थोड़ी सी धूप
डॉ. पद्मावती
सुबह आईना देखा तो श्रीधर हैरान रह गया। अरे! कितना बदला-बदला लग रहा है चेहरा . . . बड़ी हुई दाढ़ी के कारण। कितना बुज़ुर्ग लग रहा था वह . . . भद्र और शालीन। वानप्रस्थाश्रम की असली पहचान। ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में पता ही नहीं चला था कि कैसे उम्र फिसल गई। शायद कभी इतनी फ़ुरसत से आईना देखने की मोहलत भी न मिली थी। ढलती उम्र का अंदाज़ भी निराला है। जब तलक छिपाओ, लगता है छुप गई है और इंसान इसी भ्रम में जीना भी चाहता है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। उम्र छिपाने से नहीं छुपती। थोड़ी सुस्ती क्या हुई . . . तो देखो क्या हाल हो रखा है। हैरानी बढ़ी हुई दाढ़ी देखकर नहीं दाढ़ी की सफ़ेद चाँदी को देखकर हो रही थी। अजीब सा लग रहा था। लेकिन फिर भी। अब उम्र पचास पार हो रही है तो सफ़ेदी तो आयेगी ही न। ख़ैर! रहने दिया। यह तो अच्छा हुआ जो सर के बाल समय से अपनी मर्यादा में झड़ गए थे। अब तो सर आधा चाँद बन कर रह गया था लेकिन कुछ ढीठ बाल कनपटी के पास ही बचे हुए थे जिनसे उसकी ढलती उम्र की झलक मिल जाया करती थी। लेकिन यह दाढ़ी . . . उफ़। पर रहने दो। श्रीधर ने एक बार फिर आईना देखा और बाहर निकल लिया।
सूरज अभी उगा नहीं था। हल्की नीली बादामी रोशनी फैली हुई थी। गली सुनसान शांत थी। खंभों की बत्तियाँ अभी बंद न हुई थी। चारों तरफ़ सन्नाटा। कभी-कभार अख़बार डालने वालों के साइकिलों की चीं-चूँ की आहट सुनाई दे जाती थी। उन्हें देखकर बंद दुकानों के सामने दुबक कर सोने वाले कुत्ते अलसाए से इधर–उधर मुँह किए भौंकने लग जाते थे। श्रीधर को देखते ही जीभ निकाल कर दुम हिलाने लगे। रोज़ गली के छोर तक छोड़ने आते थे। पहचान जो थी।
वह धीरे से पार्क की सड़क की ओर हो लिया। ठंडी ताज़ी सुहानी हवा . . . तन और मन दोनों हल्के हो गए थे। गाढ़ा कोहरा बादल का अहसास दे रहा था। वातावरण में ठंडक आ गई थी। सड़क के छोर पर हरसिंगार का पेड़ था। फूलों की ताज़ी सुगंध से पूरा माहौल महक उठा था। तभी तो रचना उसे हर सुबह टहलने का आदेश देती थी पर . . . पर वह मानता कब था।
“राम-राम साब जी। घूमने? सूरज देर कर दे लेकिन आप हमेशा समय से निकल आते है। तबीयत ठीक है?”
“राम-राम संकर। हाँ! जाना तो मजबूरी है और शौक़ भी। निकल आया। तुम बताओ। सब ठीक?”
