उय्यालावाड़ा नरसिम्हा रेड्डी 

15-08-2022

उय्यालावाड़ा नरसिम्हा रेड्डी 

डॉ. पद्मावती (अंक: 211, अगस्त द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

जीवनी–एक पुनरावलोकन

आंध्र प्रदेश के इतिहास में एक अविस्मरणीय नाम है उय्यालावाडा नरसिम्हा रेड्डी जिन्होंने अपने पराक्रम और शौर्य से सन 1846 में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध बग़ावत का बिगुल बजाकर अपने देश और जनता के लिए प्राणों का उत्सर्ग कर दिया था। 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के एक दशक पूर्व ही आंध्र प्रदेश में रायल सीमा प्रांत में ब्रिटिश साम्राज्य की उपनिवेशवादी नीतियों और शोषण के ख़िलाफ़ विद्रोह की लहर उठी थी जिसके अग्रदूत बने थे उय्यालावाडा नरसिम्हा रेड्डी जिनका नाम सुनते ही अँग्रेज़ों के रोंगटे खड़े हो जाते थे। नरसिम्हा रेड्डी को आंध्र प्रदेश में ‘सीमा सिंह’ के नाम से जाता था और इन्होंने अपने नाम के अनुरूप वीरोचित पौरुष और पराक्रम दिखाकर कर अँग्रेज़ी शासन की नींव हिला दी थी। ब्रिटिश सरकार की राजनैतिक चालों और षड्यंत्रकारी कूटनीतियों के विरुद्ध इन्होंने अपनी वीरता दिखाकर क्रांति का आह्वान किया और उन्हें युद्ध के लिए ललकारा था। अँग्रेज़ों की उपनिवेशवादी व्यवस्था ने भारतीयों के मन में गहरा असंतोष भर दिया था। इन्होंने देश की संपदा का दोहन ही नहीं किया बल्कि देश को अपनी कूट नीतियों द्वारा दोहरे शोषण का शिकार बना कर उसे दरिद्र बनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इन्हीं शोषणवादी नीतियों का शिकार बने आंध्र प्रदेश में सीमा प्रांत के निवासियों ने संगठित होकर अपने क्रांतिकारी सेना नायक नरसिम्हा रेड्डी के नेतृत्व में अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ भयंकर युद्ध किया। इस संघर्ष में लगभग तीन हज़ार ब्रिटिश सैनिकों को रेड्डी के अनुयायियों ने मौत के घाट उतार दिया था। इस अप्रत्याशित पराजय से अँग्रेज़ों ने कोपाविष्ट होकर घात-प्रतिघात की चालें चलीं और अंततः वे नरसिम्हा रेड्डी को बंदी बनाने में सफल हो गए। उन्हें फाँसी की सज़ा सुनाई गई और पूरे प्रांत के सामने 22 फरवरी 1847 को उन्हें फाँसी के तख़्ते पर लटका दिया गया था। आंध्र का यह वीर सपूत हँसते-हँसते फाँसी पर झूल गया। इस घटना से इतिहास में नरसिम्हा रेड्डी का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित हो गया। आइए हम इसी यशस्वी वीर सेनानी उय्यालावाडा नरसिम्हा रेड्डी की जीवनी पर दृष्टिपात कर और उनके बारे में कुछ जानने का प्रयत्न करें। 

नरसिम्हा रेड्डी का जन्म 24 नवम्बर 1806 में कर्नूल ज़िले के उय्यालवाडा मण्डल में स्थित रूपम्पूडी गाँव में हुआ था। इनके पिता मल्लारेड्डी उय्यालावाडा में कोयलकुंटा तालुक़ा के जागीरदार (पालगाल्लू) थे। इनकी माता का नाम सीतम्मा था। यह प्रांत आंध्र प्रदेश में रायलसीमा के नाम से जाना जाता है। आइए अब हम आंध्र के इस महानायक की जीवनी की पृष्ठभूमि में रायल सीमा प्रांत के गठन का भौगोलिक इतिहास और इसकी अर्थ व्यवस्था का समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण समझें। 

