पुनर्जन्म: मिथ्य या सत्य

01-10-2024

पुनर्जन्म: मिथ्य या सत्य

डॉ. पद्मावती (अंक: 262, अक्टूबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)


 

पुनरपि जननम पुनरपि मरणं

पुनरपि जननी, जठरे शयनमु, इहः संसारे खलु दुसारे . . .! (आदिगुरु शंकराचार्य) 

अर्थात्‌ जन्म और मृत्यु का चक्र . . . जीव का पुनःपुनः गर्भवास। यह संसार दुःख का असीम सागर जिसे पार लगाने का एक ही उपाय . . .? और वह क्या है . . . आगे पढ़िए . . .

 

वैदिक सिद्धांतों में एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है ‘पुनर्जन्म’ जिस पर भारतीय समाज अटूट श्रद्धा रखता है जिसका सीधा सम्बन्ध है जन्म मरण के चक्र से। कर्म का सिद्धांत . . . पाप और पुण्य की परिभाषा . . . शुभ और अशुभ कर्म का फल। इन सबसे परिचालित मानव जन्म। सृष्टि का रहस्य एक ऐसा रहस्यमय सिद्धांत है जिसके स्मरण मात्र से मर्त्य प्राणी के चित्त में पाप-भीति का प्रबल संवेग एक अप्रत्यक्ष दबाव बनाने लगता है जो वर्तमान में उसके स्वधर्म आचरण का नियमन तो करता ही करता है साथ ही साथ उसके भावी भविष्य को भी व्यवस्थित करने की पृष्ठभूमि तैयार कर देता है। प्राणी को मर्त्य कहा गया है क्योंकि उसकी मृत्यु निश्चित है। मृत्यु शाश्वत सत्य है। जिसका जन्म होता है वह मृत्यु को अवश्य प्राप्त होता है। और जो मृत्यु को प्राप्त होता है उसका अवश्य पुनः जन्म होता है। यह सृष्टि चक्र का रहस्य है। यह ज्ञान सनातन ज्ञान है, जो दिव्य है, शाश्वत है, अप्रमेय है। इसे प्रमाण के आश्रय की आवश्यकता नहीं है। यह ज्ञान सीमित इंद्रियों का विषय भी नहीं है। इंद्रियों की शक्ति अपूर्ण मानी गई है और इसीलिए यह इंद्रियातीत है, अनुभव गम्य है। साधना का विषय है। योग का आधार है। भक्ति की परिधि है। और यक़ीनन यही कारण रहा होगा कि यह सूक्ष्म ज्ञान अस्तित्ववादियों के लिए हमेशा ही संदेह के घेरे में रहा। पर भागवत ग्रंथों में इस ज्ञान को सुगम संप्रेषनीय बनाने हेतु असंख्य विशद तार्किक अध्ययनपरक वैज्ञानिक दृष्टांत प्रस्तुत किए गए है ताकि वे मानव प्रज्ञा के लिए सुलभ ग्राह्य बन सके और वह इस ज्ञान को आत्मसात कर अपना उद्धार कर सके और ऊर्ध्व गति को प्राप्त कर सके। यह ज्ञान उसकी लौकिक और पारलौकिक उन्नति ही निश्चित नहीं करता बल्कि एक स्वस्थ मन और स्वस्थ समाज की संकल्पना को भी पुष्ट करता है। और बुद्धि कौशल के भ्रम में इस ज्ञान पर संदेह करना मूढ़ता की पराकाष्ठा मानी जा सकती है। 

वैदिक वांग्मय अपौरुषैय माना गया है। वेदों का अन्य नाम श्रुति है जो उस ज्ञान का सूचक है जिसे सुनकर अर्जित किया जाता है। यह प्रायोगिक ज्ञान नहीं है। इसका पहले ही प्रयोग हो चुका है और सत्य की प्रतिष्ठा हो चुकी है। साक्ष्य तीन प्रकार के होते है; प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द। प्रत्यक्ष ज्ञान अत्युत्तम नहीं होता क्योंकि हमारी इंद्रियाँ पूर्ण नहीं है और अनुमानित ज्ञान कल्पना पर आधारित होने के कारण पूर्ण नहीं कहा जा सकता। 

