हिंदी के प्रचार प्रसार में दक्षिण का योगदान

15-04-2022

हिंदी के प्रचार प्रसार में दक्षिण का योगदान

डॉ. पद्मावती (अंक: 203, अप्रैल द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

भाषा राष्ट्र की पहचान होती है, देश की जान होती है। किसी भी देश की राष्ट्र भाषा का गौरव उसी भाषा को मिल सकता है जो विशाल जनसमुदाय की बोली हो। भारत में हिन्दी ऐसी भाषा है जो उत्तर से दक्षिण को और पूर्व से पश्चिम को जोड़ती है। हिंदी देश की संपर्क भाषा है, राज भाषा है और राष्ट्र भाषा बनने की पूर्ण रूप से अधिकारी है। लेकिन जब भी हम हिंदी और दक्षिण भारत को जोड़कर देखते हैं तब हमारा ध्यान दुर्भाग्यवश केवल हिंदी विरोधी आंदोलनों तक ही जाकर सिमट जाता है और इसका दुष्परिणाम यह होता है कि इन प्रदेशों के उन देशभक्त हिंदी भाषा तपस्वियों और राष्ट्र मनस्वियों जिनकी मातृ भाषा हिंदी नहीं थी, हिंदी की प्रगति में इन अहिंदी भाषा भाषियों के चिरस्मरणीय योगदान को विस्मृत करा देता है। इसीलिए इस लेख में हिंदीत्तर प्रांत के हिंदी प्रचार प्रसार आंदोलन के पुरोधा उन मनीषियों, युगपुरुषों और विद्वान साहित्यकारों का स्मरण किया जाएगा जिन्होंने राष्ट्र भावना से प्रेरित होकर हिंदी को राजभाषा और राष्ट्र भाषा के सिंहासन पर आरूढ़ करवाने में अपनी प्रखर आवाज़ बुलंद ही नहीं की थी बल्कि, हिंदी को राष्ट्रीय एकता की संवाहक के रूप में स्वीकार कर जीवन पर्यंत इसके प्रसार में लगे रहे और अपने विलक्षण विपुल साहित्य सर्जन से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। 

दक्षिण में हिंदी की विकास यात्रा पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि आरंभ में संस्कृत ने पूरे भारत को जोड़ने में संपर्क भाषा की भूमिका निभाई थी। कालांतर में बौद्ध और जैन धर्म प्रचार के साथ पालि और अपभ्रंश भाषाएँ भी दक्षिण में प्रवेश कर गईं। अपभ्रंश के सुप्रसिद्ध जैन लेखक स्वयंभू ने अपनी रामायण की रचना दक्षिण में की। तत्पश्चात पुष्प दंत ने महापुराण की रचना भी कर्नाटक में की। इस प्रकार हिंदी के आदि रूप अपभ्रंश की रचनाएँ दक्षिण में मिलने के आधार सूत्र शिला लेख पाए जाते हैं। 

भक्ति काल पर दृष्टिपात करें तो अवगत होता है कि सनातन धर्म की आधार शिला ही भक्ति है जो द्रविड़ देश से ही उत्तर पहुँची। इसके प्रवर्तक और प्रेरक दक्षिण से ही आये थे। भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है। कबीर सूर तुलसी मीरा रविदास रामानंद की शिष्य परम्परा में दीक्षित थे। कबीर ने इस तथ्य को स्वीकारा भी था:

‘भक्ति द्रविड़ उपजी लाये रामा नंद’

महाप्रभु वल्लभाचार्य आंध्र के थे जिन्होंने सूरदास को पुष्टि मार्ग की दीक्षा दी थी। वल्लभाचार्य के पश्चात रीति कालीन कवि पद्माकर भट्ट और लाल कवि भी आंध्र के ही थे। 18 वीं शती में केरल के युवा महाराज स्वाति तिरुनाल ने श्रीमद भागवत को आधार बनाकर अपनी अटूट श्रद्धा और भक्ति से अनुप्राणित काव्य देवनागरी में लिखा। कर्नाटक में भी इस काल कुछ संतों की रचनाएँ उपलब्ध है जो हिंदी में लिखी गई हैं जिनमें माणिक महीपति, कृष्णराय, रुक्मागत पंडित, तिप्पणार्य, अण्णवधूत, शिशुनाल के नाम विशेष उल्लेखनीय है। 

