विस्मृति
डॉ. पद्मावतीप्रकृति की गोद में बसी जन जातियाँ। निष्कपट और साफ़ दिल। आज भी आधुनिकता से दूर नैसर्गिक जीवन जीती हुई। कष्टतर परिस्थितियों को झेलने पर मजबूर। उपेक्षित, अशिक्षित, अपने संवैधानिक अधिकारों से अनभिज्ञ। इस आदिवासी समुदाय की महिलाओं की स्थिति तो और भी बदतर। घर बाहर दोनों स्थलों पर दोहरा शोषण। अपनों से ही ठगी और चुप रहने को विवश। ऐसी ही एक अशक्त नारी की बेबसी को शब्द देती कहानी . . . आगे पढ़िए —
बात उस समय की है जब मेरी नियुक्ति हुई थी एक पहाड़ी इलाक़े में और मैंने किराए पर यहाँ घर ले लिया था जो गाँव से कुछ दूरी पर अलग-थलग था। अनंतपुर ज़िले का एक आंतरिक गाँव या छोटा सा क।क़स्बा। घर के बाहर नाम की तख्ती टाँगते हुए गर्व से सीना तन गया था जिस पर लिखा था, ‘सीता भारद्वाज‘ प्रबंधक, ग्रामीण बैंक, आंचलिक शाखा ’!
स्थान बड़ा ही मनोरम, रमणीय और शांत था! एक छोर पर्वतीय घाटियों से घिरा हुआ था, तो दूसरी ओर दूर तक खेतों पर हरियाली नज़र आती थी । पास ही कल-कल बहती हुई बड़ी सी नहर थी जिसे पार करने के लिए कभी-कभी छोटी सी मोटर बोट शांति को भंग करती हुई घर्र-घर्र की आवाज़ निकालती हुई चलती थी।
एक रहस्यमयी चुप्पी को घेरे हुए था पूरा माहोल। इन रमणीय नज़ारों से बेहद लगाव हो गया था। काम के उपरांत मैं हमेशा बरामदे में बैठी पुरानी पत्रिकाओं के पन्ने उलटती रहती थी। यहाँ घरों में हाथ बँटाने के लिए काम पर अधिकतर आदिवासी महिलाएँ ही आतीं थीं। बाद में पता चला कि पास के पहाड़ी इलाक़ों में कई जन जातियाँ बसी हैं लेकिन वहाँ सुविधाओं और रोज़ी-रोटी के अभाव के कारण काम की तलाश में उन्होंने धीरे-धीरे गाँवों और क़स्बों की ओर रुख़ कर लिया है ।
मेरे घर में भी काम करने वाली कांता बाई ऐसी ही आदिवासी महिला थी जो बहुत ही ईमानदार और नेकदिल थी। विधवा, लाचार और बेबस। दिन-रात काम करके भी अपना पेट भरने में असमर्थ। ग़रीबी के अभिशाप से ग्रस्त। इसकी बेटी मल्ली, दामाद और उनके तीन बच्चे यहीं रहते थे। दामाद बेकार था। कभी भी जब कटाई-बोवाई होती थी खेतों में तो ज़मींदार का बुलावा आता और काम मिल जाता था। । वरना तो केवल घर बैठ कर मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ता था। हाँ, कभी-कभी ज़मींदार अपने बहुत व्यक्तिगत रहस्यमयी कामों के लिए इसे बुलवा भेजता था। जो केवल इसी के द्वारा संपन्न हो सकते थे। राम जाने क्या काम होते थे। जहाँ तक मैं समझती हूँ मल्ली की कच्ची उम्र नहीं जानती थी इन पेचीदगियों को, लेकिन हाँ, कान्ता बाई को अच्छी ख़बर थी कि उसका दामाद क्या गुल खिला रहा है। मेरे पास आकर कभी-कभी धीमे स्वरों में मुझे वह पूरी रामकहानी सुनाती थी जिसकी ओर मैं कभी ध्यान नहीं देती थी।