“हाँ साहब। सब ठीक। प्रभु की कृपा,” कहता हुआ चौकीदार पानी की टंकी की ओर चला। पंप जो डालना था ताकि पानी भरा जा सके।
उसने चाल तेज़ कर ली। कैनवस के जूते होते ही आरामदायक है और आदमी को चुस्त-दुरुस्त बना देते हैं . . . पहनते ही मन भी जैसे दौड़ने लगता है।
सोचा लोगों के आने से पहले दो चक्कर हो जाएँ तो फिर आख़िरी चक्कर में भीड़ भी हो ही जाती है तो समय ज़्यादा ही लगता है। अब पक्की सड़क पर फ़ुटपाथ पर चलने में चाल तो तेज़ गई लेकिन आजकल साँस फूल जाती थी सो धीरे चलना ही मुनासिब समझा।
कहते हैं उम्र के साथ याददाश्त कमज़ोर हो जाती है। बिलकुल ग़लत। दरअसल हर छोटी से छोटी घटना जो अंदर गहराई में दफ़न हो गई होती है, यदा-कदा उम्र के इस पड़ाव पर जब सब छूट जाता है तो . . . सब विस्तार से . . . ब्योरेवार से याद आता रहता है। शायद मन और शरीर दोनों ही ख़ाली होने के कारण या फिर कुछ ओर। हर घाव, हर चोट बाहर निकल कर रिसने लगती है। क्यों, क्या ख़ुशियाँ याद नहीं आतीं? आती हैं। अवश्य याद आती हैं। मन ख़ाली रहना ही नहीं चाहता। सुना है मृत्यु के बाद भी ये थोड़ी न पंच तत्वों में विलीन होता है। ये तो साथ चलता है। अगले जन्म में भी तो वही संस्कार रहते है। वह गहरी सोच में डूबा हुआ आगे बढ़ रहा था . . . विचार आँधी की तरह एक के बाद एक आ रहे थे। निरंतर। अबाध।
रचना को गुज़रे दो साल हो गए थे। अनिरुद्ध और आकांक्षा दोनों अमरीका में सेटल हो गए थे। आकांक्षा पढ़ने के लिए गई थी लेकिन वहीं अमेरिकन भा गया . . . वहीं विवाह हो गया। रचना और वह गए थे विवाह पर . . . दोनों रीतियों से हुआ . . . रचना कितनी ख़ुश थी। दरअसल बड़े आधुनिक विचारों की थी रचना। कभी भी बच्चों में उसे दोष दिखा ही नहीं। हमेशा उनका समर्थन करती थी। और अनिरुद्ध का विवाह तो यहीं भारत में ही हुआ था। पंद्रह दिनों के लिए आया था और फिर वापस दुलहन को लेकर चला गया था। बड़ी नौकरियाँ . . . बड़े शहर . . . बड़े दायित्व। लेकिन रचना ने कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की थी। शिकायत तो उसने उसकी भी नहीं की थी। वह भी कौन-सा उसे समय देता था . . . बड़ा व्यस्त रहता था . . .। एक बड़ी कम्पनी का मालिक जो था। पता ही नहीं चला कब जीवन की संध्या हो गई। कब रचना दिल की मरीज़ हुई और एक दिन . . . एक दिन। दिल की धड़कन ही रुक गई। दोनों बच्चे परिवार सहित आए थे माँ के क्रिया-कर्म पर। फिर पंद्रह दिन रुके। सभी औपचारिकताओं के बाद . . . फिर वापस।
रचना के जाने के बाद श्रीधर काफ़ी अकेला पड़ गया था। उसकी हर छोटी सी छोटी नसीहत को वह याद करने लगा था अब। वैसे जब तक वह इस दुनिया में थी, तब तक तो वह हर चीज़ को हल्के में लेता था। बिल्कुल लापरवाह। उसकी कही हर बात को हवा में उड़ा देता था लेकिन अब उसकी हर आदत को वह अपनी आदत बना चुका था। सुबह सवेरे ताज़ा हवा में टहलना उसी की आदत थी जिसे वह अब पूरी तरह अपना चुका था . . . रचना स्वास्थ्य के प्रति बहुत सतर्क रहा करती थी लेकिन वह ही तो पहले चली गई थी इतनी सावधानियों के बाद भी। होनी को कौन टाल सका है?
