पिंजरा

01-08-2024

पिंजरा

डॉ. पद्मावती (अंक: 258, अगस्त प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

“ममा। मुझे भी पिंजरा लाकर दो . . . मैं भी लाल चिड़िया के पिंजरे को घर में रखूँगा। आज अभी।” 

रोनी सूरत बनाते ईशान ने आज एलान कर ही दिया। इसी वर्ष उसे पाँचवाँ साल लगा था यानी चार वर्षीय मुन्ना, पर ज़ुबान गज भर की। दिन भर उसकी धमा-चौकड़ी चलती रहती। अब तो वह स्कूल भी जाने लगा था लेकिन वहाँ से भी हर दिन कोई न कोई एक नई शरारत सीख कर घर आता और रमा की नाक में दम कर देता। उसका दिमाग़ था या प्रश्नों की भट्टी, समझ न पाती थी रमा क्योंकि हर क्षण एक नया सवाल पैदा हो जाता था उस ख़ुराफ़ाती दिमाग़ में जिसका जवाब ढूँढ़ते उसकी शाम हो जाती थी। और फिर शाम को वह पार्क जाने के ज़िद करता। क्योंकि एक ख़ासियत और भी थी ईशान में। और वो यह कि परिंदों से उसे विशेष लगाव था। इसीलिए पार्क जाकर कुछ देर वहाँ पहले वह झूले पर झूलता और फिर साँझ ढले घने पेड़ों के झुरमुट में डालियों पर मचलते-कूदते शोर मचाते बड़ी-बड़ी चोंच वाले पंछियों को बड़े विस्मय से देखता और ख़ुश होता था। पंछियों की चहचहाहट उसे बहुत पसंद थी। और पार्क से लौटते समय गली के छोर पर उस दुमंज़िला मकान के सामने उस के पाँव चुम्बक की तरह चिपक जाते थे जहाँ बरामदे में एक बड़ा सा ख़ूबसूरत लाल पिंजरा था जिसमें लाल-पीली, हरी नीली, चिड़ियाँ चीं-चीं करती शोर मचाती, एक सलाख से दूसरे पर कूदती हुई उछल-उछल कर उसे लुभाती थी और वो माँ की उँगली छोड़ झट से बरामदे में अंदर घुस जाता था जहाँ रहती थी उसकी शम्मी जी। ईशान उन्हें नानी कहता था और वे उसे देखते ही बाँहे फैला कर उसका स्वागत करती, अपना अतिशय दुलार उस पर उँड़ेलती हुई। उम्र तो पचास के आर-पार थी उनकी। पति गुज़र गए थे। एक बेटा था और वो भी देश छोड़ विदेश में बस गया था और शायद एक पोता था मुन्ने की हम-उम्र का इसीलिए मुन्ने को देखते ही पंछी दिखाने के बहाने वे उसे अंदर बुलाती और दोनों पिंजरे के पास बैठे क्या बातें करते ये तो ईश्वर जाने, लेकिन इस बीच रमा के और दो चक्कर ज़रूर पूरे हो जाते थे गली के। पर आज जब अपने पिता के साथ वह बाज़ार गया था तो उसने एक दुकान में पंछियों को बिकते देख लिया था। तभी से एक ही रट लगाए था–लाल-चिड़िया वाला पिंजरा चाहिए तो बस चाहिए। 

रमा ने उसे कितनी बार समझाया कि पक्षी आकाश के प्राणी होते हैं। उन्हें पिंजरे में बाँधने से पाप लगता है। उन्हें खुले आसमान में छोड़ देना चाहिए पर वह अबोध माने तो न। आज तो ज़िद की हद ही हो गई। आज वह मानने के मूड में नहीं था। रमा ने टालने के बहाने से कहा, “ठीक है ईशान . . . कल हम पार्क के किसी पेड़ से पकड़ कर एक चिड़िया को घर लाएँगे बशर्ते अगर वह तुम्हारे साथ आना चाहे तो।” 