1565 में तल्लिकोटा युद्ध के बाद क्षीण हुआ विजय नगर साम्राज्य 1646 में पूर्णतः समाप्त हो गया। इस समय आंध्र का रायलसीमा प्रांत निज़ाम और मोहम्मदीय नवाबों के शासन में चला गया था। जब अँग्रेज़ों ने भारत में अपना उपनिवेश आरंभ किया तब दक्खन में बलवान राजा थे निज़ाम नवाब और मैसूर के शासक हैदर अली। हैदर अली का पुत्र टीपू सुलतान एक शक्तिशाली राजा था जो अँग्रेज़ों की आँख में हमेशा खटकता था। 1792 में टीपू सुलतान ने अपने पराक्रम से अनंतपुर ज़िला राय दुर्ग, चित्तूर, गुर्रिकोंडा के क़िलों को जीतकर उन्हें अपने अधीन कर लिया था। अँग्रेज़ों और टीपू के बीच हुए अनुबंध के कारण रायलसीमा प्रांत उसे निज़ामों को दे देना पड़ा था। 1800 में टीपू सुलतान की मृत्यु के पश्चात रायलसीमा प्रांत की बागडोर फिर से ब्रिटिश शासन के हाथ में चली गई। इसी कारण रायल सीमा को ‘दत्त मण्डल’ के नाम से भी जाना जाता है। 

निज़ाम नवाबों के समय में कडपा, कर्नूल, अनंतपुर, बल्लारी एक ही प्रदेश के अंतर्गत था जिसे रायल सीमा कहा जाता था। तब यहाँ जागीरदारी प्रथा प्रचलन में थी जो सामंत वादी शासन प्रणाली का एक प्रकार थी। जागीरदार अपने प्रदेश विशेष के स्थानीय शासक हुआ करते थे। इन्हें स्थानीय भाषा में पालागांड्लू के कहा जाता था। ये पालागांडलु किसानों से भूमिकर वसूली का काम किया करते थे। इस प्रथा को बलवती बनाने में विजय नगर राजाओं की मुख्य भूमिका रही है। हर एक पालागांड्लु के अधीन में 100 से 200 गाँव हुआ करते थे। कृषि प्रधान देश भारत में भू राजस्व आय का मुख्य स्रोत हुआ करता था। भूमिकर वसूली के साथ साथ इन छोटे छोटे प्रांतों की शासन सुव्यवस्था इनका मुख्य दायित्व हुआ करता था। इनकी जागीर के अंतर्गत आने वाले वन्य संपदा की सुरक्षा, पर्वतीय प्रांतों की सुरक्षा, डाकुओं से राहगीरों की सुरक्षा जैसे दायित्व इनके कार्य क्षेत्र हुआ करते थे। राज्य सुरक्षा के लिए सैन्य शक्ति के संगठन करने का भी इनको अधिकार होता था। भू राजस्व से मिले धन को सैन्य शक्ति के संचयन में लगाया जाता था। 

रायलसीमा में नोसोमु प्रांत का एक जागीरदार (पालेगाडलू) था जयरामरेड्डी जो वहाँ का स्थानीय शासक था। इसकी कोई पुत्र संतान नहीं थी। इसकी पुत्री सीतमा बड़ी लाड़ली दुलारी थी जिसका विवाह उय्यालावाडा के जागीरदार पेद्दा मल्लारेड्डी से हुआ। इनकी तीन संतानें हुई। चिन्ना मल्ला रेड्डी, बोज्जा रेड्डी, और नरसिम्हा रेड्डी। मल्लारेड्डी अपनी जागीरदारी की आय से प्रति वर्ष तीस हज़ार रुपये ब्रिटिश सरकार को दिया करते थे। जिस कारण उन्हें प्रति माह कम्पनी सरकार से 70 रुपये तबर्जी मिला करती थी। 

कंपनी सरकार ने परम्परागत कृषि व्यवस्था को प्रतिस्थापित कर भू राजस्व की वृद्धि और अपने ख़जाने को भरने के लिए रैयतवारी प्रथा का क़ानून लागू कर दिया। उस समय बल्लारी का ज़िला कलक्टर था थॉमस मुनरो जो ब्रिटिश शासन में नई किसान नीति रैयतवारी प्रथा का सूत्रधार था। रैयतवारी प्रथा में खेतिहर अपना लगान सीधा सरकार को जमा करता है जहाँ मध्यस्थों की कोई भूमिका नहीं होती। जागीरदारों की जागीरें छीन ली गईं और किसान का कम्पनी सरकार से सीधा सम्पर्क बना दिया गया। जब किसान अपना भूमिकर सीधा सरकार को देने लगा तो पालेगालू व्यवस्था चरमरा गई। अब तक पालागांड्लु सामंत बना राजा की भाँति ही व्यवहृत हो रहा था। अचानक इस परिवर्तन से उसका राज-पाट ही छिन गया था। इस रैयतवारी प्रथा का मुख्य उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था का पुनर्गठन न होकर केवल सरकार के राजस्व की वृद्धि ही रहा था। ग्राम प्रधानों को अपने अधिकारों से वंचित कर दिया गया। किसान का भी ज़मीन पर कोई अधिकार नहीं था। जब तक किसान भूमिकर दे सकता था, तब तक वह उस खेत का मालिक बना रहता था। एक चूक और ज़मीन हाथों से निकल जाती थी। 