वैदिक ज्ञान को शब्द प्रमाण कहा जाता है जो श्रवण विधि द्वारा प्राप्त होता है। यह वह दिव्य ज्ञान है जो ब्रह्माण्ड से परे है। ब्रह्माण्ड के भीतर का ज्ञान इंद्रियाँ विषयक भौतिक ज्ञान है और दिव्य ज्ञान आध्यात्मिक आकाश की अनुभूति है जिसके प्रामाणिक स्रोत हैं हमारे धार्मिक ग्रंथ। वेद और उपनिषद की ऋचाएँ सृष्टि के गूढ़ दार्शनिक ज्ञान की पोषिकाएँ हैं जिनका आत्मसात कर विवेकशील हृदय अपना इहलोक और परलोक दोनों सँवार सकता है। अंततोगत्वा पुनर्जन्म का सिद्धांत जो जन्म और मृत्यु के चक्र से जुड़ा हुआ है, वह श्रीमद भगवत्‌गीता में, कर्म सिद्धांत के उपादानों की तार्किक व्याख्याओं का आश्रय लेकर सुवैज्ञानिक ढंग से निरूपित किया गया है जिसे जान लेने के पश्चात मानव मन की सब दुविधाएँ स्वतः अनायास वाष्प हो जाती है। यह वाणी अमृत वाणी है, स्वयं ईश्वर के श्री मुख से निसृत है और इसी कारण इसे समस्त उपनिषदों का सार माना जाता रहा है। 

भारतीय दर्शन के अनुसार पुनर्जन्म का अर्थ है—मृत्यु के बाद फिर से जन्म की पुनरावृत्ति। तो प्रश्न उठता है। मृत्यु किस की होती है? जवाब है—जो जीवित है उसकी। यानी जिसने भी इस धरा पर जन्म लिया है। तो यह स्पष्ट हुआ कि जो जन्मता है, वह मृत्यु को प्राप्त होगा ही लेकिन फिर यह प्रश्न मन को मथता है कि जिसकी मृत्यु होती है उसका फिर जन्म लेने के पीछे औचित्य क्या हो सकता है? जीवात्मा क्या है? नाश किसका होता है—शरीर का या आत्मा का? जीवात्मा देह क्यों बदलती है? इन सब को समझने के लिए यहाँ आता है—कार्य कारण सिद्धांत। संपूर्ण सृष्टि चक्र ही इस सिद्धांत पर टिका हुआ है। 

बिना कारण के कार्य सम्भव नहीं। यह सिद्धांत बौद्ध धर्म में भी मान्य माना गया है। अर्थात्‌ कार्य जन्म है तो कारण है कर्म। कर्म फल भोग हेतु योनि मिलती है, जन्म होता है। जन्मने के बाद व्यक्ति फिर कर्म करता है और फिर उसका फल भोगता है। यह चक्र निरंतर चलता रहता है। शुभ कर्म का फल उच्चतर योनि में जन्म और अशुभ कर्म का फल निम्नतर योनि में। इसी कारण तुलसी कहते हैं “आकर चार लक्ख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासि॥” 

जीव कर्मों के आधार पर निश्चित अवधि के लिए जन्म लेता है और अवधि समाप्त होने पर देह का त्याग अवश्यंभावी होता है। विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋगवेद से लेकर उपनिषद दर्शन शास्त्र, पुराण में इसकी विशद व्याख्या उपलब्ध है। रहस्य अत्यंत गूढ़ हैं जिनको समझना इंद्रियों की सीमित शक्ति से उद्भासित प्रज्ञा के लिए असम्भव प्रतीत होता है। ये ज्ञान चक्षुओं का विषय है जो गुरु कृपा के द्वारा ही अनावृत किए जा सकते हैं। इसी अवधारणा का विकसित रूप गीता में आद्योपांत दृष्टिगोचर होता है। 

