जाको राखे साइंयाँ

15-12-2021

जाको राखे साइंयाँ

डॉ. पद्मावती (अंक: 195, दिसंबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

वर्ष 2004 दिसम्बर का महीना 26 तारीख़—अविस्मरणीय! कुछ तारीख़ें मन पटल पर ऐसे अंकित हो जाती हैं जिन्हें स्मृति कोश से मिटा पाना असम्भव सा लगता है। और जब ऐसा प्रकरण जिस ने पूरी दुनिया में ही क़हर ढा दिया हो, पूरी मानव जाति को ही आतंकित कर दिया हो . . . तो उस दुर्घटना की स्मृति भले ही व्यक्तिगत स्तर पर हमें उतना विचलित न करे, पर मानवीय संवेदनाओं के चलते हम थोड़ा बहुत दुखी अवश्य हो जाते हैं। लेकिन सच मानिए . . . अगर ऐसी ही किसी घटना की आँच हम तक भी पहुँच जाए . . . और हम अप्रत्याशित ढंग से उससे बाल-बाल बच निकलें तो . . . तो फिर उसकी छाप मिटाए नहीं मिटती। इसे फिर चाहे ’डर’ कहें या ’अज्ञात’ के प्रति कृतज्ञता भाव . . .  कुछ भी हो । वह भुलाया नहीं जा सकता। हाँ . . . ऐसे दुखांत समय के साथ धूमिल अवश्य हो जाते हैं लेकिन अवसर मिलते ही मन के पतले कोनों से छितर कर बाहर निकल आते हैं . . . डरा भी जाते हैं और . . . घाव ताज़ा भी कर जाते है। 

क्रिसमस की छुट्टियाँ, घर मेहमानों से भरा हुआ था। दीदी का परिवार कलकत्ता से पहली बार हमारे पास चेन्नई आया हुआ था। तब हमें भी यहाँ बसे कुछ ही वर्ष हुए थे। हम भी इस नगर, यहाँ की संस्कृति, परम्परा, बोली, रीति-रिवाज़, खाना-पीना, रहन-सहन इत्यादि बातों को धीरे-धीरे जान रहे थे . . . समझ रहे थे . . . और अपने को उस हिसाब से ढाल रहे थे। 

’चेन्नई’ . . . बंगाल की खाड़ी के तट पर बसा हुआ दक्षिण भारत का मुख्य व्यावसायिक केंद्र। तमिलनाडु की राजधानी। ऐतिहासिक विरासत और संस्कृति का समागम ही नहीं बल्कि भक्ति और कला का भी संगम क्षेत्र है। प्राचीन संरचनाओं और वास्तुकला से निर्मित भव्य मंदिरों व धरोहर स्थलों का नगर। अतीत के काल खण्ड में निर्मित अद्वितीय मनमोहक कलाकृतियाँ। हर मंदिर शताब्दियों पूर्व तत्कालीन राजसी वैभव को दर्शाता हुआ। अध्यात्म का गढ़। चाहे वह फिर कापालीश्वर मंदिर हो या पार्थ सारथी मंदिर। हर मंदिर अपने आप में दिव्य . . . अद्भुत . . . देदीप्यमान। पारम्परिक द्रविड़ शिल्प कला का उत्कृष्ट उदाहरण। 

हर दिन हम किसी न किसी स्थल और मंदिर का दर्शन करते हुए आनंदित हो रहे थे। उन्हें पूरा शहर घुमा कर दिखा रहे थे। 