जागीरदारों और किसानों को दोनों को कम्पनी सरकार ने दरिद्र बना दिया था। बल्लारी ज़िला कलक्टर मुनरो ने इस क़ानून के तहत 142 पालेगाडलू को अपने अधीन कर लिया और उनकी जागीरें हड़प ली गईं। अँग्रेज़ों की नीतियों ने सब वर्गों को चोट पहुँचाई थी। चाहे ज़मींदार हो या काश्तकार, सामंत हो या जागीरदार सभी के अधिकार छीन लिए गए थे। सभी वर्ग उनकी चपेट में आ गए थे। यहाँ तक की आदिवासियों की भी ज़मीनें हड़प ली गई थी। सभी में घोर असंतोष और बेचैनी फैलने लगी थी। वे भड़क उठे और परिणाम स्वरूप उनमें विद्रोह की चिंगारियाँ प्रज्वलित हो गईं। 

इसी क्रम को आगे बढ़ा कर ब्रिटिश सरकार ने 1843 में नए उत्तराधिकार क़ानून को जनता पर अधिरोपित किया जिसके अधीन उत्तराधिकार एक पीढ़ी और एक प्रांत तक ही सीमित कर दिए गए थे। इस क़ानून के अमल में आने के कारण नोसोमु और उय्यालावाडा प्रांत के संयुक्त जागीरदार नरसिम्हा रेड्डी को एक प्रांत की सामंती से हाथ धोना पड़ा था। मातृ वंश से विरासत में मिली नोसोमु की जागीरदारी अँग्रेज़ों के हाथों में चली गई। 

नोसोमु गाँव ब्रिटिश के अधीन हो गया था। उस समय नरसिम्हा रेड्डी की आयु 40 वर्ष की थी। इनकी जागीरें हथिया ली गईं और 70 रुपया माह पेंशन दी जाने लगी जिसमें नरसिम्हा रेड्डी को अपने भाइयों में तीसरा हिस्सा 11 रुपये और 10 आना 8 पैसे मिलना शुरू हुआ। नरसिम्हा रेड्डी के मन में अँग्रेज़ों की इन दमनकारी नीतियों के कारण क्रोध की ज्वाला भड़कने लगी थी। इस क़ोधाग्नि को आंदोलन का रूप देने की आवश्यकता अनुभूत हुई। नरसिम्हा रेड्डी ने जान लिया था कि संगठित होकर ही इस लड़ाई को जीता जा सकता है। वह गुप्त रूप से अपनी सेना बनाने के प्रयासों में जुट गया। तब तक नल्ला मल्ला जंगल की आदिवासी जन जातियाँ नरसिम्हा रेड्डी के दल का हिस्सा बन चुकी थीं। नरसिम्हा रेड्डी को आस पास के गाँवों की जनता का भी समर्थन प्राप्त था। वनपर्ती, मुनगाला, जटप्रोलु ज़िलों के ज़मींदार, हैदराबाद के ज़मींदार सलाम खान, कर्नूल के जागीरदार पापा खान, जनगाम पल्ली नवाब मुहम्मद अली खान भी उसके दल में शामिल हो गए थे। धीरे-धीरे इस दल के अनुयायियों की संख्या 5000 के लगभग पहुँच गई थी। फिरंगियों की कूट नीतियों और शोषण के विरुद्ध विप्लवकारी गतिविधियों की रूपरेखा बनाई जाने लगी थी। 

बात 1846 मई मास की है जब नरसिम्हा रेड्डी ने अपने अनुचर को मासिक पेंशन लाने के लिए कोयलकुंटा के कोषालय भेजा। तत्कालीन तहसीलदार राघवाचारी ने उस अनुचर को नरसिम्हा रेड्डी की पेंशन देने से मना कर दिया और बड़े ही अभद्र शब्दों में नरसिम्हा रेड्डी का अपमान किया। जब लौट कर आए उस अनुचर ने यह बात नरसिम्हा रेड्डी को बताई तो उसका ख़ून खौल उठा। आत्माभिमान आहत हो गया। सब्र का बाँध टूट गया। पहले ही उसकी ज़मीनें हडप ली गईं थीं। अब क्रोध गले तक पहुँच गया था। तत्क्षण उसने कोषाध्यक्ष को पत्र लिख कर भिजवाया कि उसके प्राण और सरकारी ख़ज़ाना दोनों ही अति शीघ्र हर लिए जाएँगे। संघर्ष का श्री गणेश हुआ। नरसिम्हा रेड्डी की चुनौती भरी ललकार ने क्रांति का बिगुल बजा दिया था। उसकी विध्वंसकारी गतिविधियाँ आरंभ हो गई। 

