बिना विचारे जो करे . . .
डॉ. पद्मावती
उल्लुओं की महासभा में सरदार सहित सभी उल्लू ग़मगीन सर झुकाए बैठे थे। गहरी चुप्पी इतनी कि अगर सूई भी नीचे गिरे तो आवाज़ सुनाई दे जाए।
कुछ समय यूँही बीता। आख़िर ऊब कर सरदार ने धीरे से सर उठाया। अपनी गोल-गोल आँखें घुमा कर चारों ओर देखा। कुछ उल्लू सो रहे थे। कुछ जम्हाई ले रहे थे और कुछ खुली आँखों से सोते जागने का नाटक कर रहे थे। उन्हें जगाना आवश्यक था। तो सरदार ज़ोर से खाँसा। आवाज़ इतनी अंदर से निकली कि उसका पूरा शरीर हिल गया और वह गिरते-गिरते बचा।
अपने को सँभालते वह सीधा हुआ और फिर उसने बोलना शुरू किया, “बंधुओं, हम सब जानते हैं। जानते हैं कि नहीं?” मुंडी घुमा कर उसने फिर चारों ओर देखा। सभी उल्लू उसकी खाँसी से अभी–अभी सचेत हुए थे। सब की आँखों में प्रश्न तैर रहा था कि सरदार क्या जानने की बात कर रहा है? वह सकपका गया। फिर उसे याद आया कि अरे . . . अभी बात तो पूरी की ही नहीं तो ये उल्लू क्या जवाब देंगे।
अपनी जल्दबाज़ी छिपाते उसने बात जारी रखी, “देखो बंधुओं . . . हममें से सभी न सही पर कुछ तो जानते ही हैं कि मनुष्य जाति हमें ‘मूर्खता’ का पर्याय मानती है। हम उनके लिए गाली हैं। अब आप बताएँ क्या हम सचमुच में मूर्ख हैं?”
“हाँ . . . हाँ . . . हाँ,” सभी तेज़ आवाज़ में चिल्लाए और सरदार के मान में मुंडी हिलाकर हामी भी भरी।
“नहीं उल्लुओं, नहीं। यह हमारे नाम पर कलंक है। हमें यह कलंक धोना होगा। हमें इस प्रदेश में और नहीं रहना जहाँ हमारा नाम ही गाली हो। समझे कुछ उल्लुओं?”
“हाँ . . . हाँ . . . हाँ नहीं रहना . . . नहीं रहना . . . यहाँ नहीं रहना,” एक बार फिर सामूहिक आवाज़ गूँजी।
“सागर पार देश हमें बुद्धिमान मानता है। वही सही जगह है हमारे रहने के लिए। हम यहाँ से कूच कर जाएँगे।”
सरदार अब कुछ आश्वस्त सा हो गया था। बात में वज़न महसूस कर रहा था।
कुछ देर निस्तब्धता छाई रही।
“पर जाएँगे कैसे . . .?” सर खुजलाता वह फिर गहरी सोच में डूब गया। सरदार की देखा-देखी सब उल्लू गहन सोच में डूब गए।
समूह में से अचानक एक उल्लू उछला, “सरदार, सरदार . . . आइडिया। सुना है गिद्ध बड़ा ऊँचा उड़ते हैं। उनसे मित्रता कर उनकी मदद ली जाए तो कैसा हो।”
उसकी बुद्धिमानी पर सब गद्गद् हो गए। ईर्ष्या से उसकी ओर देखने लगे। उसका सीना फूल चुका था।
“हाँ . . . हाँ . . . गिद्धों पर सवार जाएँगे . . . गिद्धों पर सवार जाएँगे!” समवेत स्वर गूँजा।
सरदार ख़ुश हुआ। तत्क्षण निर्णय लिया गया।