सदियों से मनुष्य विवेक द्वारा अपने अस्तित्व से जुड़ी हर समस्या का दार्शनिक चिंतन करता आया है। समाधान के लिए उसने ग्रंथों का आश्रय लिया जिसमें श्रीमद भागवत और गीता विशेष उल्लेखनीय माने जा सकते है जिनके अनुसार देह को कामनामय माना गया है। शरीर कामना से प्रेरित कर्म करता है। देह का धर्म कर्म करना है और कर्म का फल देना। कर्म की प्रकृति फलदायी होती है। कर्म निष्फल नहीं हो सकता। जन्म का आधार कर्म है तो कर्म का आधार कामना। गीता के अनुसार पुनर्जन्म वह प्रक्रिया है जब जीवात्मा जीर्ण शीर्ण देह को त्याग कर नवीन देह में प्रविष्ट हो जाती है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार व्यक्ति पुराने वस्त्रों को त्याग कर नवीन वस्त्र धारण करता है। नाश शरीर का होता है आत्मा का नहीं। आत्मा अजर अमर शाश्वत है। “नैनं छिंदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावक।” यह शरीर के साथ नाशवान नहीं है। यह सर्वव्यापी स्थिर अचल है। 

आत्मा अजर अमर होते हुए भी शरीर के साथ सम्बद्ध होकर जन्मती है जिसका कारण है कर्म। आइए कर्म सिद्धांत का कुछ विश्लेषण करें। कर्म किया है तो फल देर-सबेर अवश्य मिलेगा। कुछ कर्म त्वरित फल देते हैं कुछ विलम्ब से। जिस प्रकार नारियल का वृक्ष दस से बारह साल बाद फल देता है और आम का फल चार पाँच वर्ष में ही आ जाता है। यह प्रकृति का नियम है जिसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। कुछ कर्म इसी जन्म में चुक जाते है तो कुछ कर्मों के लिए जीव को कई बार जन्म लेना पड़ सकता है। पुनर्जन्म की अपरिहार्यता को सिद्ध करते हुए भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते है कि:

“बहुनि में व्यतीतानि जन्मनि तव चार्जुन
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्थं वेत्थ परंतप॥(4.5) 

‘हे पार्थ, तुम्हें स्मरण नहीं कि तुम्हारे कितने जन्म हो चुके हैं पर मुझे सब स्मरण है’। 

मोटे शब्दों में: कर्म की तीन शृंखलाएँ होती हैं। प्रारब्ध, क्रियमाण और संचित कर्म। 

किसान जब फ़सल काटता है तो वह तुरंत ग्राह्य नहीं होती। उसे ग्राह्य बनने लिए एक वर्ष का समय लग सकता है। अर्थात्‌ वह अगले वर्ष ही सेवन योग्य होगी उसी प्रकार हमारे संचित कर्म भविष्य में फल देते हैं। और जो पैदावार अब ग्रहण की जा रही है, वह पिछ्ले वर्ष की उपज थी और साथ ही साथ खेतीहर अपनी उपज में से कुछ बीज फिर से ज़मीन में भी तो बोता है अगली फ़सल के लिए। तो जो अब ग्रहण किया जा रहा है वह तो प्रारब्ध है और जो बोया गया हमारा क्रियमाण कर्म है यानी जो कर्म वर्तमान में हम कर रहे हैं जिनका फल निकट भविष्य में अवश्य मिलेगा। 

“अवश्यमेव भोक्तवयं कृत कर्म शुभाशुभम 
ना भुक्तं क्षीयते कर्म, कल्प कोटि शतैरपि॥”(गीता 4.33) 

भागवत भी यही कहती है कि: “या दृशं कुरुते कर्म, तादृशं फल माप्नुयात॥”

इसको समझने के बाद कर्म की महत्ता और जन्म का सिद्धांत कुछ हद तक स्पष्ट हो जाता है। इसीलिए सत्कर्म करने की सनातन धर्म प्रेरणा देता है ताकि भविष्य में फल भोगते समय प्राणी को कष्ट न हो। स्वामी विवेकानंद जब कहते है कि ‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता है स्वयं है’ तो वे संचित कर्मों की ही बात कर होते हैं। कर्म के अनुसार देह मिलती है। तो यह सिद्धांत तो पुष्ट हुआ पुनर्जन्म अपरिहार्य है, कपोल कल्पित कल्पना नहीं। यह सिद्धांत केवल सनातन धर्म में ही नहीं, बल्कि जैन, बौद्ध और सिक्ख धर्म में भी माना जाता है। प्रश्न यह कि पुनर्जन्म क्यों होता है? क्या यह क्रम निरंतर चलता रहता है? 

