई उनके आँसू पोंछती रही थी . . . सिर आड़ा हिलाती रही थी। सिर्फ़ सिर हिलाती रही, कुछ न बोल पाई। लेकिन उस वक़्त जान गई जो व्यक्ति बाहर से इतना कठोर इतना सख़्त दिखाई देता है अंदर से वह इतना तरल, इतना आर्द्र? उस दिन पिताजी की छवि कितनी आकर्षक कितनी सौम्य लग रही थी। मैंने तभी मन ही मन निर्णय ले लिया था और अपनी अटैची अंदर रख दी। घर में कोई चर्चा न की गई थी इस विषय में। उस दिन के बाद से पिताजी ने भी कभी कुछ न कहा था माँ से मेरे बारे में। मैंने मौक़ा ही न दिया था। और मैंने भी कभी शिकायत न की थी माँ से पिताजी को लेकर। 

अगले दिन मुझे छोड़ने पिताजी बस स्टाप पर आए . . . यथावत हर दिन की तरह। न उन्होंने कुछ कहा न मैं कुछ बोली। बस आई और मैं स्कूल चली गई। और स्कूल पहुँचते ही अपनी सहपाठिका को पूरा दायित्व सौंप अपने मास्टरजी के पास गई बिना डर के। पता था ख़ूब डाँटा जाएगा। 

“ये क्या कह रही हो कल्याणी . . . होश है तुम्हें? यही सुनने के लिए तुम्हें मौक़ा दिया गया था। ये बिलकुल नहीं हो सकता। अगर आज तुम न आई तो भविष्य में कभी भी तुम्हें कहीं पर भी न ले जाया जाएगा। समझी। जाओ यहाँ से . . . निकल जाओ यहाँ से।” 

निकाल दिया था मेरा नाम उस कार्यशाला से। अंगारों की बौछार हुई थी। पर मुझे . . . मुझे अंगार उगलता उनका चेहरा नहीं, पिताजी का प्यारा मुस्कुराता चेहरा दिख रहा था न इसीलिए मैं निर्भीक खड़ी उन्हें देख रही थी . . . एकटक . . . आज जो मेरे स्वभाव में है न यह निर्भीकता . . . उन्हीं की तो देन है . . . अजीब सा बल . . . इसी के चलते तब भी मैं चुप रही थी और देखती रही थी उन्हें, सह लिया जो कुछ कहा गया था। 

उफ़। गर्मी के इस मौसम में आज यह ठंडी सिहरन कैसी? पिताजी की याद क्या आई तन मन शीतल कर गई ठीक वैसे जैसे तपती दोपहरी में बहती लू के बीच आग उगलते सूरज से झुलसते बदन को जैसे राहत मिल जाती है जब अचानक मौसम बदल कर सूरज काले-काले मेघों से ढक जाता है और चारों ओर मटमैला धूसर भरा अंधकार छा जा जाता है। और तब ठंडी-ठंडी फुहार का स्पर्श हो जाए तो? 

हाँ . . . पिताजी का स्मरण और वही स्पंदन . . . वर्तमान की झुलसती रेत पर अतीत की बौछार . . . सुकून भरा अनुभव। 

आज मन बह चला कितने वर्ष पीछे पता नहीं। मन का यही तो स्वभाव है। चंचलं हि मनः। चंचल है मन और उस पर अति बलवान। बह जाता है अवसर मिलते ही हाथ में तूलिका लेकर बड़ी तन्मयता से अतीत के श्वेत-श्याम चित्र बनाता और हम चलते चले जाते हैं उसके पीछे-पीछे . . . और पीछे। याद आ जाता है सब कुछ तरो ताज़ा। उसी मनःस्थिति में फिर से जीने लगते हैं, जीने लगते है उन पलों को, उन्हीं संवेदनाओं में, उसी भावात्मक भँवर में, भले ही तटस्थ होकर ही सही . . . 

दस बज गए। बैकयार्ड में पेड़ों की परछाइयाँ क्यों हिल रही हैं? यानी बाहर तेज़ हवा बह रह रही है। मई के महीने में अक्सर कभी-कभार बीच में बारिश आ ही जाती है। दो-एक दिन के लिए मौसम ठंडा होता ज़रूर है पर फिर जम कर आग बरसाता है। अभी तो अगले सप्ताह तक सूरज रोहिणी में प्रवेश करेगा और तब अपना असली रूप दिखाएगा। दिखाने दो असली रूप। बरसाने दो अंगार। मेरा मन तो आज ही बर्फ़ की तरह जम गया है। और मैं इसी स्थिति में रहना चाहती हूँ और कुछ समय . . . कम से कम इस रात को तो . . . सब भूलकर इन्हीं मधुर स्मृतियों में . . . रस भरे इन पलों में . . . जिसने कुछ समय के लिए ही सही फिर से मुझे जीवित कर दिया . . . . . . 

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