आज जो हिंदी का आधुनिक रूप जिसे खड़ी बोली के नाम से अभिहित किया जाता है जो हिंदी का परिनिष्ठित रूप है, उसके विकास में भी दक्षिण की ऐतिहासिक भूमिका रही है। वास्तव में खड़ी बोली का आरंभिक विकास दक्खिनी हिंदी के रूप में दक्षिण के राज्यों में ही हुआ था। अमीर खुसरो ने जिस की खड़ी बोली का प्रयोग अपनी हिंदवी रचनाओं में किया था उसका विकास भी उत्तर न होकर बहमनी, कुतुब शाही, और आदिल शाह जैसे दक्षिण राजाओं के संरक्षण में हुआ। गुलबर्गा, बीजापुर, बीदर गोलकोंडा इसके प्रमुख केंद्र थे। जब तुगलक ने अपनी राजधानी दौलताबाद बनाई तो यहाँ हिंदी के साहित्यिक रूप का भी विकास हुआ और कई लब्ध प्रतिष्ठित कवि दक्षिण में हुए जिन्होंने हिंदी में अभूतपूर्व काव्य रचना की। 

आधुनिक काल में अंग्रेज़ों के आगमन से उन्होंने हिंदी की सार्वदेशिकता को मिटाकर अँग्रेज़ी को स्थापित करने का भरसक प्रयास किया। वे नहीं चाहते थे कि कोई भारतीय भाषा इस देश की संपर्क भाषा बने। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गाँधी जी ने हिंदी की शक्ति को पहचाना कि अगर कोई भाषा है जो पूरे भारत को जोड़ सकती है, पूरे देश का प्रतिनिधित्व कर सकती है तो वह बलवती भाषा है हिंदी और इस उद्देश्य से उन्होंने मद्रास में सर्वप्रथम हिंदी प्रचार सभा की स्थापना की। दरअसल उस समय देश-भक्ति और हिंदी दो अलग बातें न होकर एक दूसरे की पूरक बन गई थी। हिंदी राष्ट्रीय भावना का पर्याय बन गयी थी। दक्षिण के उदारमना राष्ट्रीय नेताओं, समर्थकों और कई साहित्यकारों ने उत्तर भारत जाकर हिंदी सीखी और अपने प्रदेश में आकर फिर इसका प्रचार-प्रसार किया। तमिलनाडु में द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम के संस्थापक श्री यू.वी. कृष्ण नायर के घर में हिंदी का प्रथम प्रचारक विद्यालय खोला गया था। आंध्र से श्री पी वेंकट राव, मोटूरी सत्यनारायणा, जंद्याल शिव शास्त्री जैसे देश भक्तों ने उत्तर भारत जाकर हिंदी सीखी और वहाँ से लौटकर आंध्र में हिंदी प्रचार में लग गए। सभाओं अधिवेशनों पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लोगों को हिंदी सीखने के लिए प्रेरित किया गया। अनुकूल वातावरण की सृष्टि की गई। हिंदी व्याकरण की पुस्तकों का निर्माण हुआ। स्वयंप्रबोधिनी व भाषा विज्ञान की पुस्तकों को छपवाया गया। मद्रास में श्री राजगोपालाचारी जब मुख्य मंत्री बने तब उन्होंने हाई स्कूल में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य कर दी। इन के इन प्रयासों से धीरे-धीरे विद्यालयों में हिंदी पठन-पाठन की व्यवस्था शुरू हो गई। हिंदी का स्कूल और कालेजों में प्रवेश हो गया। स्वतंत्रता के पश्चात दक्षिण भारत प्रचार सभा में शोध संस्थान की स्थापना के साथ ही विश्व विद्यालयों के हिंदी विभागों में भी शोध और अनुसंधान कार्य होने लगा। केरल में श्री एम के दामोदर अण्णी, कर्नाटक में प्रो. नागप्पा और हर्टिकर पांडे जैसे नेताओं ने हिंदी प्रचार कार्य को आगे बढ़ाया। 

दक्षिण में हिंदी की विकास यात्रा के तीन आयाम लक्षित होते है: 

  • मौलिक सृजन 
  • शोध और आलोचना
  • अनुवाद लेखन 

इन तीनों ही क्षेत्रों में ऐसे कई नामी हस्ताक्षर हैं जिन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा से कीर्ति अर्जित की है। 

सर्व प्रथम तमिल क्षेत्र का योगदान 

तमिल भाषियों ने अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त हिंदी पर भी अगाढ़ पांडित्य प्राप्त कर अपना स्तरीय मौलिक सृजनात्मक क्षमता का परिचय दिया है। तमिल भाषी श्री के सी श्रीनिवास प्रेमचंद की लगभग सभी कहानियों और उपन्यासों का तमिल में अनुवाद और महाकवि सुब्रमण्यम भारती का हिंदी अनुवाद, लब्ध प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं का संपादन और संयोजन किया। कई गंभीर और राष्ट्रीय भावना से प्रेरित मौलिक लेखों का प्रकाशन भी किया। 

