तालियाँ
डॉ. पद्मावती
कॉलेज केन्टीन का गरमा-गरम वातावरण। बाहर कड़ाके की ठण्ड अंदर भाप उड़ती चाय की प्यालियों में दुबक कर बैठ गई थी। छात्रों की भीड़ जुटी थी। वैसे तो यह हर दिन का ही नज़ारा होता था लेकिन आज गरमागरम बात यह थी कि कॉलेज के चुनावों में एक महत्त्वपूर्ण उम्मीदवार प्रतियोगिता से हटा दिया गया था और वो था सुहेल . . . एक किन्नर का गोद लिया अनाथ।
“कुछ सुना तुमने? यार वो लँगड़ा हट गया है तुम्हारे रास्ते से,” सोहम ने विवेक की ओर सिगरेट का पैकेट उछालते कहा।
“आज यह फिर पकड़वाएगा। यहाँ नहीं यार . . . बाहर जाकर,” विवेक ने सिगरेट जेब में रख ली और ईशान की ओर मुड़ते बोला, “एक और चाय बोल . . . क्यों नहीं निकलेगा बाहर . . . अंग्रेज़ी में उन्तीस अंक जो मिले थे . . . उंतीस . . . ट्वेंटी नाइन,” ठहाका लगा।
“हेकड़ निकल गई लँगड़े की, बड़ा पढ़ाकू बनता फिरता था . . . कॉलेज का प्यारा, मैडम की आँखों का तारा।” ठहाकों का साथ दिया अब तालियों ने और उनकी आवाज़ इतनी नुकीली कि कोने की सीट पर बैठे सुहेल के कानों के परदे छलनी हो गए। लगा जैसे गर्म-गर्म सीसा किसी ने कानों में उँडेल दिया हो। वह इसी कारण केंटीन नहीं आता था। केंटीन तो क्या, वह तो क्लास से ही बाहर न आता। कितनी मेहनत की थी अपनी नियति को हराने की उसने। पूरा समय और ध्यान केवल और केवल पढ़ाई को समर्पित कर दिया था क्योंकि उसे पता था–जब तक छात्र-वृत्ति मिलती रहेगी, तब तक पढ़ाई जारी रहेगी . . . लेकिन हाय! दुर्भाग्य ने साथ न छोड़ा। और आज बहुत दिनों के बाद मयूर और मनजीत के ज़ोर देने पर चाय पीने आ गया था और तभी यह हादसा! उनका तो हर दिन नियम बन चुका था तालियाँ बजा-बजाकर उसका मज़ाक़ उड़ाने का। उसका प्रतिद्वंद्वी विवेक, अमीर बाप की औलाद, पढ़ने में औसतन, लेकिन अब वह कक्षा में सर्वप्रथम था क्योंकि सुहेल, जो इस साल की अंतरिम परीक्षाओं में हमेशा अव्वल आया और वार्षिकोत्सव में उसके ट्रॉफी जीतने की पूरी सम्भावना बन चुकी थी, अंग्रेज़ी में पता नहीं कैसे अपवाद रूप से फ़ेल हो गया था और उनके परिहास का सामान बन गया था। उसका दोष इतना भर था कि उसकी प्रखर बुद्धि से प्रभावित होकर वह कॉलेज के सचिव पद के लिए मनोनीत कर लिया गया था लेकिन अंग्रेज़ी में आए इन अंकों ने सब कुछ उलट-पुलट कर दिया था। सारी आशाएँ धरी की धरी रह गईं थीं। सारे मंसूबों पर पानी फिर गया था। लज्जा और ग्लानि से वह गड़ा जा रहा था। शीतल मैडम, अंग्रेज़ी की आचार्या, जिनको उसकी योग्यता पर पूरा विश्वास था, उन्होंने कहा भी था उत्तर पुस्तिकाओं की जाँच में कहीं गड़बड़ लगती है। पुनर्मूल्यांकन से ज़रूर नतीजा पलट सकता है। लेकिन एक हज़ार देने की न उसकी औक़ात थी न हिम्मत और अपमान का विष पीना तो उसकी नियति थी।
अचानक देखा सामने से शीतल और कामिनी जी तेज़ी से केंटीन में दाख़िल हो रहीं थीं। वे दोनों सीधा उसके पास आई और शीतल जी तो लगभग चीखते हुई बोली, “अच्छा हुआ तुम यहाँ मिल गए। पता है सुहेल तुम्हें, पुनर्मूल्यांकन का परिणाम निकल चुका है। तुमने देखा अपने फ़ोन पर?”
“नहीं मैडम। मैं क्यों देखता? मैंने तो पैसे . . .” उसके माथे पर बल पड़ गए। वह जानता था शीतल मैडम को काफ़ी हमदर्दी थी उससे।
“वो तो मैं . . . तुम्हें आम खाने से मतलब है कि गुठली गिनने से?” कृत्रिम क्रोध दिखाते वे बोली, “तुम्हें अंग्रेज़ी में उन्तीस नहीं बयानवे अंक मिले हैं लल्लू। यूनिवर्सिटी की अंक सूची आ गई है। तुम क्लास में प्रथम सूची पर हो और इस साल की ट्रॉफ़ी और प्रमाण पत्र तुम्हारे नाम।”
सुहेल को अपने कानों पर विश्वास न आया। वह जड़ हो गया। कुछ क्षण निस्तब्धता। सामने सबके चेहरे पीले पड़ चुके थे।
फिर गूँजी तालियों की आवाज़। मयूर और मनजीत की तालियों की आवाज़ . . . और आज यह आवाज़ इतनी भारी थी कि उसकी गड़गड़ाहट से पूरी केंटीन थरथरा गई।
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