7 जुलाई, 1846, 5000 सैनिकों की टुकड़ी लेकर नरसिम्हा रेड्डी ने चागलमर्ती तालुक़ा के रुद्रावरम गाँव की पुलिस चौकी पर आक्रमण कर दिया, मिट्टपल्ली के पास पुलिस ने उन्हें रोका लेकिन उन्होंने वहाँ उपस्थित एक दफ़ेदार और 9 पुलिस कर्मचारियों को मार गिराया। (पृ.सं. 46) (रेनाटी सूर्य चंद्रुलु) 

10 जुलाई, मध्याह्न 12 बजे का समय, कोयलकुंटा कोषालय में नरसिम्हा रेड्डी ने दिन दहाड़े डाका डाला, 805 रुपये 10 आना और 4 पैसे लूट लिए और सब के सामने अपनी नंगी तलवार घुमाकर तहसीलदार राघवाचारी का सर धड़ से अलग कर दिया। आड़े आए पाँच रक्षकों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। पुलिस चौकी रक्त रंजित हो गई। कोषाधिकारी थॉमस अडवर्ट का शीश मुंडन कर अँग्रेज़ों को अपनी अगली मुठभेड़ की चुनौती भरी सूचना देता हुआ नरसिम्हा अपने घोड़े पर फरार हो गया। (पृ. सं 46) 

नरसिम्हा रेड्डी की इन हरकतों से अँग्रेज़ों को अपने पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकती नज़र आने लगी। उनकी नाक में दम हो गया। वे बौखला गए और उसे पकड़ने के लिए नए नए पैंतरे आज़माने लगे। कडपा के कलक्टर को सिफ़ारिशें भेजी गईं। लेकिन अचानक फिर झटका लगा। अगले कुछ दिनों में प्रोदुटूरू के निकट दुव्वुरू के ख़जाने को लूट लिया गया। अँग्रेज़ अब सजग हो गए। नरसिम्हा रेड्डी की गतिविधियों पर कड़ी निगरानी रखी जाने लगी। अगली मुठभेड़ में उसके ठिकाने की ख़बर पाकर अँग्रेज़ सेना जम्मलमडुगु पहुँची। लेकिन नरसिम्हा रेड्डी को उनके आने की ख़बर पहले ही मिल गई थी। वह अपने कुछ विश्वस्त अनुचरों के साथ अहोबिलिम के जंगलों में छिप गया। 

नरसिम्हा रेड्डी के दल में गोसाईं वेकन्ना और ओड्डे ओबन्ना उनके परम मित्र हुआ करते थे। इनके जीवन में इन दोनों की अहम भूमिका रही थी। इन दोनों ने अंत तक नरसिम्हा रेड्डी का साथ निभाया था। और नरसिम्हा रेड्डी को बचाने के लिए अपने प्राणों की आहूति दे दी थी। इनमें से ओड्डे ओबन्ना को चमत्कारी शक्तियाँ प्राप्त थी। वह कुछ पत्तों को मसल कर वह उनका रस अपनी हथेली में डाल लेता था और एक दीपक की लौ के सामने बैठ कर भविष्यवाणी करता था। उसकी भविष्य वाणी कभी ग़लत नहीं होती थी। रेड्डी ने उसकी इस शक्ति के द्वारा ही अँग्रेज़ों की सेना को कई बार मात दी थी। ओबन्ना बता देता था कि किस दिशा से अँग्रेज़ आक्रमण करने वाले हैं और तदनुसार रेड्डी या तो अपनी दिशा बदल देता था या सजग होकर उनसे पहले ही उन पर धावा बोल देता था। 

अहोबिलिम के जंगलों में रेड्डी को ढूँढ़ना दुष्कर था। कंभम के तहसीलदार को लेकर कैप्टन नॉट बड़ी सेना लेकर वहाँ पहुँचा। दूसरी ओर कोक्रीन एक सशस्त्र दल लेकर रुद्रावरम के पास रेड्डी की प्रतीक्षा कर रहा था। विद्रोही दल गुत्ति कनुम से होती हुई मुंडल पाडु पहुँची। वहाँ कोत्ताकोटा का एक खण्डहर क़िला उस रात नरसिम्हा रेड्डी का अस्थाई निवास बन गया। जंगली रास्तों का ठीक जानकारी न होने के कारण अँग्रेज़ों की सेना निराश होकर लोट गई। 