आदिगुरु शंकराचार्य ने इस प्रश्न का सीधा सा जवाब दे दिया: ‘पुनरपि जन्म और पुनरपि मरण’ से पार लगने का एक ही उपाय है: “भज गोविंदम . . . भज गोविंदम . . . गोविंदम भज मूढ़ मते . . .” 

अर्थात्‌ इस जन्म मरण से बचने का एक ही आश्रय: ईश्वर की सम्पूर्ण शरणागति। 

मोक्ष प्राप्ति तक जन्म मरण का यह चक्र निर्विघ्न गति से चलता ही रहता है। और मोक्ष का अर्थ है व्यक्त का अव्यक्त में एकाकार हो जाना। असाध्य को साधने की साधना। मन्त्रदृष्टा योगियों ने कई मार्ग सुझाए हैं। ज्ञान मार्ग, योग मार्ग और भक्ति मार्ग। ज्ञान मार्ग कृपाण की धार। ज्ञान से सिद्धि प्राप्त होती अवश्य है लेकिन ज्ञानी चरम पर पहुँच कर भी भ्रष्ट हो जाने की सम्भावना से हमेशा त्रस्त रहता है। हर पग सावधानी की अत्यंत आवश्यकता वांछित होती है इस मार्ग में। योग मार्ग में साधक नाड़ी शोधन कर प्राणायाम आसन नियम यम का पालन करता हुआ षड-विकारों को जीत कर सात्विक, राजसिक, तामसिक तीनों कर्मों से परे मन बुद्धि चित्त अहंकार को ऊपर उठाकर षट्चक्रों को लाँघता हुआ अपनी चेतना को ऊर्ध्व लोक के क्षितिज तक पहुँचने का प्रयत्न करता है जहाँ सहस्रार तक पहुँचने पर दिव्य तेजोमय ज्योति से उसका आत्मसाक्षात्कार हो जाता है। मार्ग कठिन . . . साधना कठिनतर। अत्यधिक संयम का पालन। वरना पाताल तक गिर जाने की सम्भावना। 

और सबसे सुगम मार्ग—भक्ति मार्ग—ईश्वर की सत्ता पर अटूट विश्वास रखना। जब हरि कृपा हो जाए तो ज्ञान स्वयं उद्भूत हो जाता है। सिद्धियाँ स्वयं भक्त की दास बन जाती हैं। हो सकता है कि कई जन्म लग जाएँ लेकिन हर जन्म में साधना की निरंतरता बनी रहती है। गीता में भगवान ने स्वयं अपने मुख से स्वीकार किया है। कभी-कभी असंख्य जन्म लग सकते हैं लेकिन भक्त को प्रयत्न नहीं करना पड़ता क्योंकि स्वयं भगवान उसको अपनी ओर खींचते है। पुनर्जन्म के चक्र से बचने का अति सुलभ उपाय। 

भक्ति भी दो तरह की मानी गई है:

मर्कट किशोर न्याय और मार्जार किशोर न्याय। 

मर्कट यानी बंदर का बच्चा जिस प्रकार अपने बल पर माँ की छाती से कसकर चिपका रहता है। माँ जितनी ऊँची छ्लाँग लगाती है, शिशु की पकड़ उतनी कस जाती है। इसमे माँ नहीं शिशु का सामर्थ्य महत्त्वपूर्ण होता है। 

और बिल्ली . . . अपने बच्चों को मुँह में दबाए स्थान से स्थान ले जाती है। उनकी रक्षा का पूरा भार माँ का दायित्व होता है। शिशु आँख मूँदे पूरी तरह माँ पर निर्भर रहते हैं। तो श्रेष्ठ भक्ति तो मार्जार किशोर न्याय की हुई। ईश्वर पर पूरी तरह से आश्रित। अब जब पूर्ण समर्पण भक्त कर देता है तो ईश्वर भी विकल्पहीन हो जाता है। 