उल्लुओं की एक टुकड़ी दूर सागर के पास ऊँची चट्टान पर आराम फ़रमा रहे गिद्धों के पास मैत्री प्रस्ताव लेकर गई। गिद्धों ने आपस में विचार विमर्श किया। उल्लुओं का आवेदन सहर्ष स्वीकृत हुआ। अपनी पीठ पर बिठा कर दस दिनों में सागर पार करवाने का आश्वासन दिया गया।
उल्लुओं के कूच की तैयारी होने लगी।
सरदार ने एक बार फिर सब को सचेत किया, “‘कलंक मिटान’ अभियान में . . . क्यों उल्लुओ . . . क्या तैयार हो? सोच लो . . . जान भी जा सकती है।”
सब ने समवेत स्वर में कहा, “आप बेफ़िक्र रहो सरदार। आप जैसे उल्लू का साथ हम जीवन पर्यंत निभाएँगे। जाएँगे, जाएँगे गिद्धों के साथ जाएँगे!” उत्साह और ऊर्जा का वातावरण बन चुका था।
एक बार फिर उसी बुद्धिमान उल्लू से राय ली गई। अमावस की काली रात में, रात के बारह बजे के बाद शुभ मुहूर्त तय हुआ। ठीक समय पर सब उल्लू चट्टान पर पहुँच गए।
गिद्ध तैयार बैठे थे।
यात्रा शुरू हुई। गिद्ध उन्हें लेकर सागर के पास चट्टानों पर ही गोल-गोल उड़ रहे थे। दिन बीत रहे थे। रातें बीत रही थीं। न आर-न पार। सभी उल्लू वहीं के वहीं रहे।
कुछ ही समय बाद एक-एक कर उल्लू भूख से मरने लगे और गिद्ध चुपचाप उनका भोग लगाते रहे।
सरदार ने देखा उल्लुओं की संख्या दिन-ब-दिन कम हो रही है। बचे हुओं ने नारा लगाया, “कलंक मिटान अभियान . . . ज़िंदाबाद!”
सरदार आश्वस्त था। ख़ुश था। सोचा जितने कम उल्लू साथ होंगे उतनी जल्दी पहुँच जाएँगे।
आख़िर वह दिन भी आ गया जब उसकी भी जान पर बन आई। भूख से बेहाल, आँखें सिकुड़ कर गिट्टियाँ हो गईं। प्राण पखेरू उड़ रहे थे। धीमी आवाज़ निकली। पूछा, “सागर पार और कितनी दूर है?”
गिद्ध बोला, “प्राण जाए तो जाए पर कलंक को मिटाना है तो चुपचाप मुझे पकड़ कर बैठे रहो।”
सरदार के प्राण उड़ गए और वह भी गिद्धों का भोग बन गया।
गिद्ध अब उदास हो गए। मुखिया से बोले, “सरकार . . . दस दिन उल्लुओं की ख़ूब मौज रही। अब तो सारे उल्लुओं को डकार चुके। बैठे–बिठाए दावत होती रही। अब आगे क्या होगा सरकार?”
गिद्धों की समस्या वाजिब भी थी। बूढ़े मुखिया ने सिर खुजाया और मुस्कुराकर कर कहा, “चिंता मत करो बान्धवो। उल्लू कभी मरते नहीं है। वे अजर अमर हैं। देखो पीछे आसमान में . . . वे आ रही है एक और टुकड़ी उल्लुओं की। अबकी बार हम उन्हें बुलाएँगे। आतिथ्य देंगे। उन्हें उनके नाम पर लगे धब्बे का भेद समझाएँगे। उन्हें इस कलंक को मिटाने का उपाय भी हम ही बताएँगे। उन्हें आश्वासन देंगे। उन्हें उनके पूर्वजों के बलिदान की कहानियाँ भी सुनाएँगे। क्या समझे?”
सब गिद्ध मुखिया के चरणों पर झुक गए।
(स्वीकारोक्ति: कहानी का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति या परिस्थिति पर आक्षेप करना नहीं है)