उड़न खटोला

डॉ. पद्मावती (अंक: 216, नवम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

ईरज हर दिन उससे एक ग़ुब्बारा ख़रीदता था और वह गुब्बारेवाली हर शाम उसकी प्रतीक्षा करती थी। दरअसल दोनों के लिए यह दैनंदिन अनिवार्यता बन चुकी थी। 

दिन पूरा शाम ढलने की प्रतीक्षा में बीतता और शाम होते जब पंछी अपने घोंसलों की ओर उड़ान भर देते, नेकलेस रोड पर बने पार्क पर जाने की उसकी ज़िद शुरू हो जाती। पार्क पहुँचते ही मीरा अपनी सहेलियों में व्यस्त हो जाती और वह वहाँ पाषाणी हिरण, जिराफ़ और मछलियों पर बैठ वायवी उड़ान के मज़े लेता। कुछ देर पार्क की नर्म घास पर उछल कूद, फिसलन पट्टी पर सर्र से फिसलन, झूले का हिंडोला और एक गुलाबी आइसक्रीम का, मछली की आकृति में गढ़ी पट्टीनुमा बेंच पर बैठ कर, धीरे-धीरे चूस-चूस कर रस लेना तो उसकी नियमित दिनचर्या बन गया था। राजेश ऑफ़िस से सीधा वहीं पहुँचता और तीनों वापस घर की ओर प्रस्थान करते। हर शाम इस कार्यक्रम में किसी एक भी घटक का उल्लंघन उस ‘चार साल’ के अबोध के लिए अस्वीकृत था। सिलसिलेवार हर एक औपचारिकता का निर्वाह होता और फिर आनंद का अंतिम पड़ाव बनता गुब्बारा संक्रयणम् . . . 

गोल मटोल हवादार हल्का फुल्का रंग-बिरंगा ग़ुब्बारा। यह तो उसका सबसे प्रिय परिग्रह था लेकिन अल्प आयु जीव यह ग़ुब्बारा बड़ा ही धृष्ट निकलता था। 

बेवफ़ा . . . छाती से चिपटा कर प्यार जताते ही साथ छोड़ जाता। फटाक . . . 

बड़ा ही निर्मोही, निर्दयी। 

अक़्सर घर आने से पहले ही वह स्वर्गारोहण कर चुका होता था और फिर हर रात उसकी याद में आँसू बहाए जाते थे। गुलाबी गालों पर आँसू ढुलकते रहते और माँ की छाती से चिपट कर उस धृष्ट ग़ुब्बारे की कई शिकायतें की भी जातीं। माँ पुचकारती रहती और वह रोता रहता। देर रात तक रोते-रोते अगले दिन होने वाली पुनः मिलन की मीठी कल्पना में नन्हे की हर रात बीतती थी। 

ईरज ने आज भी खेल-कूद के बाद लाल रंग का ग़ुब्बारा ख़रीदा और नरम मुलायम उँगलियाँ ने सँभाला भी . . . पर आज तो हद ही हो गई . . . ग़ुब्बारे से बँधा तागा ही बदमाश निकला। देखते-देखते उसकी गिरफ़्त से सर्र फिसल गया और उड़ चला दूर आकाश में . . . हवा के उड़न खटोले पर बैठ कर। 

“अरे . . . अरे अरे! ग़ुब्बारा कैसे उड़ गया? कैसे हाथ से छूट गया . . . देखो . . . देखो,” गुब्बारेवाली खिलखिला कर हँस पड़ी। 

नन्ही-नन्ही आँखों में मोटे-मोटे आँसू आ तो गए पर होंठों पर मुस्कुराहट सजी रही। नासमझ, समझ भी न सका कि क्या हुआ, क्यों ग़ुब्बारा उड़ चला। कैसे हाथ से छूट गया? 

बात सँभालनी थी वरना वह तेज़ आलाप लेने की मुद्रा बना रहा था! 

“औफ्फो कोई बात नहीं लाला . . . कोई बात नहीं। वह ग़ुब्बारा . . . ढीठ‌ ग़ुब्बारा . . . शरारती कहीं का। कोई बात नहीं . . . राजा। पता है वह कहाँ गया?” वह दूसरा ग़ुब्बारा निकाल कर जल्दी जल्दी फुलाने लगी। 

“काँ गया?” रुंधी आवाज़ में उत्कंठा . . .

“तुम बताओ?” उसने उसकी ठुड्डी पकड़ कर पुचकारा और ग़ुब्बारा तागे में लपेट कर बाँधने लगी। 

“नईं तुम बताओ?” 

“ह्म्म्म्म् . . . भाग गया।” 

नन्हे की आँखों में अविश्वास की रेखा उभर आई। आँखें सिकुड़ गईं और बोला, “नईं वो खो गया।”

“अरे वाह लाला . . . क्या बात कही . . . सही कहा। मुन्ने का हाथ जो छोड़ दिया . . . है न?” यह वाक्य शायद उसे कुछ तृप्त कर गया। हल्की सी मुस्कान आने लगी होंठों पर। 

“तो फिर तुम बताओ लल्ला . . . क्या तुम भी कभी माँ-बाबा का हाथ छोड़ कर खो जाओगे ग़ुब्बारे की तरह? भागोगे इधर-उधर पार्क में?” 

वह सोच में पड़ गया। मन में शायद डर आ गया था। उसने एक बार फिर आकाश की ओर देखा और ज़ोर से सर हिलाकर असहमति जताई, “नईं . . . ई . . . ई।” 

“वाह लाला . . . तुम तो बहुत समझदार हो। ये रहा तुम्हारा ग़ुब्बारा अब की बार कस कर पकड़ो! ठीक?” उसने उसे खींच कर माँ की ओट से बाहर निकाला और बायीं उँगली में गुब्बारा लपेट दिया। 

“औ’ वो।” नादान मन अभी थी वहीं लगा हुआ था। 

“आने दो उसको नीचे . . . ख़बर लेंगे उस शरारती की . . . ख़ूब पिटाई होगी।” 

मुरझाया फूल खिलखिला कर हँस पड़ा। उसकी नन्ही उँगलियों ने माँ की उँगली को कसकर पकड़ लिया . . . उस अबोध को अब हाथ छूटने पर खो जाने का अहसास शायद हो गया था।

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