फिर कभी 

01-08-2022

फिर कभी 

डॉ. पद्मावती (अंक: 210, अगस्त प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“उफ़ . . . यह ट्रैफ़िक . . .पता नहीं कब पहुँचेंगे? पहुँच जाएँगे न?” मीरा बेचैन सी कभी सड़क की ओर देखती कभी घड़ी की ओर। पूरी सड़क गाड़ियों से लदी-पड़ी थी। शाम का वक़्त . . . सभी वाहन सिगनल पर स्तंभित से खड़े थे। महानगर का शाप! पूरा वातावरण थमा हुआ सा था। 

“तभी कहती हूँ जल्दी निकलना चाहिए और तुम भी न . . . कभी समय पर घर नहीं आते। देखो . . . अब ट्रेन निकल जाएगी। मुझे पता था यही होगा। कितने दिनों के बाद घूमने का प्रोग्राम बना था; सब चौपट। पूरा का पूरा छह हज़ार . . . फस्ट क्लास एसी के टिकट गए पानी में।” 

“ओफ़्फ़ो . . . तुम बार-बार मेरा पारा बढ़ा रही हो। अब जो होगा देखा जाएगा . . .। बार-बार दाम गिनाती हो? स्टेशन है भी कितना दूर . . . और यह सड़क हमेशा ऐसे ही . . . अब पैसे गए तो गए . . . फिर कभी चलेंगे . . . आख़िर काम भी तो ज़रूरी है . . . कितनी ज़रूरी मीटिंग थी कुछ पता है तुम्हें . . .? बस बोले जा रही हो,” राजेश झल्लाया सा बार-बार ड्राइवर को गाड़ी तेज़ चलाने को कह रहा था। देहरादून एक्सप्रेस पाँच बजे निकलने वाली थी और केवल पंद्रह मिनट बाक़ी थे। 

“और कितनी दूर है भाई?” मीरा ने कुछ नरम पड़ते हुए कहा। 

“बस पहुँच गए मैडम,” ड्राइवर ने गाड़ी को स्टेशन की सड़क पर डाल दी। स्टेशन सामने दिख रहा था। 

मीरा से रुका न जा रहा था। स्टेशन देखते ही फिर से बड़बड़ाना शुरू हो गया, “देखना स्टेशन पर कुली कितना लूटेंगे। सामान भी अधिक है। ठंड-ठंड कहकर तुमने न जाने क्या-क्या रखवा दिया। अब हमसे वो बोझ न उठ पाएगा . . .। कुली तो लगाना ही होगा। और मैं कह रही हूँ . . . ये कुली तो होते ही हैं बदमाश . . . लफ़ंगे कहीं के। आदमी की ज़रूरत का बस फ़ायदा उठाना ही इनकी रोज़ी-रोटी है। सब के सब चोर होते हैं चोर . . . लूट लेंगे और क्या।” उन्हें याद करते ही उसका चेहरा ऐसे बिगड़ा जैसे अचानक कोई कड़वी चीज़ निगल ली हो। नफ़रत और द्वेष आँखों में उतर आया। सहसा नज़र सामने लगे आईने पर गई। ड्राइवर पैनी नज़रों से उसे ही घूर रहा था। 

स्टेशन आ गया। मीरा ने जल्दी-जल्दी सामान उतरवा लिए। 

“गूगल पे कर दूँ?” राजेश ने फ़ोन हाथ में लेकर कहा। 

“नहीं साब, नक़द दे दें तो मेहरबानी आपकी,” ड्राइवर खिसियाती सी हँसी हँसकर बोला। 

“ठीक है,” उसने मन ही मन सोचा, टैक्सी वालों की तो यह आदत ही होती है . . . पर अब बहस का समय नहीं था। भाड़ा दे कर मीरा को वहीं रुकने को कहा और सामान एक तरफ़ खिसका, वह कुली की खोज में अंदर लपका। ग़ज़ब की भीड़। पाँव रखने की भी जगह न थी। उनके पास तीन बैग थे। ग़नीमत थी कि एक बैग पहियों वाला था। उसकी फ़िक्र न थी। चिंता थी तो बिना पहियों वाले बाक़ी दोनों की जो थोड़े बहुत भारी थे। 

बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ निकलती थीं उस समय इसीलिए कुली मिलने की सम्भावना कम थी। सामने लाल कपड़ों में खड़े इकलौते कुली को देखकर जान में जान आई। पर वह तो बुढ़ऊ था . . .। लेकिन अब यह सोचने का वक़्त न था। वह आराम से खड़ा शाम की चाय पी रहा था। इशारा करते ही उसने चाय गटक ली और भागता हुआ पास चला आया। 