नरसिम्हा रेड्डी तीर की तरह आता था और कुछ ही क्षणों में सब कुछ तहस-नहस कर लक्ष्य को अंजाम देकर ग़ायब हो जाता था। उसकी इन उग्र गतिविधियों से अँग्रेज़ों का सर चकरा गया था। वह उन्हें चोट पर चोट दे रहा था। उसकी दिलेरी के आगे फिरंगी भी भयभीत होने लगे थे। उसकी तलवार बाज़ी का कोई तोड़ नहीं था। 

बात उच्च अधिकारियों तक पहुँच गई। नरसिम्हा रेड्डी को बंदी बनाए जाने के लिए योजनाएँ बनाई जाने लगीं। कलक्टर कोक्रीन ने नरसिम्हा रेड्डी को नोसोमु में छिपा जानकर तत्क्षण नोसोमु क़िले पर धावा बोल देने का आदेश जारी कर दिया। ब्रिगेडियर वॉटसन को यह ज़िम्मेदारी सोंपी गई। लेकिन नरसिम्हा रेड्डी रण नीति में निपुण था। उसने पहले ही अवुकु के राजा नारायण राजु की सहायता लेकर शस्त्र तैयार करवा लिए थे और नोसोमु क़िले के चारों ओर स्थानीय ग्रामीणों की मदद से रातों-रात खाइयाँ खुदवा लीं थीं। क़िले की दीवारों से ब्रिटिश सेनानियों पर उबलते हुए तेल उड़ेलने की भी व्यवस्था कर ली गई थी। 

सामना हुआ। दोनों सेनाएँ एक दूसरे से भिड़ गईं। नरसिम्हा रेड्डी की रण कुशलता के सामने फिरंगी सेना के छक्के छूट गए। वॉटसन के प्राण संकट में पड़ गए। वह मैदान छोड़कर भागने लगा लेकिन नरसिम्हा रेड्डी ने उसे मौक़ा नहीं दिया। उसकी तलवार आकाश में पवन वेग सी लहराती हुई आई और वॉटसन के शरीर के दो टुकड़े हो गए। युद्ध के मैदान में नरसिम्हा रेड्डी कभी भी छुप कर वार नहीं करता था। सीना तान कर तलवार को हवा में लहराते हुए वह दुश्मन के टुकड़े-टुकड़े कर डालता था। 

इस घटना ने अँग्रेज़ों का दिल दहला दिया। अब गुप्त रूप से उसकी खोज आरंभ की गई। लेकिन वह अपने ठिकाने तत्काल बदल दिया करता था। दलों को भी छोटी-छोटी टुकड़ियों में बाँट दिया जाता था और अलग अलग स्थानों में छिपाया जाता था। एक ही जगह पर रहने से पकड़े जाने का ख़तरा हो सकता था। उसे पकड़‌ना अँग्रेज़ों के लिए असंभव सा प्रतीत हो रहा था। उसकी बहादुरी के आगे अँग्रेज़ों के हौसले पस्त हो रहे थे। हर बार वे मुँह की खा रहे थे। उनकी सारी योजनाएँ असफल हो रही थीं। 

एक तो वह दिलेर योद्धा था और उस पर सोने पे सुहागा कि नरसिम्हा रेड्डी को आस-पास के गाँवों की जनता का पूरा सहयोग और समर्थन प्राप्त था। वह उनका जन नायक बन चुका था। उसके लिए वे अपने प्राण देने के लिए भी तत्पर हो जाते थे। गाँवों में उसकी वीरता की गाथाएँ गाई जानी आरंभ हो गईं थी। लोग उसे अपना मसीहा मानने लगे थे। उसकी पौरुष गाथा लोक गीतों का माध्यम बन जन-जन के कंठों का हार बन गई थी। आदिवासियों के सम्पर्क में रहने के कारण वह जंगली रास्तों से भी भली-भाँति परिचित था जिनकी पहुँच अँग्रेज़ों तक नहीं थी। उसने छापामारी युद्ध कला भी सीख रखी थी। इसीलिए वह उनकी पकड़ में आ नहीं रहा था। अब उसे पकड़ने के लिए अँग्रेज़ों ने जाल-साज़ी और षड़्यंत्र का सहारा लेने की योजना बनाई। 

कर्नूल में तुंगभद्रा के समीप ब्रिटिश कार्यालय में एक आपात कालीन गुप्त बैठक बुलाई गई जिसकी अध्यक्षता कर रहा था कैप्टन नॉरटन जो वॉटसन की असामयिक मृत्यु से उत्पन्न रिक्त पद पर नियुक्त किया गया था। कर्नूल कैप्टन रसेल, मिलिटरी कमांडिंग ऑफ़िसर जोसेफ, गवर्नर एजेंट डैनियल इस बैठक का हिस्सा बने। सबने मिलकर सलाह मशवरा किया और घात लगाकर नरसिम्हा रेड्डी को पकड़ने की योजना बनाई। सबसे पहले आवश्यकता थी गाँव वालों के विश्वास को तोड़ने की और उनकी एकता में फूट डालने की। नरसिम्हा रेड्डी को जीवित या मुर्दा पकड़ कर लाने वाले को मोटी रक़म इनाम के तौर पर दी जाने की घोषणा करवाई गई ताकि जनता में प्रलोभन को जगाया जा सके। लेकिन फिर भी सफलता हाथ नहीं लगी। 

