कार क्रय यज्ञ

डॉ. पद्मावती (अंक: 185, जुलाई द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

हुआ यूँ कि जब जानकी दास जी ने अपनी कई वर्षों की अंतहीन दुर्भर प्रतीक्षा के बाद यह निर्णय लिया कि अब समय आ गया है कि हमें भी एक चौपहिया वाहन ख़रीद लेना ही चाहिए। दरअसल बचपन से अब तक उन्हें किसी भी वाहन को चलाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। स्मृति कोश के डिब्बे को खंगालने पर भी कभी कोई वाहन चलाने का अनुभव स्मरण में नहीं आता था। इसके पीछे एक रहस्य था और वह यह कि उनके पूज्य पिताश्री जी को किसी ज्योतिषी ने आगाह कर दिया था कि उनके इकलौते बेटे यानि कि जानकी दास को वाहन से ख़तरा उपस्थित हो सकता है और चालीस साल पहुँचने तक यह दुर्घटना कभी भी हो सकती है। तो पिता जी ने दुर्घटना के भय से बचपन में तिपहिया साइकिल भी ख़रीद कर नहीं दी थी जिस कारण वे अपने दोस्तों की साइकिलों पर ही अपना बचपन और लड़कपन गुज़ार चुके थे। अब उम्र के इस दौर में, उस विश्वास की सीमा पार कर चुकने के पश्चात, उस ओर से तो वे निश्चिंत हो गये थे लेकिन अब इससे भी बड़ी अड़चन उनके रास्ते में आ रही थी और वह थी उनकी आजीविका से प्राप्त होने वाली कमसिन नाज़ुक सी उनकी ‘मासिक आय’। शापग्रस्त विंद्याचल की तरह कभी न बढ़ने का प्रण लिए हुए हर परिस्थिति में निर्विकार सी बनी रहने वाली उनकी आमदनी के साथ यह ज़्यादती ही होती कि वे अपनी आय का एक मोटा हिस्सा वाहन ऋण की किस्तों की भेंट चढ़ा देते लेकिन हमेशा यह दुख उन्हें खाए जाता था कि अब और कब दिन फिरेंगे, कब तक इच्छाओं का दमन करते जीएँगे, कब तक इस पापी मन को समझाते रहेंगे, चिलचिलाती धूप में पसीने में नहाए आवागमन के लिए कब तक बसों के धक्के खाते रहेंगे? लेकिन जवाब शून्य! इस बात का रंज तो था उन्हें कि उनके पास कोई वाहन नहीं है लेकिन यह पीड़ा तो और भी असहनीय बन जाती जब उनके ही ऑफ़िस में किसी दूसरे अनुभाग में कार्यरत एक पायदान नीचे का कनिष्ठ सहयोगी मि. शर्मा, जो दुर्भाग्य से अब उनका पड़ोसी था, अपनी हाल ही में ख़रीदी गाड़ी को सुबह सुबह गर्व से धोते चमकाते एक अपमानजनक मुस्कान उनकी ओर फेंक कर रोज़ हाथ हिलाता हुआ उनका अभिनंदन करता था। वह भाग्यशाली था, उसका परिवार छोटा था इसीलिए सुखी था और वहीं इनका भाग्य देखिए, इनके परिवार में सदस्यों की संख्या पाँच . . . ये महाशय, इनकी अर्धांगिनी और दहेज़ में अपने साथ लाई दो निकम्मे मुसटंडे शरणार्थी भाई जिन्हें उनके घरवालों ने नौकरी की तलाश में यहाँ भेज दिया था लेकिन उन्हें न नौकरी ही मिली न विवाह ही हुआ, अब तो यहीं स्थायी रूप से जम कर बैठ गए थे। और उनके अलावा इनका नाम रोशन करने वाला एक सपूत। तो पाँच प्राणियों का ख़र्चा इनकी इकलौती आमदनी उठा रही थी। लेकिन दिल पर आरियाँ तो तब चलती थीं जब शाम को जानकी दास जी ऑफ़िस के बाद थके-हारे बस स्टॉप पर खड़े होकर आती-जाती बसों के नंबर ढूँढ़ रहे होते और मि. शर्मा अपनी वातानुकूलित गाड़ी में फुर से उनके सामने से निकल जाता। बदतमीज़ को इतना भी नहीं ध्यान कि रुक कर उन्हें बुला ले, एक-आध बार ही सही उन्हें भी अपनी गाड़ी में बिठा कर घर छोड़ दे। न . . . बिल्कुल नहीं। जानकी जी ग़ुस्से और अपमान में भुन जाते और मन ही मन ईश्वर से कुढ़ते हुए गुहार लगाते कि . . . हे भगवान! इस शर्मा नामधारी जीव को आपने इस उपग्रह पर क्यों पैदा किया, और अगर किया तो क्यों हमारे ही ऑफ़िस में लगाया, अगर लगाया तो क्यों हमारा पड़ोसी बनाया, अगर बनाया तो क्यों उससे कार ख़रीदवाई? अब उनके इस अगर–क्यों का जवाब उस ईश्वर के शब्दकोश में तो था नहीं, वे निरुत्तर हो गए थे। शायद उन्हें अपनी ग़लती का अहसास भी हुआ हो। अब उन्हें अपराध बोध से बचाने का एक ही मार्ग था जानकी दास जी के सामने-और वह यह था कि अपने लिए तत्काल एक नई चकाचक कार ख़रीदने की व्यवस्था करना!