आज जीवन के कुछ और पन्ने उड़ने लगे थे। पच्चीस या उससे भी अधिक शायद . . . सालों बाद . . . आज मीरा को कॉफ़ी हाउस में देखा था। अपनी बेटी के साथ आई हुई थी। अचानक हर बात की याद ताज़ा होने लगी। मीरा शर्मा . . . हाँ। मीरा शर्मा। यही नाम था उसका। उसका पहला और अंतिम प्रेम।
कोई किताबी और फ़िल्मी प्यार नहीं था वह, जहाँ चाँद तारे तोड़कर लाने की बातें की जाती हो। वह तो दो वयस्क व्यक्तियों की समझदार चाहत थी। मीरा मध्यम वर्ग की लड़की, उसी के कॉलेज में थी। वैसे तो चारों दोस्त रमाकांत, प्रतिमा, मीरा और श्रीधर एक ही कॉलेज में पढ़ते थे। मीरा और प्रतिमा उनसे तीन साल छोटी थीं। कॉलेज के बाद श्रीधर अपने पिता के व्यवसाय में लग गया था और रमाकांत को सरकारी नौकरी मिल गई थी। मीरा की पढ़ाई ख़त्म होते ही उसके पिता ने उसको एक कम्पनी में लगा दिया था और परिवार का पूरा बोझ पिता की सेवा-निवृति के साथ उसके कंधे पर आ पड़ा था। इस बीच मीरा और श्रीधर मिलते रहे और उनके बीच घनिष्ठता बढ़ती रही। दोनों ने भविष्य के सुनहरे सपने भी देखे लेकिन मीरा पारिवारिक ज़िम्मेवारियों से बँधी हुई थी। श्रीधर के आश्वासन देने के पश्चात भी वह वो निर्णय न ले सकी थी जो ले लेना चाहिए था। अपने विवाह का। और पिता की असमय मृत्यु ने उसे तोड़ कर रख दिया था। पाँच-पाँच भाई बहनों की अग्रजा। परिवार के लिए समर्पित। श्रीधर ने तीन लम्बे साल इंतज़ार किया था लेकिन वह मुक्त नहीं हो पाई थी और मजबूरन दोनों ने अपने रास्ते अलग कर लिए थे। श्रीधर ने रचना से विवाह कर लिया और मीरा को सरकाई नौकरी मिल गई थी और वह अपने परिवार के साथ अलग शहर चली गई थी। फिर बाद में तो उससे सम्पर्क ही टूट गया या मीरा श्रीधर की विवाहित ज़िन्दगी में कभी ख़लल नहीं डालना चाहती थी। लेकिन रमाकांत से श्रीधर मिलता रहा। रमाकांत और प्रतिमा विवाह के बँधन में बँध गए थे और इसी शहर में रहते थे। व्यस्तताओं के बावजूद कभी-कभार मिलना हो जाता था लेकिन उसने कभी मीरा के बारे में जानने की कोशिश न की थी। और आज अचानक उससे मुलाक़ात हो गई थी। उसे देखकर वह कुछ पल स्तब्ध रह गया था लेकिन मीरा सहज थी। कुछ कह भी न पाया श्रीधर। उसने भी कुछ नहीं पूछा। केवल औपचारिक हाय हैलो। फिर वह चली गई अपनी बेटी के साथ लेकिन श्रीधर का मन अशांत हो उठा था। वह तो कभी किसी के बारे में इतना गंभीर होता ही नहीं था। फिर आज क्या हुआ? पता नहीं।
‘अरे सुबह-सुबह क्या सोचा जा रहा है? चलो हटाओ . . . मौसम का आनंद लिया जाए। कितनी सुंदर जगह है। चारों ओर हरियाली। पार्क के अंदर गोलाकार सड़कें पूरे मैदान को आवृत करती हुई और बड़े बड़े घने वृक्ष, बीच में फूलों की लम्बी लंबी क्यारियाँ, तरह तरह के मौसमी फूल . . . पक्षियों का कोलाहल, वाह, मनभावन दृश्य।’
चेहरे पर हल्की सी तरावट आ गई थी। शायद ओस की नमी थी जो पिघल रही थी। वह धीरे धीरे चलने लगा लेकिन विचार पीछा करते रहे।
दूर रमाकांत आता दिखाई दिया। हाँ . . . रमाकांत ही है। अरे। इतने दिनों बाद। अचानक! वह उसी की तरफ़ आ रहा था।
“हैलो . . . यार? बहुत दिनों बाद? क्या हुआ? फोन भी न उठा रहे थे। मैं आज घर आने वाला था। हुआ क्या?” रमाकांत ने हाथ हिलाते हुए कहा। श्रीधर को देखते ही वह खिल उठा . . .