कलक्टर कोक्रीन को यह कार्य सौंपा गया। उसने बदला लेने की ठानी। उसने कैप्टन नॉरटन से मिलकर नोसोमु क़िले पर आक्रमण कर दिया। क़िले को बारूद से उड़ा दिया गया। क़िले की एक-एक ईंट ढहा दी गई। क़िले को तोड़ने का अर्थ नरसिम्हा रेड्डी के मनोबल को तोड़ना था। लेकिन उससे पहले ही नरसिम्हा रेड्डी को अपने विश्वस्त गुप्तचरों से सूचना आ गई थी। उसने अपना ठिकाना नल्ला मल्ला के जंगलों में निर्मित एक गुप्त क़िले में बदल दिया था। नोसोमु क़िले का टूट कर बिखर जाना नरसिम्हा के लिए एक दुखद घटना थी। 

नोसोमु का क़िला

 

नरसिम्हा रेड्डी को पकड़ने के सब प्रयासों में लग रही असफलता को देख अँग्रेज़ तिलमिला गए थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि नरसिम्हा रेड्डी को कैसे फँसाया जाए। दुव्वुरू ग्राम नायक रोशिरेड्डी से मिलकर साज़िश रचाई गई लेकिन वह भी असफल हो गई। रुद्रावरम के तहसीलदार को भी फँसाया गया लेकिन वह भी कुछ कर न सका। उनकी हर चालों को नरसिम्हा रेड्डी नाकाम कर रहा था। अब दाँव पर दाँव लगाए जाने लगे। बाज़ियाँ बिछाई गईं। षड्यंत्र रचाए गए। अंततः नरसिम्हा रेड्डी के भाई को अपनी ओर लुभाने में अँग्रेज़ सफल हो गए। कोक्रीन की योजना के तहत नरसिम्हा रेड्डी की पत्नी और पुत्र का अपहरण कर उन्हें कड़पा के लाल बँगले में क़ैद कर लिया गया था। योजना थी कि अपनी पत्नी और पुत्र को छुड़ाने जब नरसिम्हा रेड्डी यहाँ आयेगा तो उसे छुपकर पकड़ लिया जाएगा। कडपा का नवाब भी इस साज़िश में मिल गया था। जब नरसिम्हा रेड्डी को इस बात की भनक पहुँची, तो वह तीर की भाँति आया और कोक्रीन की नाक के नीचे से अपनी पत्नी और पुत्र को छुड़ा कर ले गया। उसकी तलवार के वार के सामने फिरंगी धराशायी हो गए। कोक्रीन हक्का-बक्का रह गया और पासा पलट गया, बाज़ी उलट गई। 

अगली मुठभेड़ गिद्दलूरू के पास हुई। कोक्रीन ने कम्भम के कलक्टर के साथ घात लगाकर नरसिम्हा रेड्डी को पकड़ने की योजना बनाई थी। गिद्दलूरू में एक स्थानीय महोत्सव हो रहा था। रेड्डी अपना खड्ग लिए भीड़ के बीचोंबीच खड़ा जनता की सुरक्षा का निरीक्षण कर रहा था। अचानक शोर मचा और लोगों में अफ़रा-तफ़री मच गई। सामने सशस्त्र अश्वारूढ़ अँग्रेज़ फ़ौज आ रही थी जिसमें डेप्यूटी सुपरिटेंडेंट, सर्किल इंस्पेक्टर और कम्भम के तहसीलदार नेतृत्व कर रहे थे। उन्हें देखते ही रेड्डी ने अपने अनुचरों को शस्त्र समेत तत्काल आने का संदेश भेजा। पाँच मिनट के अंदर 200 भील अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर वहाँ पहुँचे और चिल्लाते हुए रण मैदान में कूद पड़े। युद्ध आरंभ हुआ। इससे पहले कि कम्भम का तहसीलदार वार करने समीप आता, नरसिम्हा की तलवार ने उसका सर काट कर धड़ से अलग कर दिया। सेना पीछा करती रही, नरसिम्हा अपने घोड़े पर नल्ला मल्ला के जंगलों की तरफ़ भाग गया। (पृ. सं 250) 