डॉ. वीलिनाथन जिन्होंने सुदर्शन, और कौशिक जी की कहानियों का तमिल अनुवाद किया। इतना ही नहीं लगभग 200 मौलिक हिंदी निबंधों का लेखन और प्रकाशन किया। 

कामायनी के पद्यानुवाद करने का श्रेय जाता है श्री जमदग्नि जी को। 

डॉ. शंकर राजू नायडु कवि आलोचक अनुवादक, वसुदैव कुटुंब कम की भावना पर आधारित गीतोपहार इनकी 32 कविताओं का संग्रह है। कंबर और तुलसी, तमिल साहित्य और प्रगति, तिर कुरल का हिंदी गद्दानुवाद मौलिक इनकी हिंदी रचनाएँ है। 

पद्मश्री डॉ. मलिक मोहम्मद—आलवार भक्तों का शोधात्मक विवेचन, 50 से भी अधिक उच्चकोटी के साहित्यिक चिंतन प्रधान कृतित्व में राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति के कारण भारत सरकार से पद्मश्री से सम्मानित हुए। 

अगला प्रदेश आंध्र प्रदेश 

आंध्र प्रदेश का नाम आते ही प्रथम स्मरण आता है सुप्रसिद्ध विद्वान, भाषाविद, कवि, साहित्यकार, भारतीय ज्ञान पीठ के भूतपूर्व माननीय निदेशक, साहित्य अकादमी से पुरस्कृत, कविरत्न आई पाँडुरंगा राव जी का जिन्होंने भारत सरकार के कई उच्च पदों पर सुशोभित होकर अखिल भारतीय प्रशासनिक प्रतियोगी परीक्षाओं में राजभाषा हिंदी के साथ-साथ अन्य प्रादेशिक भाषाओं को सम्मिलित करने में उल्लेखनीय योगदान दिया है। पहले आप केंद्र सरकार के प्रादेशिक हिंदी अधिकारी बने। उस समय सिविल परीक्षाओं में भाषा में केवल अँग्रेज़ी और हिंदी का ही विकल्प हुआ करता था। प्रादेशिक भाषाओं के प्रत्याशियों के लिए यह एक बहुत बड़ी समस्या बन गई थी। संघ लोक सेवा आयोग के भाषा निदेशक और वरीय शोध अधिकारी के पद पर कार्यरत डॉ. राव ने केंद्र सरकार की इन परीक्षाओं में शिक्षा नीति की नई भाषाई प्रणाली को लागू कराने का अभूतपूर्व कार्य किया। 

हिंदी साहित्य के क्षेत्र में इनका योगदान

1)1956 में हिंदी और तेलुगु नाटकों का तुलनात्मक अध्ययन, पर शोध करके हिंदी में पीएच. डी. लेने वाले प्रथम तेलुगु भाषी थे, भारतीय साहित्य में तुलनात्मक अध्ययन की परम्परा का सूत्र पात इन्हीं से हुआ था। मनोरम गीतात्मक शैली में सृजित इनके मौलिक काव्य रचनाओं में व्याप्त भक्ति दर्शन और अध्यात्म की त्रिवेणी पाठकों को ईश्वरीय अनुभूति से अभिभूत कर देती है। हिंदी साहित्य इनकी इस अमूल्य देन से कृत-कृत्य हुआ है। अनूदित कृतियाँ-कामायनी, चिदंबरा, आँसू का तेलुगु अनुवाद इनके सारगर्भित चिंतन मूलक निबंध, लेख और मौलिक रचनाएँ कई पत्र पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती रही है। 

2) श्री पी विजय राघव रेड्डी—भाषा विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया। इनके तीन ग्रंथ प्रकाशित हुए, तेलुगु साहित्य की प्रवृतियों का विश्लेषण, हिंदी उड़िया के समानार्थी शब्दों का अध्ययन, इनके भाषा वैज्ञानिक ग्रंथ है, और बाल साहित्य। 

3) प्रो. सुंदर रेड्डी—उच्च कोटि के चिंतक, लेखक, आलोचक, कहानीकार। 

4) डॉ. चलसानी सुब्बा राव—ने नाटककार के रूप में ख्याति प्राप्त की। 

5) डॉ. बालशौरी रेड्डी—साहित्य अलंकार, साहित्य रत्न उपाधियों से अलंकृत, उपन्यासकार, समीक्षक, अनुवादक। 

