यथार्थ को प्रतिध्वनित करती कहानियाँ— प्रेम-पथिक 

01-04-2022

यथार्थ को प्रतिध्वनित करती कहानियाँ— प्रेम-पथिक 

डॉ. पद्मावती (अंक: 202, अप्रैल प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक:  प्रेम पथिक 
लेखक: डॉ. पी.आ. वासुदेवन ‘शेष’ 
प्रकाशन वर्ष: नवम्बर २०२१
प्रकाशक: सप्त ऋषि फाउंडेशन,चेन्नई,तमिलनाडु 
मूल्य: १००/ मात्र 

कहानी विधा साहित्य की भाव संप्रेषण की वह सशक्त विधा है जहाँ संवेदनाओं का प्रस्फुटन, संघर्ष और द्वंद्व एक बिंदु पर आकर पाठक को अभिभूत कर देता है जब रचनाकार अपने काल व परिवेश से प्रभावित हर एक छोटी से छोटी संवेदना को जिसने उसके अंतर्मन को उद्विग्न कर दिया है, शब्दों में ढालकर पाठक के सामने परोस देता है। तो माना जा सकता है कि कहानी विधा रचनाकार की अनुभूतियों और अनुभवों का सत्यापित दस्तावेज़ है जिसे वह साहित्यिक बुनाव देकर उसे यत्र-तत्र अपने मान्य आदर्शों और संस्कारों से संपृक्त कर समाजोन्मुख बनाता है। अगर इस उक्ति को कहानी की परिभाषा मान लें तो यह एक पक्षीय ही मानी जाएगी क्योंकि यह तो हुआ साहित्य का आदर्शवादी पक्ष। आज का सजग लेखक केवल एक ही पक्ष का समर्थक नहीं बना रह सकता। आज वह वांछित आदर्शवादी वायवीय दुनिया में रहकर साहित्य की रचना नहीं कर सकता। आज के परिवेश में आधुनिकता के सम्मोहन से उत्पन्न मूल्य संक्रमण की प्रक्रिया से वह अनभिज्ञ भी नहीं रह सकता। उसका रचनात्मक संसार यदि एक तरफ़ उसका भोगा हुआ यथार्थ है तो दूसरी ओर आज की पीढ़ी का सच भी है, जिससे वह मुँह नहीं मोड़ सकता। इसीलिए आज का रचनाकार अपने लेखन में सामयिक समाज में घटित हो रही हर स्थिति से मुठभेड़ करता दिखाई देता है फिर चाहे वो बाहरी परिवेश हो या उसका आंतरिक अंतर्द्वन्द्व। इस संघर्ष में वह गिरता है, उठता है, घायल भी होता है और उन विसंगतियों का विरोध भी करता दिखाई देता है। परम्परावादी सोच और आज के दौर का सच आपस में टकराते है, संघर्ष होता हैं जो क्षोभ और तनाव को जन्म देता है। इसी कारण आज की कहानी बदलते हुए परिवेश में मूल्य संक्रमण जनित अधुनातन दृष्टिकोण से पाठक को रूबरू कराती हुई चल रही है। 