तो आरंभ हुआ उनका ‘कार क्रय यज्ञ’। 

जमा–घटा हिसाब लगाने की प्रक्रिया आरंभ हुई। पूँजियों को खंगाला गया। तपेदिक ग्रस्त रोगी समान दिखने वाली उनकी भविष्य निधि की दुबली-पतली रक़म मुँह चिढ़ा रही थी। उससे कुछ बनने वाला तो नहीं था। अंततः बहुत सोच-विचार कर वाहन ऋण लेने का निश्चय किया गया। बजट याचिका तैयार की गई। समीकरण बिठाए गए। आगामी वर्षों में गृहस्थी में होने वाली कटौतियों को रेखांकित किया गया। संभावित अनावश्यक ख़र्चों पर कड़े प्रतिबंधों का विधान रचा गया। और इस प्रकार ‘कार क्रय यज्ञ’ में परिवार के हर सदस्य ने अपनी अवांछित इच्छाओं और आकांक्षाओं की आहुति देने की प्रतिज्ञाएँ लीं। तब जाकर जानकी दास जी ने सब औपचारिकताओं की पूर्ति की। कार का चयन हुआ। राशि भरी गई। और कार घर लाने का शुभ मुहूर्त देख पंद्रह दिन के बाद की तिथि निर्धारित कर दी गई। 

अब उनके सामने एक नई समस्या आई ड्राइविंग सीखने की। अब तक तो कभी साइकिल भी न चलाई थी। तो पेशेवर स्कूल जाना ही उचित समझा। वे निकले ड्राइविंग स्कूल की तलाश में। एक नुक्कड़ पर ‘जेड ड्राइविंग स्कूल’ का बोर्ड देखकर पाँव ठिठक गए। लेकिन उसके ठीक नीचे कोष्ठकों में लिखा था, ‘यहाँ शव-वाहन की व्यवस्था भी उपलब्ध है’। बोर्ड उन्हें बड़ा अटपटा सा लगा। अंदर जाने की सोची और सामने लगे काँच के दरवाज़े को धकेल कर वे अंदर घुसे। उनके अंदर आते ही वहाँ बैठे सज्जन मुस्कुराए और बोले, "कहिए श्रीमान आप क्या चाहते है?” 

उन्होंने झल्लाहट में कहा, "यह क्या बेहूदगी है साहब, यह ड्राइविंग स्कूल है या नहीं? यह बाहर बोर्ड पर क्या लिखा है?”