“हाँ भई। आजकल कुछ ठीक नहीं था। मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहता था,” श्रीधर के चेहरे पर उदासी झलक रही थी। चाल धीमी और आवाज़ में भारीपन।
“यार ऐसी भी क्या परेशानी जो दोस्तों से भी छिपाई जाए? हुआ क्या? अच्छा चलो . . . वहाँ बैठते है। सामने वाली बेंच पर बैठ कर बातें करते हैं।” रमाकांत उसे कंधे से खींचता हुआ ले आया।
“अब बताओ। क्यों ग़ायब हो गए थे? इतने दिन,” रमाकांत ने प्यार से कहा और नज़रें उसके चेहरे की परेशानी को पढ़ने का प्रयत्न करने कर रही थी।
“कुछ नहीं यार! बच्चे अमरीका में बस गए है। ख़ालीपन काटता है। कह तो रहे हैं कि आप भी आ जाओ लेकिन . . . पता नहीं मन नहीं मानता। एक-आध बार हो आए। अभी से उन पर बोझ नहीं बनना चाहता। और बताओ . . . तुम कैसे हो? प्रतिमा?” श्रीधर ने मुस्कुराने का सायास प्रयत्न किया।
“सब ठीक। यही हाल है यहाँ पर भी। अनिकेत भी कह रहा था . . . पर तुमने सही कहा। अभी से वहाँ जाने का मन नहीं होता। और तो और प्रतिमा तो बिल्कुल नहीं चाहती। बस वे ख़ुश तो हम ख़ुश। मन को मारे हुए है लेकिन हम क्यों उनकी उड़ान में बाधा बनें। जाना उनका निर्णय था। दुनिया देखना चाहते थे। सपनों को सच करने में पूरी तन्मयता से लगा था अनिकेत। जब मौक़ा मिला तो कैसे गँवाता? उसका दोष भी नहीं है। आने को कहता है, लेकिन फिर बात वहीं आकर रुक जाती है। ख़ैर छोड़ो कुछ और बात करते हैं। सुबह कितनी सुहानी कितना सुकून दे जाती है . . . ठंडी हवा मन को भी शांत कर जाती है। इसलिये एक दिन भी मैं गवाना नहीं चाहता।
“हम्म्म्म्म,” श्रीधर ने टाँग सीधी की और सर उठाकर आकाश में शून्य की ओर घूरने लगा। कुछ देर ख़ामोशी पसरी रही दोनों के बीच।
सामने विशंभर ने अंगीठी जला ली थी। दूध का पतीला चढ़ा रहा था। चाय बनाने की तैयारी। दोनों दोस्तों ने अर्थपूर्ण मुस्कुराहट से उसे देखा और हाथ हिलाया। वह इतनी दूर से भी समझ गया।
“अभी लाते हैं साहब . . . अभी,” उसने चाय दो कपों में डाली और तेज़ क़दमों से उनकी ओर बड़ा।
“क्या बात है श्रीधर? कुछ ज़्यादा ही गंभीर लग रहे हो? पहले कभी तुम्हें ऐसे नहीं देखा। क्या मुझसे भी नहीं कह सकते?”
‘है कुछ सीरीयस। कहूँगा। लेकिन यहाँ नहीं . . . शाम को तुम्हारे घर पर . . . आऊँ क्या?”