इसकी बेटी मल्ली सचमुच रूप का ख़ज़ाना थी। कम उम्र में ब्याह, पच्चीस तक पहुँचते तीन-तीन बच्चों की माँ बन चुकी थी जिनकी आयु क्रमशः आठ, छह और तीन साल की थी। बच्चे नंग-धड़ंग, हमेशा मिट्टी-कीचड़ से सने हुए, गिल्ली-डंडा खेलते, गलियों में शोर मचाते हुए फिरते थे। बड़ी मुश्किल से मैंने इन्हें स्कूल में भरती करवाया था और इसी कारण कांताबाई और उसकी लड़की मेरा बड़ा उपकार मानती थी। आजकल स्कूल की यूनिफ़ोर्म और जूते पहन कर बच्चे ढंग से स्कूल जा रहे थे।
मल्ली के हाथों में जादू था; बाँस की टोकरियाँ ख़ूब बनाती थी। मेरे लिए भी लेकर आई थी सुंदर कलाकारी से बनी कई रंगों में पुती एक छोटी सी टोकरी।
शाम के छह बजे थे। थोड़ा सुस्ताने को मन कर रहा था। आकाश पर गुलाबी लालिमा लुप्त रही थी। उठकर चाय बनाने की सोची। इतने में कांताबाई तेज़ रफ़्तार से खट-खट की आवाज़ करती घर में दाख़िल हुई। उसकी अनावश्यक बातचीत से बचने के लिए मैंने अपना सिर फिर से पुस्तकों में गड़ा दिया क्योंकि मैं जितना गंभीर होने का प्रयत्न करती थी, वो उतनी तन्मयता से मेरा ध्यान भंग कर देती थी।
घर में घुसते ही कांताबाई ने ऊँची आवाज़ में कहा, "दीदी सुनो, मेरी मल्ली बाहर जा रही है, काम के लिए। मिल में काम करेगी। खूब पगार मिलेगा।"
मैंने ध्यान नहीं दिया, अनसुना कर दिया।
उसे मेरी उदासीनता अच्छी नहीं लगी। ग़ुस्सा भी आया और वह खिन्न होकर चली गई। फिर तेज़ आवाज़ करती हुई पटक-पटक कर बर्तन धोने लगी।
मैंने सर उठाकर पूछा, "अरे, क्या हुआ? इतनी आवाज़ क्यों कर रही हो? आज कुछ तोड़ देने का इरादा है क्या? हाँ, तू क्या बोल रही थी, कहाँ जा रही है तू?"
उसने वहीं से चिल्ला कर कहा, "न दीदी, पहले आप अपना काम कर लो। हमारी कौन पूछे, हम बाद में बोल देंगी।"
मैंने कुछ नरमी से कहा, "अच्छा बता, क्या बात है?"
"मेरी मल्ली बिदेस जा रही है मिल में काम करने को। हमारी बस्ती की बहुत सारी लड़कियाँ हर साल जाती हैं और बहुत कमाकर भेजती हैं। देखना मेरी मल्ली भी छ्ह महीने के अंदर हमारा सारा कर्जा दूर कर देगी," उसने चुटकी बजाते हुए कहा।
“कहाँ और क्या काम करेगी तेरी मल्ली? काला अक्षर भैंस बराबर, न पढ़ी न लिखी, इसे क्या काम करना आयेगा?" मैं हँस दी।
"न दीदी, वहाँ जो सब जा रहीं हैं वे क्या पढ़ी-लिखी हैं? सब जाती हैं और वहाँ काम के लिए पढ़ना जरूरी नहीं।"
"तो तू चली जा न, तीन-तीन बच्चों की माँ को क्यों भेज रही है?" मैंने किंचित आशंकित होकर कहा।
"आप भी न दीदी, नादान हो! वहाँ मुझ जैसी बूढ़ी का क्या काम?"
"तो इसके मरद को भेज दे, गबरू जवान है, यहाँ क्या घास छील लेगा?"
"न केवल लड़कियों का ही मिल है, केवल वही जा सकती हैं," उसने बात ख़त्म करने के लहजे में कहा।
फिर कुछ सोचती हुई बोली, "दीदी वो गिरिधर है न . . . "
मैंने बीच में टोकते हुए कहा, "कौन . . . ? वह छटा हुआ बदमाश जो छ्ह महीने जेल में रहता है, क्या हुआ उसे?"