उनकी बौखलाहट से वहाँ बैठे सज्जन के चेहरे पर गंभीरता उभर आई . . .भौंहें सिकुड़ गईं। 

"ओह तो आप ड्राइविंग सीखने आएँ हैं। दरअसल हम भाइयों का संयुक्त व्यापार है तो दो-दो बोर्डों पर अनावश्यक ख़र्च को बचाने के लिए हमने एक ही बोर्ड बनवा दिया। वैसे आपको इस बारे में परेशानी नहीं होनी चाहिए। कहिए हम आपकी क्या सेवा कर सकते है?” 

उन्होंने अपनी आवश्यकता बता दी। उन्हें ड्राइविंग पैकेज की जानकारी दी गई जिसमें पाँच हज़ार रुपयों में ड्राइविंग के साथ-साथ लाइसेंस भी देने की व्यवस्था थी। भुगतान कर दिया गया। अगली सुबह आने का निर्देश दे दिया गया। 

अगले दिन वे पहुँचे ड्राइविंग सीखने। उनके साथ और भी प्रशिक्षु बैठे थे। सभी अभ्यार्थियों को कार के तंत्र की व्यवस्था का परिचय दिया गया। गति वर्धक, गति अवरोधक, गति उत्प्रेरक इत्यादि पर क्लास हुई फिर गाड़ी में ड्राइविंग सीट पर बैठने को कहा गया। जानकी जी स्टेयरिंग व्हील को घुमाने का अभ्यास करने लगे लेकिन कुछ ही समय में उन्हें भान हो गया कि गाड़ी का पूरा नियंत्रण तो बग़ल में बैठे प्रशिक्षक के पाँव तले है। ठीक भी था। आख़िर गाड़ी का वह मालिक था। वे तो बस कठपुतली समान हाथों को ही घुमा रहे है। निर्देश दिया गया था कि पहले प्रथम गियर पर आओ फिर दूसरे तीसरे और फिर चौथे पर। अब गियर के साथ गति का संबंध तो उन्हें बहुत देर बाद समझ आया पर वे अनावश्यक ही उतावले हो रहे थे। 

उन्होंने आँख मटकाते हुए कहा, "भाई साहब यह एक दो तीन क्या चीज़ हैं, सीधा चार पर चढ़ा दूँ गाड़ी?” 

प्रशिक्षक के चेहरे पर कुटिल मुस्कान तैर गई। व्यंग्य का पुट देते हुए बोले, "सरजी यह कलाबाज़ियाँ तो अपनी गाड़ी पर ही दिखाना। आप जैसे कुशल कलाबाज़ों के कारण ही हमारे मालिक के भाई का धंधा दिन दुगुना रात चौगुना हो रहा है।" 

आख़िर पंद्रह दिन पूरे हुए। जानकी दास जी तीस मार खाँ बन गए ड्राइविंग कला के और एक शुभ दिन गाड़ी भी शो रूम से घर लाई गई।

गाड़ी की पहली यात्रा में मंदिर जाना निश्चय किया गया। सो वे ऑफ़िस से जल्दी ही आ गए। देखा घर के सभी सदस्य बारातियों की वेशभूषा से सुसज्जित मिठाई, फूल चंदन रोली निम्बू हरी मिर्ची से भरी थाल लेकर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। कार को कुमकुम चंदन का टीका लगाया गया, निम्बू मिर्चों का हिंडोला बम्पर पर बाँधा गया, आरती उतारी गई फिर हर एक पहिए कि नीचे निम्बू रखकर जानकी दास जी गाड़ी में परिवार समेत विराजमान हुए। 