“कौन सी ट्रेन साब?” मुँह पर आया पसीना साफ़े से पोंछते उसने सामान की ओर देखा। 

“देहरादून एक्सप्रेस” 

“अर्रे साहब वो तो निकलने वाली है . . . जल्दी चलो। कोच नम्बर?” वह आगे बढ़कर फ़ुर्ती से सामान उठाने लगा। पहियों वाला बैग राजेश ने थाम लिया और उसने अपने दोनों बाजुओं पर दोनों बैग लटका लिए।”ए एच वन . . .” राजेश ने ऊँची आवाज़ में कहा और वे तेज़ी से उसके पीछे-पीछे चलने लगे। 

भीड़ भी ऐसी कि सर चकरा जाए। असाधारण। रास्ता ही न मिल रहा था। कुली की चाल तेज़ थी। वह आगे चल रहा था। उसे आदत थी पर ये दोनों लोगों से लिपटते-चिपटते गिरते-सँभलते पीछे चल रहे थे। और निगाहें . . . निगाहें तो दस फीट पर आगे उस पर लदे अपने सामान पर ही केंद्रित थीं। उन्हें अर्जुन के निशाने की तरह और कुछ नज़र न आ रहा था। वह बैग जो राजेश के पास था . . . उफ़ . . . इधर-उधर से रास्ता बनाते उसे खींचने में बड़ी मुश्किल हो रही थी। और बैग भी अड़ियल बैल की तरह कभी यहाँ तो कभी वहाँ, कभी इस पाँव पर कभी उस पाँव पर चढ़ता-उतरता चला आ रहा था। जिसके भी पाँव पर चढ़ जाता वह प्राणी दर्द से कराह उठता और उसकी चीख निकल जाती। कोई सज्जन ग़ुस्सा पी जाता . . . कोई दाँत भींचे टाँग से एक लात मार उसे ज़ोर से धकेल देता तो कोई भद्दी सी गाली देकर निकल जाता। कोढ़ में खाज . . . सहसा उसके एक पहिए ने जवाब दे दिया। लोगों के पाँवों में धँसता-फँसता वह उद्दण्ड पहिया अपनी जगह से उखड़ कर प्लैटफ़ॉर्म पर कहीं लुढ़क गया और परिणाम स्वरूप बैग पलटियाँ मारता हुआ एक तरफ़ से टेढ़ा हो गया। अचानक हुए इस परिवर्तन से राजेश का नियंत्रण टोल-मटोल हुआ और उसे सँभालने के चक्कर में वह गिरते-गिरते बचा। बड़ी मुश्किल से उसने बैग को सीधा खड़ा किया और उसे घसीटने लगा। 

कुली कुछ दूर निकल चुका था। उसने पीछे मुड़कर देखा। ये दोनों काफ़ी दूरी पर थे और अटक-अ‍टक कर उस इकपहिया बैग को खींचते हुए परेशान हो रहे थे। सब को खदेड़ता हुआ वह वापस उनके पास आया। इशारे से उस बैग को भी अपने सर पर रखने को कहा। राजेश पल भर के लिए हिचकिचाया, लेकिन अगले ही क्षण बैग उसके सर पर धर दिया। भार के कारण उसका पूरा शरीर हिल गया लेकिन उसने अपने आप को सँभाल लिया। 

“सँभाल पाओगे दादा?” राजेश घबरा गया। अब तो तीनों बैग उसके शरीर पर थे। 

“कोई नहीं . . . आप लोग ठीक मेरे पीछे चलो . . . ऐसे चले तो गाड़ी निकल जाएगी . . .” वह रास्ता बनाता आगे-आगे भागने लगा। 

गाड़ी प्लैटफ़ॉर्म नंबर नौ पर रुकी हुई थी। वातानुकूलित डिब्बे छोर के इंजन से सटे हुए थे। प्लैटफ़ॉर्म काफ़ी लंबा था। यहाँ तो झुंड के झुंड हड़बड़ी में भाग रहे थे। कुछ ट्रेन से उतर रहे थे तो कुछ जल्दी में अपना डिब्बा ढूँढ़ते हुए चढ़ रहे थे। हर तरफ़ शोर और धक्कम-धक्की। डिब्बों के दरवाज़ों पर आने-जाने वालों का रास्ता रोके लटकते हुए लोग अपने आत्मीय जन को हाथ हिला हिलाकर भाव-भीनी विदाई दे रहे थे। लोग उन्हें धक्के मारकर चढ़ रहे थे। सब कुछ अस्त व्यस्त . . . अफ़रा-तफ़री फैली थी। 

उनका डिब्बा देखते ही वह पीछे मुड़कर चिल्लाया . . . “साब अगला डिब्बा आपका . . .”