ईश्वराराधना तक पहुँचने का मार्ग गुरु कृपा द्वारा सुगम होता है। ‘गुरु बिना ज्ञान नहीं, ज्ञान बिना विवेक नहीं, विवेक बिना मोक्ष नहीं’। ईश्वर की अहेतुकी कृपा से गुरु सानिध्य प्राप्त होता है और गुरु जन्म जन्मांतर तक शिष्य का साथ नहीं छोड़ते। अज्ञानांधकार से आच्छादित इस भवसागर को पार कर उस पारलौकिक चैतन्य ज्योति से साक्षात्कार कराने का एक मात्र आश्रय है सद्गुरु। 

गुरु पर अनन्य भाव की आस्था का एक प्रसंग जो पुनर्जन्म की मान्यता को भी बल देता है, प्रस्तुत है इस आत्मकथा में जिसका नाम है: ‘परमहंस योगानंद: एक योगी की आत्मकथा’। आध्यात्मिकता और दार्शनिकता का अभूतपूर्व संगम। दर्शन और विज्ञान का समन्वय। काल-प्रतिबंधित और कालातीत क्रिया-योग की असीमित संभावनाओं का तथ्यपरक आकलन इस आत्मकथा की एकांतिक विशिष्टता है। आत्मकथा का हर पन्ना रहस्यमयी रोमांचकता से पाठक को अभिभूत करने में सक्षम है। 

तो पुनर्जन्म की संघटना उनके प्रिय शिष्य से संबंधित है जिसका नाम था काशी। काशी होनहार मेधावी छात्र होने के साथ-साथ सबका प्रिय भी था। रांची के आश्रम में एक दिन सभी छात्र भ्रमण पर गए थे अपने गुरु के सानिध्य में और गुरु योगानंद हास-परिहास में उनकी जिज्ञासाओं का समाधान दे रहे थे। 

एक छात्र ने गुरु से प्रश्न किया, “गुरुदेव मेरा भविष्य जानने की इच्छा है कृपया बताएँ मैं क्या बनूँगा? 

योगानंद जी ने कहा, “तुम शीघ्र ही यहाँ से प्रस्थान कर जाओगे और तुम्हारा विवाह हो जाएगा।” 

सुनकर सब शिष्य हँसने लगे। यह जवाब उस शिष्य की इच्छा के अनुकूल न था। वह क्रिया योग की साधना सीखने के लिए यहाँ था तो यह जवाब भला उसे कैसे भाता। (भविष्य में सचमुच वह शिष्य वहाँ से प्रस्थान कर गया था और उसका विवाह संपन्न हो गया था)। काशी ध्यान से सब सुन रहा था। उसके मन में भी जिज्ञासा हुई। 

उसने उत्सुकता से पूछा, “गुरुदेव मेरा भी भविष्य बताइएगा।” 

अचानक उनके मुख से निकला ‘निकट भविष्य में तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी’। 

इस जवाब ने सबको अचंभित कर दिया। वातावरण स्तब्ध हो गया। सब सहम गए पर काशी निश्चल बना रहा। कुछ देर मौन रहने के पश्चात उसने कुछ निकट आकर उनसे कहा, “गुरुजी क्या अगले जन्म में भी आप मुझे खोज कर अपने साथ रहने का अवसर देंगे? क्या मुझे अगले जन्म में आप खोज निकालेगे? क्या मैं आपके साथ फिर साधना सीखूँगा?” उस समय काशी की आयु बारह वर्ष की थी। 

इन प्रश्नों ने योगानंद जी को बुरी तरह से उद्विग्न कर दिया। वे पछताने लगे कि क्यों उनके मुँह से ये सब निकल गया। अनावश्यक था बच्चे को इस तरह डराना। 

कुछ ही दिनों में उन्हें किसी काम से शहर छोड़ कर जाना पड़ा लेकिन जाते-जाते वे सबको कड़ी हिदायत देते गए कि उनके लौटने तक काशी को कहीं भी बाहर न भेजा जाए भले ही उसके घरवाले उसे लेने क्यों न आएँ। 
लेकिन वही हुआ जो लिखा हुआ था। काशी के पिताजी आए और उसे उसकी माँ की बीमारी का हवाला देते हुए कलकत्ता लेकर चले गए। कलकत्ता में हैजा फैला हुआ था। काशी उसकी चपेट में आ गया और उसकी मृत्यु हो गई। 