उन्होंने गाड़ी स्टार्ट की, श्रीमती ने घंटावादन किया, सब लोगों ने सामूहिक स्वर में ओम की ध्वनि निकाली, लेकिन गियर तुरन्त छोड़ देने के कारण एक धचके से गाड़ी आगे बढ़ी और रुक गई। सब प्रश्नसूचक दृष्टि से उन्हें देखने लगे लेकिन साहस बटोरकर उन्होंने अबकी बार सबको चुप रहने की हिदायत दी और मन ही मन प्रभु का ध्यान कर गाड़ी स्टार्ट की। गाड़ी स्टार्ट हुई धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। जानकी जी दस-बीस की गति से बढ़े चले जा रहे थे। गाड़ी मुख्य मार्ग पर आ गई। उनकी कच्छप गति पूरे यातायात को बाधित कर रही थी पर वे अनजान बने अपनी ही धुन में चले जा रहे थे। कुछ वाहन चालक उन्हें गालियाँ बकते निकल रहे थे, कुछ हाथों से इशारे करते उनका ध्यान भंग करने की कोशिश में लगे थे लेकिन वे भी एकनिष्ठ और एकाग्र होकर केवल रोड पर ध्यान केंद्रित कर बढ़े जा रहे थे, उन लोगों की तरफ़ आँख उठाकर भी न देखते थे। 

आख़िर एक सिग्नल आया। उनसे पहले की गाड़ी फुर से आगे चली गई। उन्होंने भी आगे निकल जाने की कोशिश की पर गतिमापक पर बीस की गति के होने के कारण वे जब तक सड़क के बीचों-बीच पहुँचे, तब तक चारों तरफ़ से गाड़ियाँ आवाज़ें करती हुई उनके दाएँ–बाएँ से निकली जा रहीं थीं और वे बीच में गाड़ी रोके हक्के-बक्के बैठे थे। 

इतने में एक पुलिसवाला सबको नियंत्रित करता हुआ उनके पास आया और मार्ग दर्शक बन उन्हें सड़क के कोने में ले आया। भारतीय पुलिस सेवा के प्रति उनका हृदय गद्‌गद्‌ हो गया। इससे पहले वे शब्दों में अपना आभार प्रदर्शन करते, वर्दी‍धारी ने सिग्नल तोड़ने के जुर्म में चालान किया, पर्ची काटी और उनके हाथ में धर दी। उन्होंने गाड़ी पर लगा लाल चिन्ह दिखाकर अनुनय करने की नाकाम कोशिश की लेकिन सपाट सा उत्तर मिला . . .

"देखिए यह लाल चिन्ह आपको सिग्नल तोड़ने का विशेषाधिकार नहीं देता।" 

ख़ैर जान बची, जुर्माना दिया। गाड़ी में बैठे सदस्यों ने आश्वासन दिया कि पहली बार यह सब सामान्य है, धीरे-धीरे वे भी अभ्यस्त हो जाएँगे बिना फँसे सिग्नल तोड़ने के। 

अब गाड़ी मुख्य मार्ग छोड़कर गलियों में आ गई थी। मंदिर नज़दीक था। शाम गहरा गई थी। अँधेरा हो गया था। अचानक बादल भी घिर आए और पूरे मोहल्ले की बिजली गुल हो गई। गाड़ी के आगे अँधेरा छा गया। जानकी दास भौचक्के से, कुछ सूझे नहीं कि आगे कैसे बढ़ा जाए। इतना गाढ़ा अँधेरा . . . पत्नी और साले उन्हें फोन की बैटरी खोल कर रास्ता दिखाने लगे। अचानक गाड़ी की दाईं खिड़की पर आवाज़ हुई, "ठुक . . ठुक . . .”

उन्होंने डरते-डरते देखा, कोई परछाई खिड़की का काँच नीचे उतारने का इशारा कर रही थी। 

उन्होंने काँच उतारा तो देखा, एक सज्जन खड़े मुस्कुराते हुए कह रहे थे, "श्रीमान गाड़ी की हेडलाइट्स तो जला लीजिए। वरना पीछे से आकर कोई ठोक देगा।" 

जानकी दास जी की दिमाग़ की बत्ती जली और पता चला क्यों गाड़ी के आगे इतना अँधेरा था। वे ग़ुस्से से गुर्राए . . . 