अचानक सिगनल की बत्ती हरी हुई। गाड़ी ने तेज़-तरार सीटी दी। लोगों का रेला भागने लगा। ट्रेन धचके के साथ हिली और धीमी गति से रेंगने लगी। 

“आप चढ़ लो साब . . . मैं सामान अंदर फेंकता हूँ,” वह चिल्लाया। 

राजेश और मीरा पहले ही भीड़ से बुरी तरह डरे हुए थे। इतना लंबा भाग कर आने से साँस भी फूल रही थी। अब चलती ट्रेन में चढ़ना था . . . चलती गाड़ी में चढ़ने का उनका यह पहला अनुभव था। कैसे चढ़ें? अजीब सी घबराहट . . . दिल ज़ोरों से धड़क रहा था। जैसे-तैसे हिम्मत कर राजेश ने रेंगते हुए डिब्बे के दरवाज़े का हत्था कसकर पकड़ा और सावधानी से मीरा को अंदर धकेल झटपट ख़ुद भी अंदर लुढ़क गया। लेकिन तब तक पूरा बदन पसीने से भीग गया था। हाथ-पाँव काँप रहे थे। 

उन्हें डिब्बे में चढ़ा देख कुली झटपट सामान उतारने लगा। वहीं प्लेटफ़ोर्म पर उसके सखा बंधु तीन चार कुली और भी बैठे हुए थे जो अभी-अभी किसी और का सामान गाड़ी में चढ़ाकर सुस्ता रहे थे। 
 अपने भाई कुली को बोझ से लदे देख वे वहीं से चिल्लाए, “बाबा . . . रुको . . . आते हैं।” और अविलम्ब दौड़ आए। सबने मिलकर मदद की। सर पर रखा भारी बैग उतारा। हर एक ने एक-एक बैग उठा लिया और लोगों को खदेड़ते हुए, गाड़ी के साथ दौडते डिब्बे के अंदर फेंकने लगे। मीरा और राजेश दरवाज़े पर गिरे बैग सँभालते वहीं धम्म से बैठ गए। 

गाड़ी धीमे-धीमे झटके देती हुई रेंग रही थी। अधिक देर वहाँ बैठा न जा सकता था। डिब्बे की दीवार का सहारा लेकर राजेश ने खड़े होने की कोशिश की। चेहरे पर हल्का सा दर्द उतर आया। शायद मोच आ गई थी। 
“साहब . . . दो सौ,” कुलीबाहर प्लैटफ़ॉर्म पर ट्रेन की गति से गति मिलाता उनके डिब्बे का हत्था पकड़े भागता चला आ रहा था। 
“अरे हाँ दादा . . .रुको . . . एक मिनट,” राजेश ने हाथ हिलाकर कहा। 

“मीरा . . . रुपये निकालो कुली के . . . मैंने तो सब छाँट-छाँट कर टैक्सी को दे दिया . . . मेरे पास नोट नहीं है।” 

राजेश ने एक बार फिर अपनी जेबें टटोली। शर्ट की और पेंट की। पर कुछ न मिला। वहाँ तो बस रुमाल था। जल्दी से अपना पर्स निकाल कर देखा। वह तो कार्डों से लदा हुआ था। आजकल नोट रखने की परम्परा ही कहाँ थी। ऐन मौक़े पर देरी के भय से वह एटीएम से रुपए निकालना भूल गया था। 

“एक मिनट दादा,” राजेश ने उसे फिर इशारा किया और मुड़कर मीरा की ओर देखकर चिल्लाया . . . “मीरा देखो न . . .जल्दी . . . जल्दी . . . ओफ़्फ़ो तुम भी न . . . रुपये निकालो!” 