उसके साथ उसके दो साथी गोसाईंं वेकन्ना और ओड्डे ओबन्ना भी थे। वे छुपते-छुपाते घने जंगल में घुस गए। वहाँ एक पुराना मंदिर था। ओबन्ना ने अपनी शक्ति से अपनी हथेली में दिव्य दृष्टि से देखा और रेड्डी को सचेत किया कि अँग्रेज़ सेना निकट पहुँच गई है। अब बचने का कोई उपाय नज़र नहीं आ रहा था। रेड्डी की जान ख़तरे में थी। इस संघर्ष को जारी रखने के लिए रेड्डी को बचाना अति आवश्यक था। दोनों मित्रों ने सलाह दी कि वे अँधेरे का सहारा लेकर कम्बल ओढ़े भाग निकलेंगे ताकि फ़ौज उन्हें नरसिम्हा रेड्डी समझे और वे अँग्रेज़ों को धोखे से दूर भगा ले जाएँगे। रेड्डी यहीं मंदिर में भगवान की मूर्ति के पीछे छिपा रहेगा। उसे बचकर निकल जाने का अवसर मिल जाएगा। पहले तो रेड्डी तैयार नहीं हुआ लेकिन उसे अपने मित्रों की बहादुरी पर भरोसा था। सो मान गया। वे दोनों कंबल ओढ़े अँधेरे में अँग्रेज़ों के सामने से भागने लगे। अँग्रेज़ी फ़ौज को यक़ीन हो गया कि उनमें से एक रेड्डी ही है। वह उनके पीछे लग गए। कुछ देर बाद दो गोलियाँ चलने की आवाज़ आई। दोनों कटे वृक्षों की तरह ज़मीन पर गिर पड़े। नरसिम्हा रेड्डी ने आवाज़ सुनी। वह समझ गया कि उसके मित्र शहीद हो गए है। वह बेहद दुखी हो गया और अँधेरे में भागने लगा। एक गोली उसके पैर पर लगी। नॉरटन की गोली से नरसिम्हा रेड्डी घायल हो गया और अंततः ‘सीमा का सिंह’ उनकी पकड़ में आ गया। (पृ. सं 254) 

नरसिम्हा रेड्डी समेत उसके बाक़ी सभी अनुयायियों को बंदी बना लिया गया था। उच्चस्तरीय जाँच बिठाई गई। 412 अनुचरो का जुर्म प्रमाणित नहीं हुआ था। 273 को छोड़ दिया गया और 112 अनुचरों को दस साल की क़ैद सुनाई गई। कुछ अनुयायियों को दूसरे द्वीप पर सज़ा के लिए भेज दिया गया था। नरसिम्हा रेड्डी को हत्या, डकैती, लूट और सरकार विरोधी क्रिया-कलापों के अभियोग पर फाँसी की सज़ा सुनाई गई। फाँसी के लिए 22 फरवरी का दिन नियत हुआ; ढिंढोरा पीटा गया। 

यह दिन इतिहास में अविस्मरणीय दिन था। घाट के तट पर नरसिम्हा रेड्डी को फाँसी देने के लिए एक खंबा गाड़ा गया। रेड्डी को ज़ंजीरों में बाँध कर जेल से लाया गया। रायल सीमा प्रांत की जनता अपने नायक के अंतिम दर्शनों के लिए उमड़ पड़ी। फिरंगी सैनिकों के बीच चलकर आ रहे अपने महानायक को देखकर चारों ओर आर्तनाद होने लगा। नारों से संपूर्ण वायु मण्डल गुंजायमान्‌ हो गया। 2000 ग्रामवासी अपने प्रिय नायक की फाँसी का हृदय विदारक दृश्य नीर भरे नैनों से देख रहे थे। नरसिम्हा रेड्डी का मुख मण्डल ओज की आभा से चमक रहा था। सधी हुई चाल, गम्भीर मुख, अधरों पर मुस्कान। उसकी छवि अँग्रेज़ों के मनोबल को ललकार रही थी। उसने मुड़ कर एक बार अपनी जनता को देखा और सिंह की तरह गर्जना की, ‘यह अभियान अब रुकेगा नहीं, आगे ही बढ़ेगा’। भीड़ नारे लगाने लगी। ‘जय नरसिम्हा रेड्डी, जय जय नरसिम्हा’ रेड्डी की गूँज से पूरी धरती काँप उठी। मुस्कुराते हुए नरसिम्हा रेड्डी फाँसी के तख़्ते पर झूल गया। 