“क्या परायों की तरह पूछ रहे हो? अपना ही घर है . . . जब मन करे आओ।”
“ठीक है। फिर मिलते हैं शाम को। क्या तुम और रुकोगे?” श्रीधर ने चाय ख़त्म की और जाने को उठा।
“हाँ! कुछ देर। शाम को इंतज़ार करूँगा।”
“ओके!” श्रीधर मुड़ा और धीमे क़दमों से निकल गया। जाते-जाते बिशम्भर को पैसे देना न भूला।
“प्रतिमा, आज पार्क में श्रीधर मिला था। बहुत बदला-बदला सा। बड़ी हुई दाढ़ी, उलझे बाल, देवदास लग रहा था। वह घर आना चाहता है शाम को। कह रहा था कि कोई गम्भीर बात है। पता नहीं क्यों उसे देखकर लग रहा था कि कोई बात उसे बुरी तरह परेशान कर रही है।”
“श्रीधर . . . ओह . . . बहुत दिनों बाद . . . लेकिन क्या कहा? श्रीधर और परेशानी? अजीब सा लग रहा है न?” प्रतिमा में मेज़ पर खाना लगाते कहा, “बड़ा ही प्रेक्टिकल आदमी है श्रीधर . . . मैं उसे अच्छे से जानती हूँ। बड़ी व्यवहारिक सोच . . . आगे ही देखने वाला . . . कभी पीछे मुड़कर देखता ही नहीं . . . उसे भला क्या परेशानी हो सकती है? रचना के जाने के बाद अकेला पड़ गया है। इसीलिए तबीयत सुस्त लग रही होगी। ख़ैर आने दो। देख लेंगे।”
♦ ♦ ♦
शाम धुँधली हो चली थी। सूरज डूब गया था। प्रतिमा ने घड़ी की ओर देखा, . . . सात बज गए थे। अभी तक श्रीधर नहीं आया। शायद रमाकांत सही कह रहा था। तबीयत सच में ही ठीक न हो। उसे चिंता होने लगी। वह फोन लगाने उठी ही थी कि सामने की में खिड़की में से उसकी गाड़ी को देखकर ठिठक गई।
“हाय! कैसी हो प्रतिमा?” उसने आते ही आवाज़ दी। वह काफ़ी नॉर्मल लग रहा था। उसका हुलिया भी बदला हुआ था। अंदर आते ही फल और आइसक्रीम प्रतिमा को पकड़ाए।
“बैठो श्रीधर। बहुत दिनों बाद दर्शन दिए। रमाकांत ने तो तुम्हारे बारे में कुछ और ही बताकर डरा ही दिया था। कह रहे थे काफ़ी बदल गए हो। मुझे तो नहीं लग रहा।”
“तुम्हें कैसा लग रहा हूँ?” श्रीधर ने उसकी आँखों में झाँक कर कहा।
“बिल्कुल फ़िट और फाईन; कॉफ़ी या चाय?”
“निःसंदेह कॉफ़ी। तुम्हें देखकर ऊर्जा वापस आ गई। बस।”
“वाह! कितना बदलाव! पहले तो चाय पिया करते थे। रचना यह आदत भी कहीं तुम्हें सौंप कर तो नहीं गई है?”
“बस यार। तुम गरमागरम कॉफ़ी लाओ। बहुत ज़रूरी बात करनी है।”
“मेरा इंतज़ार करना। तुम दोनों दोस्त बात शुरू न कर देना।”
“ठीक है . . . तो रुको . . . हम बाद में कॉफ़ी पीते हैं। तुम यहीं बैठो प्रतिमा . . . पता है कल क्या हुआ . . . मेरी मुलाक़ात मीरा से हुई। वह इसी शहर में है। अपनी बेटी के साथ रहती है। कॉफ़ी हाउस में मिले थे। कुछ नहीं बदली। हमेशा की तरह मौन . . . कुछ नहीं बताया। क्या तुम दोनों जानते हो?” श्रीधर एक ही साँस में कह गया।
“हाँ!” रमाकांत ने अर्थपूर्ण दृष्टि से प्रतिमा को देखते हुए कहा।
“यार क्या छिपा रहे हो? सच-सच बताओ न,” श्रीधर उनके संकेतों को समझने का प्रयत्न रहा था।
“हाँ, श्रीधर,” प्रतिमा बोली, “तुम हम सबसे कम ही मिलते हो और मीरा से तो तुम पूरी तरह कट गए थे लेकिन मेरा संपर्क उससे बना रहा है। ख़ैर तुम बताओ? क्या कहा उसने? क्या बताया?”