ख़बर सुनने के बाद योगानंद जी सकते में आ गए। पिताजी पर क्रोध आया लेकिन यह समय क्रोध का नहीं था बल्कि प्रश्न यह था। काशी की इच्छा को पूर्ण करने का हल कैसे निकाला जाए? उसकी आत्मा को खोज निकालना और संपर्क स्थापित करना आवश्यक था। उन्होंने अपनी साधना की पूरी शक्ति लगा दी काशी की आत्मा खोज निकालने के लिए। नक्षत्रीय लोक में उन्हें कई चमकते तारे दिखे लेकिन काशी न दिखा। वे दिन-रात हर क्षण उसकी खोज में लग गए। उस स्पंदन को महसूसने, काशी के स्पंदन को। छह महीने बीत गए। हर प्रयत्न निष्फल हो रहा था। वे हार नहीं मानना चाहते थे। कानों में काशी की आवाज़ बेचैन कर रही थी, ‘गुरुजी मुझे ढूँढ़ निकालेगे न आप?’ वे होश खो बैठे थे। उनकी अंतश्चेतना को पूरा विश्वास था कि काशी बहुत जल्द इस धरती पर वापस आ जाएगा और अगर वे अपना संपर्क उससे बनाए रखे तो शीघ्र ही वह भी उस संवेग को पहचान लेगा। दिनभर दोनों हाथ ऊपर उठाकर उँगलियों के पोर पर उन स्पंदनों को छूने की कोशिश करते रहते और रात में कठिन से कठिन योग साधना में लीन हो जाते। उन्हें संज्ञान था कि स्पंदन उँगलियों के पोर हाथ और रीढ़ की हड्डी तक अवश्य पहुँच सकते हैं। असंख्य स्पंदनों में काशी को पहचानने का भगीरथ प्रयत्न, उससे संपर्क करने का अथक प्रयास। एक दिन कलकत्ता के बौ बाज़ार में टहलते अचानक दोनों हाथ उठाकर वे उसे खोज रहे थे कि अचानक विद्युतीय आवेगों ने उनकी उँगलियों के पोरों को छुआ। धीरे-धीरे वे आवेग बढ़ने लगा। हाथ से होता हुआ पूरे शरीर में पहुँच रहा था। कानों में आवाज़ गूँजने लगी। धीरे-धीरे आवाज़ तेज़ होती गई। स्पष्ट सुनाई दे रहा था, “गुरुजी . . . आओ . . . आओ . . . मैं यहाँ हूँ।” वे ख़ुशी से उछल पड़े। चुम्बकीय आकर्षण से खिंचते वे उस मकान के सामने आकर खड़े हो गए। उनके पूरे शरीर में रोमांच हो रहा था। अपनी उत्तेजना को सँभालते उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा खुलते ही उस व्यक्ति ने प्रश्न किया, “कौन है आप? क्या चाहते हैं?” 

अधीरता में वे जवाब न दे सके और उत्सुकता से पूछा, “कृपया बताएँ क्या आपकी अर्द्धांगिनी छह महीने के गर्भ से है?” 

गेरुआ वस्त्र पहने सामने खड़े उस आगन्तुक के मुँह से ये शब्द सुनकर वह व्यक्ति आश्चर्यचकित रह गया। 

“हाँ पर आप यहाँ आकर यह क्यों पूछ रहे हैं?” 

योगानंद जी की ख़ुशी का पारावार न रहा। उस परिवार को सब जानकारी दी गई। इस जन्म में भी उस बच्चे का नाम काशी ही रखा गया। इस जन्म में भी वह बालक साधना के मार्ग पर चला और योगानंद जी ने उसे हिमालय भेजकर दीक्षा दिलवाई थी और उसकी साधना सम्पन्न हुई। (एक योगी की आत्मकथा–पृ.सं. 255) 

इसी लिए तुलसी कहते हैं:

“एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास, स्वाति सलील रघुनाथ जस–चातक तुलसीदास।” 