वह सशंकित-सा माँ को देखने लगा और मुँह से निकला, “नहीं। दुकान से ख़रीदेंगे।” उस मासूम प्रज्ञा को इस करतब की संभावित सम्भावना पर शायद विश्वास न आया। 

“नो . . . पक्षी को क़ैद नहीं करते!” रमा झल्लाकर चिल्लाई। 

“तो शम्मी नानी के घर में क्यों है?” उसने भी चीख कर कहा। आयतन दोनों का समान-न कम न ज़्यादा। 

अब स्पष्टीकरण आवश्यक था। रमा ने उसे पास खींचते हुए दूध का गिलास पकड़ा कर पुचकारते कहा, “ ईशान मैं शम्मी नानी को भी कहूँगी और तुम्हें भी कितनी बार बता चुकी हूँ कि पंछियों को पिंजरे में रखना पाप है। देखा तुमने पेड़ों पर वे कितने मज़े से अपने साथियों संग मिलकर शोर मचाते हैं? वे उड़ना चाहते है ईशान, उन्हें बाँध कर रखना ठीक नहीं है। रात को अँधेरे में उन्हें पिंजरे में डर भी लगता है। वे दुःखी होकर रोते हैं। तुम उन्हें रुलाना चाहते हो?” 

“नहीं।” वह छिटक कर दूर खड़ा हो गया। “वहाँ मैंने देखा, वे ख़ुश हैं, खेलते हैं। मुझे चाहिए।” 

रमा को समझ न आ रहा था कि उसे कैसे मनाए। उसने बनावटी सख़्ती से कहा, “तो तुम न मानोगे? हाँ? मैंने कहा न कि पिंजरा ख़ुशी नहीं देता . . . तुम्हें समझ नहीं आता? मैं तुम्हें प्यार से समझा रही हूँ और तुम्हें ममा की बात पर यक़ीन नहीं? चलो दूध पियो पहले।” 

उसकी झिड़की का विपरीत असर हुआ और वह और भी भड़क गया। 

“नहीं तुम झूठ बोल रही हो . . . मैं दूध नहीं पियूँगा . . .” ग़ुस्से से उसने गिलास हाथ से उछाल दिया। 

खन्नाक . . .! गिलास धरती पर औंधा गिरा और गाढ़ा दूध ज़मीन पर फैल गया। रमा का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर, त्योरियाँ चढ़ गईं, फुफकारती हुई वह उठी, उसका कान पकड़ चिल्लाई, “शरारती बच्चा, चल आज बताती हूँ तुम्हें। एक घंटा बंद होगा उस बाथरूम में न अँधेरे में तब पता चलेगा . . .। बहुत ढीठ हो गया है . . . टाइम आउट पनिशमेंट। अब नानी याद आएगी . . . चल। शाम को आज पार्क भी कैंसिल . . . समझा।” 

रमा खींचते हुए उसे बाथरूम में ले गई। बाथरूम गीला था तो उसने उसे बाथरूम से ही सटे एक छोटे से कमरे में अंदर धकेल कर बाहर से दरवाज़ा बंद कर दिया। यह घर का वो कोना था जहाँ केवल अनावश्यक सामान रखा जाता था। कमरे में ऊपर एक बहुत ही छोटा सा रोशनदान था जिसमें से हल्की सी रोशनी की एक लकीर अंदर आ सकती थी। ग़ुस्से में उसने यह नहीं सोचा कि दरवाज़ा बंद करने से बिना रोशनी और हवा के कमरा घुटन से भर जाता था। पर ईशान चुपचाप अंदर जाकर खड़ा हो गया। यह सज़ा उसके लिए नई न थी। जब भी शरारत करता था तो बाथरूम में बंद होना पड़ता था पर इस कमरे में वह पहली बार बंद हुआ था। कमरे में नील अँधेरा, हवा और रोशनी न के बराबर। दीवार से सट कर वह चुपचाप बैठ गया। 