6) अरिगीपूडि रमेश चौधरी—आंध्र में सर्वप्रथम हिंदी मौलिक उपन्यास लिखने का श्रेय इन्हें जाता है, 20 से भी अधिक उपन्यास, 35 से भी अधिक काव्य रचनाएँ हिंदी में, राजभाषा परिषद, राष्ट्र भाषा प्रचार समिति से पुरस्कृत। 

इनके अतिरिक्त जंद्याल शिवन्न शास्त्री, कामाक्षीराव ए एस शास्त्री ऐसे सहस्रों नाम इस पंक्ति में आते है जिन्होंने भाषा व्याकरण, रचना, अनुवाद द्विभाषी कोश लिखकर हिंदी भाषा को समृद्ध किया। 

यहाँ एक और नाम ससम्मान जोड़ा जा सकता है वह है . . . हिंदी अनुरागी हमारे भूतपूर्व प्रधान मंत्री श्री पी वी नरसिंहा राव जी का जिन्होंने 1968 में तेलुगु के सुप्रसिद्ध साहित्यकार विश्वनाथ सत्यानारायण जी के लिखे महान उपन्यास; वेई पडगलु का सहस्रफन नाम से हिंदी अनुवाद किया था। 

धर्म और संस्कृति का गढ़ केरल प्रदेश

सनातन संस्कृति की आधार शिला ही भक्ति भावना रही है। जिस प्रकार बाबा शिव की नगरी काशी हिंदुओं की आस्था का प्रतीक है उसी प्रकार रामेश्वर भी उतना ही पवित्र और महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल माना गया है। यूँ कहना समीचीन होगा कि भगवान शिव की परिक्रमा तभी पूरी मानी जाएगी जब इन दोनों स्थलों का दर्शन कर लिया जाए। यही मान्यताएँ रहीं होंगी जिसने उत्तर भारत को दक्षिण से और दक्षिण भारत उत्तर से जोड़ा। और तो और व्यापार वाणिज्य ने भी महत्त्व पूर्ण भूमिका निभाई थी। यह हिंदी की ही बलवती शक्ति थी कि जिन किसी भी माध्यमों से जहाँ कहीं पहुँची वहाँ के रंग में ढल गयी, उन क्षेत्र वासियों को अपनाया और प्रभावित किया एक जिसका उदाहरण हमारे सामने आता है . . .
 1) केरल श्री स्वाति तिरुनाल, भक्ति की प्रति मूर्ति, मलयालम भाषी कवि जिन्होंने 18 वीं शताब्दी में 150 वर्ष पूर्व हिंदी को अपनी काव्य रचना का माध्यम बनाया था। है न अद्भुत बात! इन्होंने सूर तुलसी मीरा रस खान से प्रेरणा लेकर उन्हीं की पद्धति पर भक्ति रस से भरपूर गीतों की रचना की है। भगवान कृष्ण की लीलाओं और महिमा से मंडित एक उदाहरण प्रस्तुत है: 
 
करुणा निधान कुंज के बिहारी, तुम्हारी बंसी लाला मेरो मनोहारी, 
इसी बंसी से सुर नर मुनि मोहे, मोह गयी सारी ब्रज नारी। 
जब स्याम सुंदर का तन देखी, जनम जन्म के मैं संकट तारी। 
वात्सल्य रस में आसक्त सूर के समकक्ष श्री स्वाति तिरुनाल। 

इनकी भाषा में ब्रज, खड़ी बोली और दक्खिनी हिंदी का अजीब मिश्रण पाया जाता है, इन भक्ति रस गीतों का साहित्यिक महत्त्व यही है कि हिंदी के हृदय स्थल से कोसों दूर एक मलयालम भाषी कवि ने हिंदी में कृष्ण भक्ति काव्य की परंपरा को जीवित रखने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। 

2) इसी क्रम में अगला नाम डॉ. एस तंकमणि अम्मा मलयालम के खंड काव्य, आधुनिक हिंदी खण्डकाव्य, संस्कृति के स्वर इनकी मौलिक रचनाएँ है। और विपुल अनुवाद कार्य भी आपने संपन्न किया है। तत्पश्चात श्री उण्णिजी, श्री केशवन नायर, कृष्ण वारियार, के की अजय कुमार, श्री ए ऐन नारायण प्रसाद के नाटकों का अनुवाद, राष्ट्र वाणी पत्रिका के संपादक वासुदेवन पिल्लै, अच्युत वारियार, प्रो. कृष्णण कुट्टी, इत्यादि कई अनुवादकों और साहित्य प्रेमियों का योगदान अविस्मरणीय है। 