ईश्वर पर अटल विश्वास हो तो वे अपनी कृपा बरसा कर गुरु का शरीर धारण कर हमारे सामने प्रकट हो जाते हैं और हमारे जन्म जन्मांतर के कर्मों को भस्मीभूत कर हमें इस चक्र से मुक्ति दिला सकते हैं। 

अंततः कहा जा सकता है कि जिस प्रकार शैशवास्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था शरीर का धर्म है और मृत्यु शाश्वत सत्य है। इसी लिए भागवत धर्म में पुनर्जन्म को ध्रुव सत्य के रूप में स्वीकार किया गया है। 

और भारत भूमि तो योग भूमि है, तपोभूमि है, ज्ञान की भूमि है। इसीलिए यहाँ अपढ़ गँवार मूर्ख भी इस ज्ञान को जानता है क्योंकि जब भी उस पर कोई कष्ट आता है तो वह यही कहता है, “न जाने ने किस जन्म में क्या पाप किए थे, क्या कर्म किए थे जो आज यह भोगना पड़ रह है?” 

तो भले ही इस सिद्धांत का हम गणीतीय समीकरण न खोज पाएँ, प्रयोगशाला में परीक्षण भी न कर पाएँ, लेकिन हर विवेकशील हृदय यह अवश्य मानेगा कि जिस प्रकार मृत्यु शाश्वत सत्य है, उसी प्रकार पुनर्जन्म कल्पना नहीं सत्य है, अटल सत्य है भले ही बुद्धि नकार दे। 

प्रस्तुत आलेख में लेखिका के व्यक्तिगत विचार है। पाठक का इससे सहमत होना अनिवार्य नहीं। 

1 टिप्पणियाँ

  • 5 Oct, 2024 02:26 PM

    पुनर्जन्म सिद्धांत पर आप अपने विचारों को विस्तृत करने केलिए जिन उदाहरणों,उद्धरणों और शब्दों का उपयोग करती हैं वे सब बहुत उत्कृष्ट हैं । हिंदू धर्म को अन्य धर्मों से अलग करने वाली महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है पुनर्जन्म का दर्शन। हिंदू धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है जो जीवन को आशा देता है और कई शताब्दियों से इस सूक्ष्म विचार का प्रचार करता है कि जन्म आपके कर्मों के कारण होता है और आप निश्चित रूप से अच्छे कर्मों के माध्यम से एक निश्चित अवधि में मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। हिंदुओं की पूजा पद्धति भी भगवान से धन, दौलत, सुख मांगना नहीं, मोक्ष की तलाश करने और दोबारा जन्म न लेने की भक्ति ही सच्ची भक्तिभाव है। यही कारण है कि भारत में रहने वाले हिंदू पवित्र कर्मों को महत्व देते हैं । इसलिए ही हिन्दु लोग ऐसे तसल्ली हो रहे हैं कि दुख में " पिछले जन्म में मैंने जो पाप किया था, उसका कष्ट भोगना पड़ रहा है और सुख में जिसने मेरे लिए यह पुण्य काम किया है, मुझे लाभ मिला है"। पुनर्जन्म का ऐसा सिद्धांत भारत की सभी भाषाओं में पाया जाता है चाहे वह कोई भी भाषा हो। पुनर्जन्म के इस दर्शन को तमिल भाषा में भी संघ साहित्य और धर्मग्रंथ तिरुक्कुरल में विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है। तिरुक्कुरल में वल्लुवर ने विभिन्न कुरलों में पुनर्जन्म की अवधारणा को स्पष्ट किया है ।उदाहरण के लिए, _'பிறவிப் பெருங்கடல் நீந்துவர் நீந்தார் இறைவனடி சேரா தார் '_ ' _भव-सागर विस्तार से, पाते हैं निस्तार । ईश-शरण बिन जीव तो, कर नहीं पाये पार ॥_ ' ऋग्वेद से लेकर हमारे धर्मग्रंथों, साहित्य और रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्यों तक, पुनर्जन्म के सिद्धांत हमें आकर्षित मात्र नहीं आश्चर्यजनक भी करता है। विज्ञान से परे इतने महान दर्शन को अब मशीनी दुनिया बन चुके यहाँ के कुछ लोग न मानें तो भी यह मिथ्या नहीं होगा।

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