रमा फ़र्श साफ़ करने में मग्न थी। कुछ देर घर के काम में वह व्यस्त रही पर नज़रें उसी कमरे की ओर ही लगी हुई थीं। एक बार कमरा खोल कर देखा भी था मुन्ने को। किवाड़ की ओर टकटकी लगाए और मुँह फुलाए वह दीवार से सटकर बैठा हुआ था। उसने सोचा, ‘बैठा रहे ऐसे ही अँधेरे में। ग़लती की सज़ा मिलनी ही चाहिए। खोल दूँगी कुछ देर बाद’। काम से निपट कर वह बरामदे में गई और सामने नज़र दौड़ाई। गली में अजीब शोर था। सड़क के किनारे कुतिया ने जो पिल्ले दिए थे, वे कुईं-कुईं चिल्लाते इधर-उधर भाग रहे थे क्योंकि एक शरारती बच्चे ने अपनी छोटी-सी साइकिल उनकी पूँछ पर चढ़ा दी और अब सब बच्चे मिलकर उन पिल्लों की मरहम पट्टी करने का प्रयत्न कर रहे थे। रमा खड़ी-खड़ी नज़ारे का आनंद लेने लगी। 

शाम गहराई और अँधेरा छा गया। अचानक उसने समय देखा, दस मिनट से ऊपर हो गए थे। सोचा इतना समय काफ़ी है सज़ा का। वह तेज़ी से अंदर गई और दरवाज़ा खोला। जैसे ही दरवाज़ा खुला, ईशान एकदम से उससे लिपट गया, डरा–डरा भयभीत आँखों से सुबकियाँ लेता। शायद अँधेरे से वह डर गया था। रमा को उस पर बहुत दया आई। नन्हे को इतनी कठोर सज़ा देने के अपराध बोध ने आग में घी का काम किया। वह उसे गोदी में उठा कर पागलों की तरह चूमने लगी और तुतलाती माफ़ी माँगने लगी। 

“आइ एम चो चॉरी ईशान . . . सो सॉरी . . . पर तुम ममा को सताते ही क्यों हो? ममा को तुम्हें सज़ा देना क्या अच्छा लगता है . . . बोलो?” वह उसे चूमती जा रही थी और ईशान तो गोंद की तरह उससे चिपक-सा गया था कसकर उसे पकड़े। 

“तुम्हें चिड़िया चाहिए . . . यही न?” रमा ने प्यार से उसकी पीठ सहलाते पूछा। वह चुप रहा। रमा ने सोचा वह डरा हुआ है। अपने आप सँभल जाएगा। 

पर वह तो अगले ही पल सिर उठाकर बोला, “हाँ।”

“अच्छा बोलो जब ममा ने तुम्हें बंद कर दिया था तो तुम्हें अच्छा लगा था?” 

उसने कुछ सोचा और जवाब में सिर आड़े हिला दिया। 

“तो क्या चिड़िया को बंद कर देंगे पिंजरे में तो क्या उसे अच्छा लगेगा?” 

वह असमंजस में उसे देखने लगा। 

“न बेटा। पिंजरे में वो भी डर जाएगी जैसे तुम डर गए थे और जब डर लगेगा तो रोएगी भी। अब बोलो . . . अब भी चाहिए?” 

