तीसरी लड़की
डॉ. पद्मावती
“ममा . . . अब बहुत हुआ अकेले रहना . . . अस्सी की हो रही हो। अब तो ये भी कह रहे हैं। बार-बार आकर देखना मुझसे भी न हो रहा है। अब कल यह किराए का घर ख़ाली कर तुम हमेशा के लिए मेरे पास आ जाओगी। समझी . . . मैंने सब व्यवस्था कर दी है . . . तुम्हें पूछे बिना। वरना तुम तो मानने से रही।”
“पर बेटा ये सब अचानक . . . और लड़की के घर?” क्षीण प्रतिरोध स्वीकार्य की मुद्रा में निकला।
“माँ . . . फिर वही राग? तुम किसी पर आश्रित नहीं हो। पेंशन आती है। चार को अपने पैसे से खिला सकती हो। फिर कैसी झिझक? समझो माँ समझो। उम्र के इस दौर में सहारा चाहिए, स्वतंत्रता नहीं . . . और कौन है वहाँ भी जो तुम्हारी आज़ादी छीनेगा। अब और हम तीनों बहनें तुम्हारा कहा न मानेंगी। हम सबने मिलकर निश्चय कर लिया है। बहुत हुई तुम्हारी मनमानी। माना तुम अकेली रह सकती हो पर . . . न . . . हमें चिन्ता लगी रहती है बस और कुछ नहीं। वहाँ बड़ी दोनों भी आती-जाती रहेंगी। समझीं। बस अब और नहीं।”
शांता ने सर कुर्सी से टिका दिया और हल्के से आँखें मूँद ली। धुँधली आँखों में वह मंज़र घूम गया . . . बरसों पुराना मंज़र। धुँधली तो केवल आँखें हुईं थीं . . . याद तो सब था।
♦ ♦ ♦
“कौन हुआ . . . कौन हुआ मुझे . . . बोलो न . . . बताते क्यों नहीं।”
लेडी हार्डिंग अस्पताल का प्रसूति गृह—असहनीय दर्द सहती शान्ता रोती कराहती नर्स से पूछ रही थी।
“माई . . . चुप . . . चुप . . . चिल्ला मत . . . लड़की . . . लड़की हुई है लड़की,” नर्स ने बच्ची को हिलाते कहा था।
“फिर से लड़की . . .” आह मिश्रित चीख निकल गई थी शान्ता की। “तीसरी भी लड़की? . . . छिः . . .” अनायास आँख से धार बह निकली थी। ये आँसू प्रसव पीड़ा के थे या ‘तीसरी लड़की’ होने की ख़बर के . . . अनुमान लगाना आसान था।
“अरे . . . बहुत सुंदर है . . . चाँद जैसी . . . दिखाऊँ? देख इधर . . . देख।”
“नहीं देखना मुझे . . . कूड़े में फेंक दो . . .। या किसी को दे दो। नहीं देखना मुझे,” शांता उधर देखे बिना मुँह मोड़ सिसक पड़ी थी अपनी बेबसी पर। अबकी बार बहुत आस थी लड़के की उन्हें। पूरा विश्वास था कि लड़का ही होगा। यहाँ तक कि नाम भी सोच लिया था।
“अच्छा . . . ऽ . . . ऽ . . . ऐसा क्या? ठीक है,” नर्स उसे बिलखता छोड़ बच्ची को ले जाने लगी थी।
पर अगले कुछ ही क्षणों में न जाने क्या हुआ, नन्ही गला फाड़ कर रोने लग गई थी . . . चुप होने का नाम ही न ले। पूरा कमरा सिर पर उठा लिया। अब बच्चे की रुलाई से शांता अपना रोना भूल गई और नर्स को बुलाकर पूछने लगी, “क्यों रुला रहे हो इतना मेरी बच्ची को?”
“अच्छा?” सिस्टर भी कम कहाँ थी। तीखे स्वर में उसने भी जवाब दिया था, “तुम अभी कहा न कूड़े में फेंकने को . . . फिर तुमको क्यों दर्द हो रहा? कहाँ से आया अभी से इतना प्रेम? हाँ? रोने दो . . .।”
आज शांता को एक-एक शब्द याद आने लगा। मन में फिर से वही तरंग उठने लगी।
“ओफ् . . . तो क्या सच्ची में थोड़ी बोला। मुझे दो मेरी बच्ची को। भूख लगी होगी . . . भूखी है बेचारी। दूध पिलाना है . . . दो . . .” उस क्षण बाहर आँचल में जो बह रहा था, वह था माँ का दूध और जो अंदर पिघल रहा था, वह था माँ का हृदय।
♦ ♦ ♦
“माँ . . . रसोई समेट दी और अब मैं जा रही हूँ,” आवाज़ से शांता की विचार तंद्रा भंग हुई।
“बेटा . . . पूजा की थाली में बताशे हैं . . . तेरे लिए रखे हैं . . . खाती जा।”
“खा लिए माँ . . . अब आप दूध पीकर सो लो मैंने गर्म कर दिया है। मैं बाहर से दरवाज़ा बंद कर दूँगी। कल आती हूँ . . . सुबह। बहुत काम है कल। बाय ममा,” उसने आगे आकर माँ को चूम लिया और बाहर की ओर निकल गई।
‘बाय’ शांता के पोपले मुँह से आवाज़ निकली और वे पलक झपके बिना देखती रही, जाते हुए अपने जिगर के टुकड़े को . . . अपनी उस ‘तीसरी’ लड़की को।
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बहुत सुन्दर कहानी
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