“देख रही हूँ न . . . रुको बाबा . . .” मीरा ने अपना में पर्स खोल कर देखा। पाँच सौ के करारे नोटों से वह भरा हुआ था। 

“उफ़ मेरे पास भी सौ के नोट नहीं . . .,” वह कहते-कहते रुक गई। उस ने पाँच सौ का एक नोट निकाला तो सही लेकिन फिर कुछ सोच कर उसे हथेली में ही जकड़ लिया। 

अब तो गड़बड़ हो चुकी थी। ट्रेन निकल रही थी। सूझ नहीं रहा था कि क्या करें? राजेश को कुली से नज़रें मिलाने में भी संकोच हो रहा था। 

“साब . . . साब . . . दो सौ,” हत्था उसके हाथ से छूट चुका था। वह फिर भी गाड़ी की गति के साथ भाग रहा था। 

“दादा . . . रुको दादा रुको . . . देखता हूँ,” उसके शब्द अटक गए। इतनी बड़ी ग़लती? 

“मीरा . . . मीरा . . . देखो . . . कहीं रखे होंगे? जल्दी। गाड़ी निकल रही है . . . प्लैटफ़ॉर्म छूट रहा है . . . प्लीज़ . . . कुछ करो। भगवान के लिए कुछ करो।” 

गाड़ी की बढ़ती गति राजेश की धड़कन बढ़ा रही थी। 

“दादा . . .। दादा . . . . . . प्लीज़,” राजेश कुछ कह भी न पा रहा था। लज्जित सा असमंजस में उधर ही रहा था। 

मीरा की हथेली में दबे नोट पर उसकी जकड़ और कस गई। मन कह रहा था कि यह ग़लत है। बुरा भी लग रहा था। ग़ुस्सा आ रहा था कि वह कैसे जल्दबाज़ी में छुट्टे नोट रखना भूल गई। अपने पर झल्लाहट भी हो रही थी पर . . . पाँच सौ के नोट को देखते ही उसकी पकड़ मज़बूत होती जाती थी। चाहकर भी वह उसे न निकाल पाई। 

“अम्मा . . . दो सौ . . .” पसीने से तर-बतर हाँफता वह अब भी गाड़ी के साथ भाग रहा था। 

अजीब उलझन . . . बड़ी विकटमय स्थिति . . .। अपराध बोध और लाचारी राजेश को पैर की मोच से भी अधिक पीड़ा दे रही थी। वह ऐसा कैसे कर सकता था? इतनी लापरवाही? दरअसल सामान उठाते समय न उसने ही कोई बात कही थी न राजेश ने ही पूछा था और न ही इस बात की ओर किसी का ध्यान गया था। पूरा ध्यान तो गाड़ी छूट जाने के भय पर केंद्रित था। वे तो गाड़ी पकड़ने की जल्दबाज़ी में थे। 

“तुम हटो,” मीरा ने उसे हटाते हुए कहा, “मैं बताती हूँ” . . . 

चेहरे पर सायास दीनता लाकर वह चिल्लाई, “नहीं . . . नहीं . . . नहीं है बाबा . . . सॉरी बाबा . . . वेरी सॉरी . . . अब हम क्या करें . . . छुट्टे नहीं है,” उसने नोट मुट्ठी में भींच लिया। वह कभी उस नोट को देखती और कभी हाथ फैलाकर भागते हुए कुली को . . .

वह वहीं रुक गया। उसकी साँस उखड़ने लगी थी। बुरी तरह हाँफ रहा था। अब भागना सम्भव न था। सीने को मसलते आँखें भींचकर साँस लेने की कोशिश करने लगा। गाड़ी शनैः शनैः आगे निकल रही थी . . . छोर आने वाला था। उखड़ती साँसों से सर उठाकर अस्फुट स्वर में वह ज़ोर से चिल्लाया . . . 

“कोई नहीं अम्मा . . . साब . . . कोई नहीं . . . फिर कभीऽ . . . .ऽ . . . ऽ . . . ऽ।” 

मीरा सन्न रह गई। एक ठंडी सी लहर पूरे बदन में दौड़ आई। अब वह अपने आपको रोक न सकी . . . अनायास मुँह से निकल गया, “राजेश मेरे पास छुट्टे नहीं पर पाँच सौ के नोट तो है . . . ” 

गाड़ी आगे निकल रही थी पर अचानक तेज़ झटके के साथ रुक गई। शायद आगे सिगनल नहीं था। 

राजेश खा जाने वाली निगाहों से मीरा को देखकर चिल्लाया, “पागल हो गई हो मीरा? दिमाग़ ख़राब हो गया है? फिर अब तक क्यों नहीं दिया?” 