“सालो, हरामियो हमें बैटरी दिखा रहे थे, लाइटस जलाने की याद नहीं दिला सकते थे क्या? वैसे ही तनाव से रक्तचाप बढ़ रहा था और तुम बदमाशी कर रहे थे।"

"जीज्जा, हमें क्यों डाँट रहे हो? क्या आपको नहीं पता यह साइकिल नहीं, कार है कार! और कार की लाइट भी होती है,” खों-खों कर सब की हँसी फूट रही थी। 

आख़िरकर जानकी दास जी सपरिवार मंदिर पहुँचे, पूजा भी हुई, सही सलामत घर भी पहुँच गए। 

अगला दिन उनके जीवन का बड़ा ही ख़ास दिन था। सुबह-सुबह गाड़ी साफ़ करने या कहिए मि. शर्मा को जलाने जानकी जी बाहर निकले तो पाया शर्मा की गाड़ी कहीं नहीं थी। अचरज हुआ। धीरे से उसके मकान की ओर चले। ताला लगा था। पड़ोसी से पूछा तो पता चला कि शर्मा का तो तबादला हो गया था रायपुर, कल शाम को ही निकल गया था। दरअसल कार के चक्कर में कुछ दिनों से ऑफ़िस ही नहीं गए थे जानकी जी इसीलिए ख़बर ही नहीं रही। 

धत तेरे की . . .! वे निराश हो गए। वो प्रतिद्वंद्वी जिसे चिढ़ाने के लिए इतना उपक्रम किया था, उनकी गाड़ी देखने से पहले ही कूच कर गया। मन कसमसा कर रह गया। भारी क़दमों से लौट आए। लेकिन अचानक अपनी चमचमाती गाड़ी को देखकर आनंदातिरेक से शर्मा के प्रति उनके मन का मैल घुलकर पिघल गया। आख़िर वह ही तो उत्तरदायी था जिसके कारण इन्होंने इतना बड़ा साहस या चमत्कार कर लिया था और जिसके परिणाम स्वरूप इतनी प्यारी भेंट इन्हें मिली थी। उन्हें अपनी गाड़ी पर और शर्मा पर एक साथ प्यार आ गया। ईर्ष्या द्वेष सब धुल गए। वे मन ही मन मि. शर्मा का आभार मानने लगे। शर्मा की उपेक्षा तो उत्प्रेरक का काम कर गई थी। उन्हें अपनी मूर्खता पर लज्जा अनुभव हुई। मन ही मन मुस्कुराए और अब हल्के होकर गाड़ी पर जमी मैल भी धोने लगे जो कल रात की बारिश से लग गई थी। 
 

5 टिप्पणियाँ

  • आपका व्यंग्य पढा।मुझे बहुत अच्छा लगा। ईर्ष्या और द्वेष हरदम बुरा हीं नहीं होता। यदि इनके कुछ सकारात्मक परिणाम निकले।

  • 15 Jul, 2021 11:31 AM

    आपकी हास्य से परिपूर्ण व्यंग्यात्मक कहानी बहुत रोचक लगी।बहुत बहुत बधाई आपको

  • होड करने वाली मध्य वर्गीय मानसिकता पर अच्छा हास्य व्यंग्य। लाजवाब भाषा प्रवाह और शब्द विन्यास के लिए बधाई पद्मावती जी।

  • सुंदर रोचक कहानी

  • बहुत अचछा व्यंग्य भरा है आपने।लीक से हटकर नया लिखा है। इसमे मुझे इन शबदो ने प्रभावित किया जिसके लिए मै आपको 10 मे से 10 अंक देना चाहता हूँ।कमसिन नाजुक मासिक आय,शापग्रसत विंध्याचल, तपेदिक ग्रस्त रोगी,गति वर्धक, गति अवरोधक, गति उत्प्रेरक और गतिमापक। हिदी मे इसका उपयोग कर इसे रोचक बना दिया है। आगे फिर एक नयी सोच के साथ आपकी कहानी का इंतजार रहेगा। कुल मिलाकर कार क्रय यज्ञ शीर्षक-को अनुपादित करता है।

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