उसने मुंडी स्वीकारोक्ति में हिलाई और मुँह से निकला ‘न’ . . . रमा मुस्कुरा कर रह गई। 

♦    ♦    ♦

अगले दिन दोनों शाम को सैर पर निकले। पार्क गए, पंछी देखे और लौटते समय यंत्रवत ईशान फिर शम्मी नानी के घर के आगे रुक गया पिंजरे की ओर ताकता। वहाँ दो ही चिड़ियाँ थीं। 

“आज पूरन पोली बनाई थी रमा, मुन्ने को पसंद हैं न, ये लो इसे खिलाओ और एक तुम्हारे लिए भी। बैठो इधर,” शम्मी नानी की रोज़ की आदत, कुछ न कुछ लेकर तैयार रहती थी मुन्ने को खिलाने। आज भी खड़ी थी हाथ में प्लेट लेकर। 

रमा ने मुन्ने को एक पोली दी और ख़ुद एक टुकड़ा उठाकर मुँह में रख शम्मी जी से बतियाने बैठ गई। 

“नानी दो चिड़िया कहाँ गईं?” मुन्ने ने पास आकर उत्सुकता से पूछा। 

“उड़ गईं,” शम्मी जी बात पलटती बोली, “छोड़ो, तुम पोली खाओ राजा।” 

आसमान में कालिमा गहराने लगी। शम्मी जी ने बरामदे में लाइट जला दी। दूधिया प्रकाश से बरामदा नहा उठा। 

“कल ईशान बहुत ज़िद करने लगा था आंटी कि इसे भी पिंजरा चाहिए, लाल चिड़िया चाहिए। आजकल बहुत शैतान हो गया है। बहुत बदमाशी करने लगा है . . . पता है कि कल . . . कल क्या किया इसने?” रमा बोले जा रही थी और शम्मी जी हौले-हौले मुस्कुराती उसकी बातों का रस ले रही थी। 

“क्या कांड कर दिया नन्हे ने?” उन्होंने हँसते हुए पूछा। 

“कल तो पूरा का पूरा दूध नीचे गिरा दिया इसने जानबूझकर . . . और बंद हो गया अँधेरे कमरे में . . . सज़ा दी मैंने। पर हाँ आंटी दो चिड़ियाँ कहाँ गईं? दिख नहीं रही हैं?” रमा ने पिंजरे की ओर इशारा करते कहा। 

“चिड़ियाँ . . .? मर गईं। रात को दो चिड़ियाँ मर गईं। पिंजरे में मैंने एक दर्जन से अधिक चिड़ियाँ पालीं थीं और एक-एक करती वे मरती चली गईं। और पता है जब एक चिड़िया मर जाती है तो उसकी साथी चिड़िया भी कुछ ही घंटों में मर जाती है, हम इंसानों की तरह नहीं,” शम्मी जी के आँखों में नमी तैर आई। 

“सोच रही हूँ कि इन दोनों को भी उड़ा दूँ। शायद ये जीवित बच जाएँ। दुःख होता है उन्हें इस तरह मरते देखकर,” आज उनका लहजा काफ़ी बिखरा-बिखरा लग रहा था। 

ईशान उन दोनों की बातों से निर्लिप्त पिंजरे के पास तख़्ते पर खड़ा ध्यान से उन चिड़ियों को देख था। दरअसल पिंजरा कमरे की छत से लटकती एक लंबी लोहे की ज़ंजीर से बँधा हुआ था। वहाँ लकड़ी का एक पाटा था जिस पर खड़े होकर ईशान चिड़ियों को देखता था। 
अचानक पता नहीं क्या सूझा मुन्ने को, उस ने धीरे-से पिंजरा खोल दिया। दोनों चिड़ियाँ कुछ पल पहले तो वहीं बैठी रहीं फिर थोड़ा-सा कूद कर आगे आईं और सावधानी से उस छोटे से दरवाज़े से निकल कर पंख फड़फड़ाती फुर्र से उड़ गईं। पंखों की फड़फड़ाहट से दोनों को ध्यान बँटा और इससे पहले रमा या शम्मी जी उठकर पिंजरा बंद करतीं, दोनों चिड़ियाँ एक दम से उड़ कर घर से बाहर सड़क पर लगे बिजली के खंबों की तार पर जा बैठीं। रमा स्तब्ध—सोचा ही न था कि ईशान ऐसा भी कर सकता है। कितनी महँगी चिड़िया थी, फुर्र से उड़ा दी। वह सकपका गई। कुछ सूझ ही न रहा था कि क्या कहे? बनावटी ग़ुस्सा दिखाती उस पर चिल्लाई, “ईशान . . . भूल गए कल की सज़ा। ये क्या किया तुमने? जानते हो कुछ?” शर्मिंदगी से उसके शब्द गड़बड़ाने लगे। 