अचानक उसकी नज़र मीरा की मुट्ठी में दबे नोट पर पड़ी। उसने झपट्टा मारकर नोट छीन लिया और जेब से रुमाल निकाला। नोट को मसलकर छोटा सा गोला बनाया और रुमाल में बाँध एक दो गाँठें लगा उस छोटी सी पोटली को रुकी हुई गाड़ी का फ़ायदा उठाते पूरा बल लगाकर ज़ोर से प्लैटफ़ॉर्म पर उसकी ओर उछाल दिया। गाड़ी अब प्लैटफ़ॉर्म के पक्के फ़र्श को छोड़कर सीमेंट की पतली सड़क तक पहुँच चुकी थी। रुमाल का गोला लुढ़कता हुआ दस क़दम जाकर खुरदरे फ़र्श पर गिर गया और वहीं ठहर हवा से इधर-उधर डोलने लगा। गाड़ी अब भी रुकी हुई थी। डिब्बा प्लैटफ़ॉर्म के अंतिम छोर पर खड़ा हुआ था। भीड़ वहाँ नाममात्र की थी। कुली अब भी दूर बैठा इसी ओर देख रहा था। उनके बीच लगभग बीस-पच्चीस क़दम का फ़ासला था। उसने राजेश को कुछ फेंकते हुए देखा। न जाने थके शरीर में कहाँ से ऊर्जा आई, वह तेज़ी से उठा और गोले की ओर लपका। झट से गोला उठाया और खोलकर देखा। 

अरे . . . उसमें तो मुड़ा-तुड़ा पाँच सौ का नोट था। उसने एक बार फिर आँखों के पास ले जाकर नोट देखा। तसल्ली की। हाँ . . . हाँ . . . पाँच सौ का ही था। वह भौंचक्का सा नोट पकड़े चिल्लाता हुआ वापस उसकी ओर दौड़ने लगा। 

“साब . . . साब . . . यह पाँच सौ . . . पाँच सौ . . . . . .” वह अब केवल दस बारह क़दम ही दूर था। 

जिसकी आशंका थी, वही हुआ। सहसा इंजन चिंघाड़ा और उसने लम्बी सीटी दी। बल खाती गाड़ी धचके से चल पड़ी। पहियों ने गति पकड़ ली। राजेश समझ गया। गाड़ी की गति में अब अप्रत्याशित तीव्रता आ गई थी। अब समय नहीं था। वह हाथ हिलाता पूरा ज़ोर लगाकर चीखा, 

“दादा . . . रुको . . . रक्खो . . . फिर कभी ऽ . . . ऽ . . . ऽ।”

 उसकी चीख पहियों की गड़गड़ाहट को भी मात देती हुई प्लैटफ़ॉर्म पर दूर तक लहरा गई। 

उसके पैर वहीं चिपक गए। वह निश्चेष्ट सा वहीं रुक गया। उसने नोट को मुट्ठी में दबा लिया। गाड़ी हिचकोले खाती दूर भागी जा रही थी . . . तेज़ . . . तेज़ . . . बहुत तेज़। प्लैटफ़ॉर्म दूर छूट गया पर वह वहीं खड़ा गाड़ी को तब तक देखता रहा जब तक कि वह आँखों से ओझल न हो गई। 

बाहर खुले गगन में लालिमा फैल गई थी। सीटी की थरथराती गूँज बादलों को चीरती हुई शून्य में विलीन हो गई। 

4 टिप्पणियाँ

  • 9 Aug, 2022 09:19 AM

    लेखिका की कलम हर वाक्य केउतार चढ़ाव पैरों की और रेल की गति के साथ विचारों की अधेड़ बुन के बीच पाठक को भी यात्रा करा रही है । मानवीय संवेदना को सुरक्षित रख एक अच्छा संदेश देने के लिए हार्दिक बधाई

  • 1 Aug, 2022 08:12 PM

    क्या होगा इसका अंदाजा पाठकों को अवश्य बेचैन कर देगा । तीव्र गति से चलती हुई कहानी को बहुत अच्छे तरीके से सुखांत बना दिया है आपने । बहुत खूब महोदया।

  • 18 Jul, 2022 09:58 PM

    Very nice

  • कहानी भी रेलगाड़ी की तरह तीव्रगति पकड़ी हुई है जो पाठक को अंत तक जकड़े रखती है। ऐन स्थितियों में मानव मन की प्रवृत्तियों का सुंदर चित्रण! लेखिका को बधाई!

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