“बस ज़्यादा कुछ नहीं . . . हाँ कह रही थी कि वह यहीं नौकरी कर रही है। रचना और बच्चों के बारे में पूछ रही थी। अपनी व्यस्तता के बारे में भी बताया उसने।”
“और अपने अकेलेपन के बारे में? ख़ालीपन के बारे में?” रमाकांत ने कुरेदने की कोशिश की।
“नहीं। कुछ नहीं। बस चुप थी।”
“और शादी . . . तुमने पूछा . . . शादी की या नहीं?”
“हाँ। पूछा।”
“क्या कहा उसने?” रमाकांत की नज़रें उसके चेहरे पर गढ़ी हुई थी।
“चुप . . . बस चुप्पी। कुछ नहीं बोली . . . मुझे और पूछना अच्छा नहीं लगा। चुप ही रहा।”
प्रतिमा सोच रही थी . . . हमेशा से श्रीधर की आदत रही है . . . वह अधिक अपने को खोलता नहीं है . . . बस मन की बात मन में ही रख लेता है।
“नहीं यार श्रीधर . . . यह ठीक नहीं हुआ,” रमाकांत में प्रतिमा को कॉफ़ी लाने का इशारा किया।
प्रतिमा उठी और किचन में चली गई।
“क्या . . . क्या ठीक नहीं हुआ?” श्रीधर कुछ समझ नहीं पाया।
“यही कि तुमने फिर कहानी आधी छोड़ दी,” प्रतिमा ने कॉफ़ी प्यालों में डालते हुए कहा। “जानते हो श्रीधर . . . मीरा ने विवाह नहीं किया।”
“क्या . . . उसने विवाह नहीं किया . . . लेकिन फिर वह बच्ची?”
“गोद लिया है। बड़ी दर्द भरी कहानी है श्रीधर उसकी। जिस परिवार के लिए उसने अपना जीवन होम कर दिया, तुम्हें ठुकरा दिया . . . पता है सब अपना-अपना घर बसा कर अलग बस गए। किसी ने मुड़कर भी नहीं देखा। माँ को साथ लिए जी रही थी . . .। कुछ वर्षों पहले वो भी चल बसी। तब से जीना और भी कठिन हो गया था बेचारी का। फिर सँभाला अपने आप को और एक बच्ची गोद ले ली। सहारा उसे दिया या ख़ुद को पता नहीं लेकिन जो मिला सब सह लिया। बहुत झेला है उसने श्रीधर। बहुत। उसने तुम्हारे बाद किसी और को अपने मन में और जीवन में स्थान नहीं दिया!
प्रतिमा चुप हो गई थी। कमरे में कुछ देर चुप्पी छाई रही। रमाकांत श्रीधर के चेहरे को पढ़ रहा था।
“रमाकांत, मैं, लगता है कुछ ग़लत सोच रहा हूँ,” कुछ क्षण बाद श्रीधर ने चुप्पी तोड़ी।
“क्या? क्या ग़लत?” रमाकांत की भौंहें सिकुड़ गई।
“पता नहीं जब से मीरा को देखा है, उसी के बारे में ख़्याल आ रहे हैं। मीरा की सोच से अपने आपको अलग नहीं कर पा रहा। यह क्या हो रहा है रमाकांत? मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए। यह क्या उम्र है ये सब सोचने की? मुझे अपने बच्चों और पोतों में मन लगाना चाहिए? है न? न कि ये सब। जो बीत गया वह अतीत था। उसे याद करना पाप है, अपने बच्चों के साथ अन्याय है। है न?”