फिरंगियों का कोप अभी शांत नहीं हुआ था। उन्होंने उसके कटे हुए शीश को कोयलकुंटा गाँव के मुख्य द्वार पर ज़ंजीरों से बाँध कर लटका दिया। यह चेतावनी थी ग्रामवासियों को बग़ावत के परिणाम की। लोगों के दिलों में दहशत फैलाने के लिए अगले 30 वर्ष नरसिम्हा रेड्डी का सिर मुख्य द्वार पर यूँ ही लटकता रहा। लेकिन जनता के मन में तो उनकी छवि एक पराक्रमी योद्धा के रूप में अंकित हो चुकी थी। 

आज भी रायलसीमा प्रदेश का कण-कण नरसिम्हा रेड्डी की अमर गाथा से गुंजायमान्‌ है। उसका पौरुष, वीरता और बलिदान लोगों के लिए आदर्श बन गया है। उनके पराक्रम को लोक-गीतों को आधार बना कर गाया जाता है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी सीमा प्रांत का बच्चा-बच्चा उनकी शौर्य गाथा से परिचित है। इस स्वतंत्रता सेनानी की कथा का स्मरण वहाँ की जनता को आशा और उत्साह से तरंगित कर जाती है। इनके बलिदान के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के उद्देश्य से सरकार ने कर्नूल हवाई अड्डे का नाम ‘ उय्यालावाडा नरसिम्हा रेड्डी विमानाश्रम’ कर दिया है। इनकी 170वीं पुण्य तिथि पर डाक टिकट भी जारी किया गया था। देश के प्रति अपनी श्रद्धा और बलिदान के कारण नरसिम्हा रेड्डी का नाम इतिहास के पन्नों पर सुवर्ण अक्षरों में अंकित हो गया है। 

 साभार; संदर्भ: 

‘रेनाटी सूर्य चंद्रुलु’ शोध प्रबंध, 
रचयिता; प्रोफ़ेसर तंगिराला सुब्बा राव, 
प्रथम प्रकाशन: 22 फरवरी 1999, श्री कृष्ण देव राय रसज्ञ समाख्या, बेंगलूरु। 

नरसिम्हा रेड्डी के जीवन से संबंधित कुछ रोचक सूत्र: 

  1. नरसिम्हा रेड्डी का एक बहुत शक्तिशाली अंगरक्षक हुआ करता था जिसका नाम था खासिम साहेब। वह मुसलमान था और नरसिम्हा का बेहद विश्वास पात्र था। उसने हर युद्ध में नरसिम्हा रेड्डी का साथ दिया था। अंत में जब अँग्रेज़ों ने नरसिम्हा रेड्डी को बंदी बना लिया था और उसे फाँसी की सज़ा सुना दी गई थी तो खासिम बुरी तरह से आहत हो गया था। यह ख़बर उसके लिए असह्य थी। नरसिम्हा रेड्डी को फाँसी लगने से पहले ही खासिम ने आत्महत्या कर ली थी। 

  2. गिद्दलूरू के पास कोत्तापेटा में नरसिम्हा रेड्डी के द्वारा उपयोग में लाए गए तोपनुमा अस्त्र के अवशेष अब भी उपलब्ध है। यह अस्त्र अंगार उगलता था और दुश्मन को फूँक देता था। नरसिम्हा रेड्डी अपनी छोटी-छोटी चालों से अँग्रेज़ों को मात देता था। इस तोपनुमा अस्त्र से अंगार उगलवाया जाता था और उसके आदमी चिल्ला कर घोषणा कर देते थे कि नरसिम्हा रेड्डी मर गया है। अँग्रेज़ धोखे में उस ओर भागने लगते जहाँ तोप ने अंगार उगले थे और नरसिम्हा रेड्डी दूसरी ओर से अपने घोड़े पर चढ़ कर वायु वेग से निकल जाता था। 

  3. नरसिम्हा रेड्डी के पास एक अलौकिक खड्ग हुआ करता था। उसको हाथ में रखकर घुमाने मात्र से वह शत्रु को पहचान कर स्वयं उसे भेद कर उसका पीछा कर उसे समाप्त कर देती थी। कुछ इतिहासकारों के अनुसार वीर पाण्ड्य कट्ट ब्रहम्मा के अनुज के पास भी ऐसा ही अलौकिक खड्ग हुआ करता था। 

  4. नरसिम्हा रेड्डी के विश्वास पात्रों में गोसाईंं वेकन्ना और ओड्डे ओबन्ना के पास अलौकिक शक्तियाँ हुआ करती थी। ओड्डे ओबन्ना अपनी हथेली में भविष्य में होने वाली घटनाओं को देख सकता था। अपनी इन शक्तियों के द्वारा उसने कई बार नरसिम्हा रेड्डी की जान बचाई थी 

  5.  साभार: रेनाटी वीरूलू पृ. सं (46) 

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