"हाँ दीदी, वह ही तो मेरे दामाद का यार है। बड़े मालिक से भी जान-पहचान है। बड़े मालिक तो देवता है देवता। जब भी जाओ, कभी भी किसी भी बख्त, कुछ भी माँगो तो मना न करते हैं। कितना कर्जा चढ़ गया है हमें तो पता भी नहीं। हमेशा बोलते हैं . . . कांता तेरी मल्ली सोना है सोना। ये ही तेरे सब कष्ट दूर करेगी। बहुत उपकार है उनके हम पर। अब वही तो सब लिखा-पढ़ी कर इसे भेज रहे हैं वरना हमें का मालूम है क्या करना है, कहाँ जाना है। दारोगा से भी साँठ-गाँठ है, सब ठीक हो जाएगा," वह आश्वस्त लग रही थी।
मेरा माथा ठनका। हे भगवान! . . . इतना बड़ा धोखा। कैसे इन मासूमों को ठगा जा रहा है और ये नादान क्या समझ रही है। सब जानते हुए भी अनजान बनने का अभिनय वह बख़ूबी निभा रही थी। मेरे एकटक देखने पर वह सकपका गई और जल्दी से काम निपटा कर निकल गई . . . शायद मेरा घूरना उसे नहीं जँचा।
"क्या ये सब तेरी मर्ज़ी से हो रहा है?" मैंने धीरे से मल्ली की ओर देखकर कहा जो बहुत देर से वहीं बैठी ज़मीन में नज़रे गड़ाए हमारी बातें ध्यान से सुन रही थी।
मल्ली ने पलकें उठाईं, कहा, "दीदी क्या करूँ? कई दिनों से मेरा मरद जाने को कह रहा है। रोज मार-पीट, रोज लड़ाई-झगड़ा। और अब तो माँ भी उसी का साथ दे रही है। कर्जा भी बढ़ गया है न इसीलिए। इस बार तो और चार लड़कियाँ भी जा रहीं हैं, अबकी बार न जाऊँ तो फिर न जा पाऊँगी। यह सब होता ही रहता है। यहाँ भी कौन भली हूँ। आये दिन बड़े मालिक का बुलावा आ जाता है। जब भी कोई बड़ा आदमी आता है शहर से तो हमको बुला भेजते हैं।"
"और तेरा मर्द, वो चुप रहता है?" मैंने लगभग चीख़ते हुए कहा।
"दिन भर उनके लिए तीतर-बटेर की तलाश में जंगल में भटकता है और फिर रात को पीकर धुत। और मोटी रकम भी तो मिलती है। फिर क्यों मालिक का हुक्म टाले? मना करने की हिम्मत किस में है यहाँ?
"माँ सब जानती है। चुप है। हमेशा रोती रहती है। कहती है कि कर्जा नहीं होता, तो कभी न भेजती। हमारी बस्ती में तो यह आम बात है। कभी-कभी लगता है कि लड़की होना ही पाप है दीदी पाप।
"सब जानते हैं पर चुप हैं . . . कोई कुछ नहीं कहेगा। ये जो पर्वत देवी है न दीदी जिसकी हम सब संतानें हैं, माँ कहती है कि सब बात अपने पेट में दबा लेती है . . . किसी को कुछ पता नहीं चलता। कल सब भूल जाएँगे। इस बात को भी और मल्ली को भी। किसी को कुछ याद नहीं रहेगा। सब पहले जैसा हो जाएगा।
"और हाँ . . . आप चाय पीना कम कर देना। ये जो हमेशा किताब पढ़ते चाय पीती हो न, कल से कौन बनाएगा . . . ?" एक फीकी से हँसी उसके होंठों पर तैर गई।
"आप भी मल्ली को भूल जाना दीदी . . . आप भी तो उन सब की तरह इंसान ही हो न।"
फिर कुछ सोचते हुए बोली, "मैं भी पागल हूँ . . . मैं नहीं तो कोई और मल्ली आ जावेगी आपके लिए चा . . . "
"नहीं . . . नहीं . . . कभी नहीं . . . " मैं चीख़ उठी, "अब किसी और मल्ली को झेलने की ताक़त मुझमें नहीं है। तू चली जा . . . चली जा तू! और . . . मुझे कुछ देर के लिए छोड़ दे . . . ईश्वर के लिए अकेला छोड़ दे . . . " मैं फफक कर रो उठी।