“कैसी पागलों की तरह बातें कर रहे हो श्रीधर? तुम्हारे बच्चों की ज़िन्दगी में दख़लअंदाज़ी करोगे तो क्या वे चुप रहेंगे? और मिस्टर . . . आपके पोते पोतियाँ अमरीकी धरती की उपज हैं। उनके जीवन में तो क्या उनके कमरे में भी दरवाज़ा ठोके बिना अंदर नहीं जा सकते। समझे। वरना तुम्हें वे बाहर निकाल कर रखेंगे। और क्या? और अपनी ज़िन्दगी का फ़ैसला तुमने कब से दूसरों के हाथों में देना शुरू कर दिया?”
“तुम कहना क्या चाहते हो रमाकांत?”
“श्रीधर तुम्हारी तरह घूम-फिर कर बात करना मुझे नहीं आता . . .” प्रतिमा बीच में ही बोल पड़ी, “देखो अगर अब भी तुम्हारे हृदय में मीरा के लिए जगह बची है तो सोचो उसके बारे में . . . उसके जीवन में ख़ुशियाँ लाने के बारे में। बहुत तपस्या की है उसने। बहुत सज़ा भी भोग चुकी है वह तुम्हें ठुकराकर। और अब तुम्हें भी सहारे की ज़रूरत है . . .। उससे ज़्यादा। और जीवन किसी के चले जाने से ठहर नहीं जाता। कुछ फ़ैसले ईश्वर के होते हैं तो कुछ निर्णय हमें अपनी प्रज्ञा से करने पड़ते है। बच्चे! वे सब अपनी दुनिया में व्यस्त हैं। जितनी दूरी रखेंगे उतना मान बढ़ेगा। यह तो खुला सच है। हम सब जानते हैं लेकिन हम स्वीकार नहीं करते। कोई भी अपने जीवन में किसी का हस्तक्षेप एक हद तक ही सहन करता है, फिर वे हमारे बच्चे ही क्यों न हों। है न। सोचो! तुम एक बच्ची को पिता का नाम दे रहे हो। उम्र के इस पड़ाव पर पहुँच कर श्रीधर . . . शरीर को नहीं, सहारे की ज़रूरत मन को अधिक होती है। तुम समझ रहे हो न मैं क्या कहना चाह रही हूँ। अब और मौन नहीं। कह डालो उससे।”
“क्या वो मान जाएगी प्रतिमा?”
“तुम क्या चाहते हो श्रीधर?” प्रतिमा ने सीधे उसकी आँखों में देखकर कहा।
“पता नहीं’। समय चाहिए।”
“मैंने उसकी आँखों में हमेशा तड़प देखी है श्रीधर . . . हमेशा एक ख़ालीपन। मैंने महसूस किया है उसके अकेलेपन को। एक बार कहकर देखो। वह अवश्य मान जाएगी।”
कुछ देर कमरे में शान्ति छाई रही।
“मैं खाना लगाती हूँ। नौ बज गए।”
“नहीं प्रतिमा। मैं चलता हूँ। भूख नहीं है,” श्रीधर उठा। कार की चाभी उठाई और चुपचाप निकल गया। रमाकान्त ने उसे रोकने का प्रयत्न नहीं किया।
अगले कुछ सप्ताह चुप्पी रही। न श्रीधर ने बात की न रमाकांत ने फोन लगाया। वह श्रीधर को सोचने का वक़्त देना चाहता था। आख़िर उसकी ज़िन्दगी का अहम फ़ैसला जो था। फिर एक दिन . . .
सुबह के नौ बजे फोन की घंटी बजी। रमाकांत बरामदे में बैठा अख़बार पढ़ रहा था। उसने प्रतिमा को आवाज़ दी। पता नहीं वह कहाँ थी, उसने फोन नहीं उठाया। रमाकांत ने पेपर छोड़ा और भागते हुए रिसीवर उठाया, “हेलो कौन . . . श्रीधर?