“ममा . . . “ मुन्ने ने भोलेपन से अपनी तर्जनी उठा कर कहा, “ममा आप ही ने तो कहा था न कि चिड़िया को पिंजरे में नहीं रखते, वे भी डर जाएगी अँधेरे में . . . अब वो देखो,” उसने बाहर तार पर बैठी चिड़ियों की ओर उँगली करते कहा, “अब उसे कोई डर नहीं लगेगा।” 

इतने में एक चिड़िया तार छोड़ कर उड़ चली तो दूसरी ने भी उसके साथ उड़ान भरी और देखते-देखते दोनों सफ़ेद बादलों को चीरती हुई आँख से ओझल हो गईं। 

“उड़ गई . . . उड़ गई? वह तख़्ते से उतर ताली पीटता कूदने लगा। 

रमा को तो जैसे काटो तो ख़ून नहीं। वह शम्मी जी की ओर आँख उठाकर देख न पा रही थी। हाथ में पोली का टुकड़ा अभी भी था यानी जिस थाली में खाया उसी में . . .। वह धरती में धँसी चली जा रही थी लेकिन वहीं यह सोच तरंगित भी किए जा रही थी कि ईशान पिंजरे में बंद परिंदे की तड़प को कितनी आसानी से समझ गया। बड़ी मुश्किल से सिर उठा कर अपने आपको सहज बनाते बोली, “आंटी माफ़ कीजिए, मैं राकेश से कहकर फिर से नई चिड़ियाँ खरीदवा . . .” 

“नहीं रमा . . . नहीं।” सूनी आँखों से मुन्ने की ओर देखती वे बोली, “ईशान सही कह रहा है रमा। अपना अकेलापन दूर करने के लिए किसी स्वछंद प्राणी को क़ैद करना कितनी बड़ी मूर्खता थी। पता है . . . उन्हें उड़ता देख जितना सुकून मिला, इतना तो उन्हें पालने में भी न मिला था और जो मैं सालों से न कर पाई, नन्हे ने पल में कर दिखाया। चाहता तो यह भी था न इन्हें। पर इसकी चाहत पर स्वार्थ का रंग न चढ़ा था। इसीलिए उन्हें उड़ाने की हिम्मत कर दी उसने, जो मैं न कर पाई थी।” 

ईशान कुछ समझ न पा रहा था। चुपचाप बारी-बारी दोनों की ओर देखता रहा। 

शम्मी जी उठी और प्यार से उन्होंने मुन्ने को गोद में ले लिया। उसे चूमती बोली, “तो ईशान, फिर इस पिंजरे का क्या करेंगे? . . . इसमें किसको रखेंगे?” 

ईशान अब आश्वस्त हो गया था पर कुछ देर वह चुप रहा और फिर अपनी नन्ही हथेली से उनका गाल सहलाता धीरे से बोला, “मेरे अप्पू हाथी को। नानी मैं कल लेकर आऊँगा . . . उसे रखेंगे।” 

शम्मी जी की हँसी छूट गई। हँसी रोककर वे गंभीर स्वर में बोली, “हाँ . . . बिलकुल सही ईशान . . . लगता है आज के बाद यह पिंजरा तुम्हारे अप्पू के लिए ही ठीक रहेगा।” 

1 टिप्पणियाँ

  • बाल मनोविज्ञान और प्रकृति संरक्षण पर अच्छी कहानी! बधाई पद्मावती जी!

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