"चलो छोड़ो दीदी। मैं क्या ले बैठी? शाम के समय रोना अपशकुन होता है। आप चुप हो लो। अब मैं आपसे कुछ नहीं कहूँगी . . . बस आप मेरे बच्चों का ध्यान रखना, जब तक आप यहाँ हो तब तक। हाँ, माँ को कुछ मत कहना। वह भी मजबूर है। पगली है बहुत दुखी। उसने भी बहुत सहा है।
"अच्छा दीदी मैं आज रात को ही जा रही हूँ।
"गिरधर आयेगा और हमें ले जाएगा। आपसे फिर मिलना नहीं होगा . . . ।" उसकी आँखों से मोटे-मोटे आँसू निकल कर गालों पर लुढ़क गए। वह और नहीं रुकी, मुँह में आँचल ठूँस मुझे रोता छोड़ अँधेरे में गुम हो गई। एक और फूल मुरझा गया! दरिंदों की हैवानियत का शिकार बन बेबसी की सूली पर परवान चढ़ गया ।
खिड़की के बाहर अँधेरा गहरा गया था। कब शाम से रात हो गयी भान ही न रहा। बाहर घुप्प डरावना अँधेरा।आसमान काले-काले बादलों से घिर गया। साँय-साँय हवा चल रही थी। लम्बे-लम्बे पेड़ों के तने हवा के थपेड़ों से बुरी तरह झूल रहे थे। . . . रह-रह कर बिजली कड़क जाती और दिल दहलाने वाली प्रतिध्वनि से पहाड़ गूँज जाते। रात आज क़हर ढा रही थी।
मैं खिड़की पर खड़ी भीगी आँखों से अँधेरे में उस दिशा को खोज रही थी जहाँ से मल्ली ओझल हो गई थी। पर वहाँ तो कुछ नज़र नहीं आ रहा था . . . कुछ नहीं . . . था तो केवल घना अँधेरा . . . दिलो-दिमाग़ पर छाया हुआ . . . काश कुछ पलों के लिए ये अँधेरा स्मृति पर भी छा जाता . . . कुछ पलों के लिए ही सही नींद ही आ जाती और यह सब विस्मृत हो जाता . . . काश . . . !
5 टिप्पणियाँ
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Vismruthi....athi sundar shaili ...jo aaj ka adivasi samajik Sach hai, usko darpan dikaatha ek khadan...kab aise lakhon malli ko mukhti milegi???
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संवेदनशील लेखन, बेबस लाचार जनजातियों का संघर्ष उसमें स्त्रियों की असहनीय स्थिति का मार्मिक वर्णन , बहुत खूब मैम
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दिल को झकझोर देने वाली कहानी है। इस सदी में गांव की भोली भाली आदिवासी महिलाओं के साथ यह घटता देख आज की वयवस्था पर क्रोध आता है। नारी होना अपराध नहीं पाप नहीं। पापी और दरिंदे तो वो है जो नारी का शोषण करते हैं। न जाने नारी को इससे कैसे कब मुक्ति मिलेगी। आपको बहुत साधुवाद कहानी आईने की तरह साफ़ है। भाषा शैली प्राकृतिक चित्रण मोहक है
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Aati sundar bahut khub lekhani
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सर्वप्रथम आपकी लेखन कला की कायल हूँ।भाषा शैली एवं प्रवाह तो निश्चल है। रही बात आपका विषय चुनाव, हमेशा बेमिसाल है। संसार की हकीकत को जनजातियों खास कर उस वर्ग की महिलाओं के प्रति जो शोषण हो रहा है उसे तीक्षण शब्दों में उकेरा है। शुभमंगल कामनाएं आपको पद्मावती जी..!
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