कहानी में लेखक के पास स्पेस होता है . . . जिससे वह अपनी बात विस्तार से रख सकता है लेकिन लघु कथा के लेखक से गागर में सागर भरने की प्रतिभा की अपेक्षा की जाती है। अर्थ की गहराई विस्तार से नहीं व्यंजना से ध्वनित होने पर ही वह सही मायने में लघु कथा मानी जा सकती है। सांकेतिक ध्वन्यात्मकता लघु कथा की अनिवार्यता कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। और इसी उक्ति को साकार करता हुआ कहानी संग्रह है चेन्नई के वरिष्ठ रचनाकार डॉ.। वासुदेवन शेष का ‘प्रेम-पथिक’ जिसका प्रकाशन शारदा सप्तऋषि फ़ॉउंडेशन द्वारा गत वर्ष नवम्बर में सम्पन्न हुआ था। संग्रह में तिरेपन लघु कथाएँ है जो अनुभव की भाव भूमि पर लिखी गई है। संग्रह की कथाओं को पढ़कर लगता है कि ये लघु कथाएँ किसी न किसी मनोवैज्ञानिक सत्य को उद्घाटित कर रही है। हर पात्र सच्चाई से गढ़ा हुआ है जो परिस्थिति का शिकार बन अभिशप्त जीवन जीने को विवश है। मन की गहराई में उतर जाने के कारण ये कथाएँ पाठक के अंतर्मन को झकझोर देती है। लेखक का अनुभव विस्तृत है इसी कारण इन कथाओं में चिंतन, अनुभव और यथार्थ की अभिव्यक्ति है। संरचना की दृष्टि में ये भले ही लघु कथाएँ है पर इनमें कई सामयिक मुद्दों को उठाया गया है। आज की शती का चिरस्थाई अभिशाप जाति वर्ग भेदभाव, असमानता, राजनैतिक भ्रष्टाचार और तदजन्य व्यवस्था की दोहरी मार में पिसते आम आदमी की पीड़ा, भूमण्डलीकरण और बाज़ारवाद में वस्तु बन जाते हुए मनुष्य की विडंबना, अति आधुनिकता के मोह में लुप्त होते आज की पीढ़ी के संस्कार, मूल्य ह्रास। नैतिक पतन, आर्थिक परवशता के कारण परिवार में वृद्धों की चिंताजनक स्थिति, स्वार्थ पूरित अहम्मन्यता से लिप्त आत्मीय ऊष्मा से रिक्त संबंधों की विद्रूपता, अर्थाभाव के कारण गाँव से पलायन कर शहरों में अजनबियों का जीवन जीते हुए मनुष्य की पीड़ा, नारी उत्पीड़न और उसका संघर्ष इत्यादि अनेक विषयों को इन कहानियों में स्थान मिला है। हर कथा का समीचीन शीर्षक, सहज शब्दावली, प्रभावी कथानक, सरल शैली में व्याख्यायित होती लेखक की अंतर्दृष्टि पाठक के दिमाग़ पर असरदार प्रभाव छोड़ती है। 

इनकी कथाएँ कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कहती है। समाज सापेक्ष सृजनात्मक क्षमता ने जीवन के सभी पहलुओं को छुआ है। कहानियों के पात्र साधारण से लोग हैं जो दिखते तो साधारण हैं लेकिन समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए सभी अंतर विरोधों से टक्कर लेते हैं। इतना ही नहीं अपनी न्यूनताओं और सीमाओं के साथ सभी चुनौतियों के विरुद्ध संघर्षरत और उद्यमी भी दिखाई देते हैं। विवशता और कमज़ोरियों के बावजूद हार मानने को तैयार नहीं। संग्रह में ‘सच्चा मार्ग’, “सुखी कौन’, और ‘तनाव’ जैसी कहानियाँ विषम परिस्थितियों से जूझते चरित्रों के अदम्य स्वाभिमान का परिचय देतीं हैं। कहानी ‘तनाव’ में सिद्धांतवादी महेश अपने आदर्शों पर अटल रहना चाहता है। वह अपने मूल्यों को छोड़ने को तैयार नहीं है जिस कारण कार्यालय में घूस देकर नौकरी पाए अफ़सर के स्वागत हेतु किए आयोजन में अनुपस्थित रहकर उस भ्रष्टाचारी की प्रशंसा करने के गुनाह से अपने आपको बचा लेता है। वहीं दूसरी ओर स्वार्थ पूरित विकृत व्यवस्था पर चोट करती कहानियाँ हैं, “सरकारी मुआवजा’, “नया सूरज’, “आरक्षण’, “कर्फ्यू’, “तबादला’, “प्रसन्नता का राज’ और ‘परजीवि’ जहाँ बेरोज़गार युवा दो वक़्त की रोटी कमाने के लिए अपने संस्कारों के साथ समझौता करने को तैयार जाता है। यही विडंबना आज का सच है। 

आधुनिक पीढ़ी समाज का भविष्य है। ऐसी पीड़ी आज पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण कर अपने संस्कारों से दूर भाग रही है। नई पीढ़ी की सोच में आए मूल्य ह्रास आज के समाज की सबसे बड़ी चुनौती है। इतना ही नहीं वह अपने बुज़ुर्गों के प्रति भी संवेदनहीन होती जा रही है। संग्रह में जहाँ ‘अनूठी जीत’, “अंतर’, सम्मान’, “सिकुड़ती संवेदनाएँ’ जैसी कहानियों में हृदयहीन होती युवाओं की उच्छृंखल मानसिकता को अभिव्यक्ति मिली है वहीं उपेक्षित बेसहारा वृद्धों की दयनीय विवशता से दुर्व्यवहार की त्रासदी को अनावृत करती हुई कहानियाँ हैं ‘विधि-विधान, आँख का तारा, विधवा की झोंपड़ी, और वसीयत नामा’, जहाँ दम तोड़ते रिश्तों की रिक्तता पाठक को क्षुब्ध कर देती है जब कुत्तों को गाढ़ी मलाई वाला दूध और घर के बुज़ुर्ग को पतला मिलावट का दूध पिलाया जा रहा है। ‘पितृ मोह’ कहानी में बेटों का अपने वृद्ध पिता को पेंशन ऑफ़िस ले जाने के लिए महीने में एक दिन नहला धोकर तैयार करना मूल्य विघटन की पराकाष्ठा को दर्शाता है। ये कथाएँ आत्मीय संवेदना के विलुप्त होने की गूँज है। महामारी के दौर ने हमें बहुत कुछ दिखाया है। संबंधों में बिगड़े समीकरणों की वास्तविकता का परिचय कराया है। संग्रह की कहानियों के ये पात्र आज के युग और समय से सम्पृक्त होने के कारण यथार्थ बन पड़े है। 