“रमाकांत . . . प्रतिमा को लेकर फ़ौरन लाल चौक के रजिस्ट्री ऑफ़िस पहुँचो। मैं और मीरा विवाह के बँधन में बँध रहे हैं। समय नहीं है। जल्दी आना। बाक़ी बाद में बात करूँगा।”
रमाकांत को जैसे कानों पर विश्वास नहीं आया।
“प्रतिमा,” उसने तेज़ आवाज़ दी, “तुमने तो कमाल कर दिखाया। देखो तो . . . इतना ज़िद्दी श्रीधर कितनी आसानी से मान गया। मीरा को वह अपना रहा है। लाल चौक रजिस्ट्री ऑफ़िस। जल्दी तैयार हो जाओ।”
आश्चर्य में डूबी प्रतिमा जल्दी-जल्दी तैयार होने लगी। समय बहुत कम था और रजिस्ट्री ऑफ़िस बहुत दूर। बेमौसम अचानक बारिश की झड़ी लग गई थी। ट्रैफ़िक में फँसने की सम्भावना थी। इसीलिए दोनों जल्दी ही निकल पड़े।
रमाकांत की गाड़ी लाल चौक पर रुकी। वहाँ मीरा और श्रीधर उन्हीं का इंतज़ार कर रहे थे। चार साल की रूपाली भी सज-धज कर खड़ी थी। गुलाबी सूती साड़ी में मीरा सादगी की मूर्ति लग रही थी।
प्रतिमा को देखते ही वह अपने को रोक न पाई . . . उसके गले से लग गई।
“पता नहीं प्रतिमा मैं तेरा क़र्ज़ कैसे उतारूँगी,” मीरा ने भर्राई हुई आवाज़ से कहा।
“क्यों मैंने क्या किया है? तेरी तपस्या पूर्ण हुई। तुझे उसका फल मिला मीरा। दूसरों के लिए जीने वालों को ईश्वर कभी निराश नहीं करता। उसके घर में देर है अंधेर नहीं।”
रजिस्टर पर हस्ताक्षर करते मीरा के हाथ काँप रहे थे। प्रतिमा ने उसकी हथेली कस कर पकड़ी हुई थी जो पसीने से तरबतर हो रही थी। क़िस्मत के इस तरह पलट जाने पर उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था। अंदर ही अंदर बहुत घबराहट हो रही थी।
“मुबारक हो! आप दोनों क़ानूनी तौर पर पति पत्नी बन गए हो,” सामने बैठे क्लर्क ने घोषणा की और प्रमाण पत्र की एक कॉपी उनके हाथ में रख दी।
सभी औपचारिकताओं के बाद रमाकांत श्रीधर को खींच कर बाहर ले आया।
“बोल यार, अचानक इतनी जल्दी? कैसे यह सब? कैसे मनाया मीरा को? और बच्चों को ख़बर दी?”
“हाँ। फोन किया था मीरा ने . . . उसके घर गया। ग़लती की माफ़ी माँगी। सब गिले शिकवे बह गए। हम दोनों ने पलों में निर्णय लिया। देरी का परिणाम भुगत चुकी थी मीरा। उसने निर्णय लेने में पल भर का भी विलम्ब नहीं किया और बच्चों को . . . बच्चों को भी बताया। पहले तो कुछ असहज हुए लेकिन फिर कुछ ही दिनों में सँभल गए। और हाँ! एक और बात . . . तुम्हें हमें एयरपोर्ट छोड़ना होगा। हम तुम्हारी ही गाड़ी में एयरपोर्ट जाएँगे। हम स्वीड्ज़लैण्ड जा रहे है। सॉरी यार तुम्हें बता नहीं सका। कल ही बुकिंग की थी। रात बहुत हो गई थी। सोचा सुबह मिलना ही है तो . . . सब मिलकर बताऊँगा।
“दरअसल मीरा से बहुत साल पहले एक वादा किया था . . . विवाह के बाद स्विस लेकर जाने का। लेकिन क़िस्मत ने लंबा समय लगा दिया वादा पूरा कराने में। आज पूरा कर रहा हूँ।”
“कोई नहीं . . . देर आए दुरुस्त आए।” दोनों गले लग गए।
गाड़ी अब एयरपोर्ट की ओर दौड़ रही थी। आकाश साफ़ हो गया था। बादल छँट गए थे।
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सुखद.
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