कहा जा सकता है कि हिंदी की सभी विधाओं में यहाँ केरल में मौलिक सृजन और अनुवाद भी विपुल मात्रा में किया गया है। 

कर्नाटक प्रदेश:
 
इस प्रदेश में में हिन्दी के भीष्म माने जाने वाले प्र. नागप्पा, डॉ. गुडप्पा, डॉ. चंद्र शेखर, डो सिद्ध लिंग पट्टण शेट्टी जिन्होंने मोहन राकेश के नाटकों का और रेणु जी की कहानियों का कन्नड़ अनुवाद किया। 

पत्रकारिता के क्षेत्र में भी दक्षिण का विशेष योगदान रहा है। कई पत्र-पत्रिकाएँ हिंदी को लोकप्रिय बनाने में विशेष योगदान दे रही हैं। 

कहा जा सकता है कि गाँधी जी ने जो बीज दक्षिण की धरा पर बोये थे वे पल्लवित पुष्पित होकर वट वृक्ष बन गये। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत के सभी प्रदेशों से अधिक दक्षिण के हिंदी सेवियों ने केंद्र में कई प्रशासनिक पदों पर सुशोभित होकर अवसर का समुचित लाभ उठाकर हिंदी के प्रचार और उन्नयन हेतु महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए हैं और इसे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर स्थापित किया है। आज इन सभी के योगदान की ओर अगर दृष्टिपात करें तो यह तथ्य उभर कर आता है कि दक्षिण की छवि हिंदी विरोधी प्रदेश के रूप में बनी हुई है। लेकिन सच तो यह है कि वह तो हमेशा हिंदी की कर्म भूमि रही है। इस कलंकित छवि से दक्षिण को विमुक्त कर इन साहित्यकारों के स्तुत्य प्रयासों को प्रकाश में लाकर ही हम महानुभावों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित कर सकेंगे। क्योंकि विरोध तो केवल और केवल राजनैतिक दायरों का ही है। 

जनमानस आज भी हिंदी से उतना ही प्रेम करता है जितना पहले करता था। हिंदी को जनमानस से मिटाना एक सपना मात्र ही है जो अतिशीघ्र धराशायी हो जाएगा क्योंकि सब जानते हैं कि राजनीति में कोई बात स्थिर रूप से नहीं रहती . . . बदलती रहती है। आज है कल नहीं। विरोध भी हट जाएगा, और दक्षिण प्रदेश इस नकारात्मक मानसिकता और नकारात्मक छवि से मुक्त हो जाएगा। 

एक बात और ध्यातव्य है कि इन सभी साहित्यिक पुरोधाओं के पास हिंदी का सुविधा भोगी वातावरण नहीं था। ऊर्वरा मिट्टी और जलवायु नहीं थी। अगर कुछ था तो बाहर दोगली राजनीति और विरोध की आँधियाँ थी। इन्हें अपने लिए वातावरण बनाना पड़ा था। लेकिन यह विचारणीय है इनके साहित्य पर आज भी शोध की सम्भावना उतनी ही बनी हुई है। इनके साहित्यिक योगदान से हिंदी प्रदेश अनभिज्ञ ही बना रहा। इन भाषाई दायरों को लाँघ कर इन साहित्यकारों को राष्ट्रीय मंच पर प्रतिष्ठित करना हर एक हिंदी प्रेमी का अभीष्ट होना चाहिए। तभी हम इनके रचना धर्म के साथ न्याय कर सकते है। इन्होंने अपनी प्रांतीय भाषा के साथ-साथ हिंदी को अपनाया, उसे गौरवांवित किया। और यह भी सार्वजनीन तथ्य है कि हिंदी की सार्वदेशिकता ने बिना किसी भेद-भाव के सबको अपनाया। जहाँ भी पहुँची वहाँ की प्रादेशिक बोली के साथ घुल मिल गई। क्योंकि भाषा नहीं सिखाती आपस में बैर करना। यही विशेषता हिंदी को सच्चे अर्थों में राष्ट्र भाषा बनने की अधिकारी बनाती है।  

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

बाल साहित्य कहानी
कहानी
सांस्कृतिक आलेख
लघुकथा
सांस्कृतिक कथा
स्मृति लेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सामाजिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
यात्रा-संस्मरण
किशोर साहित्य कहानी
ऐतिहासिक
साहित्यिक आलेख
रचना समीक्षा
शोध निबन्ध
चिन्तन
सिनेमा और साहित्य
विडियो
ऑडियो