पुस्तक में कई कहानियाँ गाँव की मिट्टी से भी जुड़ी लिखी गई हैं। लगता है लेखक का रचनात्मक संसार गाँव के परिवेश से अभिभूत है। इन कहानियों में ग्रामीण जीवन अपनी पूरी सच्चाई के साथ उभर कर आया है। ‘मोह भंग, जागीर, मज़बूत जड़ें‘ कहानियों में लेखक ने गाँव की सौंधी मिट्टी की सुगंध को पाठक तक भी पहुँचा दिया है। वर्ग चेतना और संघर्ष को रेखांकित करती कहानी है, “एक मुट्ठी चावल’ जहाँ लेखक क्षुब्ध है ऐसी स्थितियों से जहाँ, “सरकारें आई और गईं पिछड़े शोषित पद दलित के भाग्य में कभी सवेरा नहीं हुआ।” (पृ। सं 100) परिस्थितिजन्य विषमताओं को भोगता हुआ कमज़ोर वर्ग, उसकी छटपटाहट और दैन्यता को उजागर करने वाली एक और मार्मिक कहानी है ‘जन्म’ जहाँ शोषक वर्ग का अन्याय और उत्पीड़न नेक और ईमानदार व्यक्ति को अपराधी बना देता है। 

नारी अंतर्मन के वैचारिक अंतर्द्वंद्व को व्याख्यायित करती लघु कथाएँ है, “सूनी गोद’, “अभागिन’, “दो कलियाँ और विधवा’, “माता-विमाता’, “सत्संग’, “कच्चे धागे’ जहाँ नारी की छटपटाहट है, विवशता है, मजबूरी है, संघर्ष है, और प्रतिरोध भी है। लेकिन इन स्थितियों में भी वह लड‌ना चाहती है, जीना चाहती है। विषमताओं और विसंगतियों का विरोध करना चाहती है। लेखक नारी को अबला के रूप में नहीं ‘आज की सावित्री’ के रूप में प्रस्तुत करने के पक्षधर है। 

कहा जा सकता है इनकी कहानियाँ पाठक को समाज का आईना दिखाने में सक्षम है। ये कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं को उद्घाटित करने में सफल रही है। अनुभूति की सच्चाई और परिवेश के प्रति सजगता ने लघु कथाओं के व्यंग्य को तीखा कर दिया है। सहज संप्रेषणीय बोधगम्य भाषा ने कहानियों को रोचक बना दिया है। कथ्य को सार्थक अभिव्यंजना मिली है। और एक विशेषता इस संग्रह की है कि लेखक ने कहीं भी अपनी विचारधारा को पाठक पर अनावश्यक रूप से थोपने का प्रयत्न नहीं किया है। जीवन और जगत से जुड़ी ये लघु कथाएँ हिंदी जगत में लंबे समय तक पढ़ी जाएगी। लेखक बहु-भाषी है, सम्पूर्ण भारत की यात्रा उन्होंने की है, प्रदेशों का विस्तृत अनुभव उनके पास है जिस कारण यह लघु कथाएँ‘ कल्पना के वायवीय लोक को छोड़कर यथार्थ वादी अनुभवों के धरातल से जुड़ी है। यह संग्रह कथा प्रेमियों के लिए अवश्य संग्रहणीय है।  

1 टिप्पणियाँ

  • डा पद्मावती का आभार व्यक्त करता हू उन्होने बेहतरीन समीक्षा मेरे लघुकथा-संग्रह की है। उनकी समीक्षा ने संग्रह को सम्मान मिल रहा है। धन्यवाद मेडम

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