लेकिन केवल मंदिरों का दर्शन बच्चों को कैसे ख़ुश कर सकता था। वैसे यहाँ समुद्री तट का आकर्षण भी कम नहीं है। मेरीना सागर तट और बीसेंट नगर दोनों ही बेहद ख़ूबसूरत तट हैं यहाँ के। मेरीना में भीड़-भाड़ कुछ अधिक होती है लेकिन बीसेंट नगर तब शांत हुआ करता था। जी भर के अथाह सागर की लहरों में खेलने की उत्तम पसंद। तो फिर क्या . . . हर शाम हमारी लहरों पर ही बीत रही थी। दिन ढलते ही आ जाते थे . . . सागर में बच्चे और बड़े सब ख़ूब खेलते . . . फिर फ़्रूट शॉप पर डेरा जम जाता . . . “जग्गरनॉट केरामल शेक’ और बॉम्बे फ्रेंकी का आनंद लिया जाता . . . और . . . आनंदा भवन रेस्तरां में विशुद्ध दक्षिण भारतीय इडली दोसा का स्वादिष्ट रात्रि भोज। वाह! मौजाँ ही मौजाँ। और यह हमारा नियत कार्यक्रम बन चुका था। वैसे यहाँ बिहारी भैया के गोलगप्पों का ठेला भी हमने ढूँढ़ निकाला था। हम उनसे ख़ूब बतियाते और जी भर के पानी-पूरी (यहाँ गोलगप्पों को यही कहा जाता है) भी खाते। 

25 दिसम्बर . . . क्रिसमस . . . की शाम भी हम बीसेंट नगर सागर तट गए और पानी से ख़ूब खिलवाड़ किया। खाया-पिया . . . ख़ूब मस्ती की। 

लेकिन बच्चों का मन अब भी नहीं भर रहा था। तब अचानक तय हुआ कि 26 की सुबह लंबी ड्राइव पर चलेंगे। योजना कुछ इस प्रकार बनी कि पहले मामलापुरम की ओर चलेंगे जिसे महाबलिपुरम भी कहा जाता है। वह मद्रास से लगभग 45 कि.मी. की दूरी पर है और सड़क होगी . . . ईसीआर यानि (ईस्ट कोस्ट रोड); ’पूर्वी तटीय मार्ग’। यह बंगाल की खाड़ी के समानांतर बनाई गई सड़क है जो 100 कि.मी. तक सीधा पांडिचेरी तक जाती है जिसका अब सौंदर्यीकरण कर उसे राजमार्ग बना दिया गया है लेकिन वो तब उस समय में एकल सड़क थी। समुद्र के किनारे-किनारे सड़क पर फिसलती गाड़ी से आप बिना किसी अवरोध के नीले अथाह समुद्र को क्षितिज से मिलते देख सकते हैं और वो भी पूरे सफ़र आद्यांत। 
 

ईसीआर मार्ग (ईस्ट कोस्ट रोड)

ऐतिहासिक धरोहर स्थल महाबलिपुरम अपने प्रस्तर चट्टानों पर बने रथों, मंदिरों, गुफाओं और संग्रहालयों के लिए भी विख्यात है। वहाँ का सागर तट बहुत ही शांत और मनोरम होता है। शोर-गुल से पलायन की उत्तम जगह। तो तय हुआ कि कुछ समय वहाँ बिताने के बाद पांडिचेरी की ओर गमन किया जाएगा जो वहाँ से लगभग 100 कि.मी. की दूरी पर है और समुद्र के समानांतर की सड़क से ही होगा सफ़र . . . पांडिचेरी में श्री अरविंद आश्रम और सागर तट का ख़ूबसूरत मिलन। घूम-फिर कर फिर वहाँ से मध्याह्न भोजन के पश्चात संध्या को ’तिरुवन्नामलई मंदिर’ की ओर प्रस्थान किया जाएगा जो वहाँ से फिर लगभग 100 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। मंदिर का दर्शन कर रात का भोजन बाहर . . . फिर वापस राजमार्ग से चेन्नई वापस आ जाएँगे . . . अर्थात्‌‌ पूर्व से आरंभ कर पश्चिम में अंत . . . यानि परिक्रमा पूर्ण। हमारी यह योजना सभी की सर्वसम्मति से पारित हो गई। समय सारणी भी तैयार की गई। सभी सदस्यों को विशेषकर बच्चों को समय की पाबंदी पर निर्देश भी दिए गए। सब ने हामी भरी। सभी रोमांचित थे। फिर क्या था . . . तैयारी शुरू हो गई। यात्रा की उत्तेजना ने रात को ठीक से सोने भी नहीं दिया।

मामलापुरम के प्रस्तर रथ

सुबह सब जल्दी उठ गए। यात्रा का रोमांच ही कुछ ऐसा था। छुट्टियों में जो प्राणी दस बजे तक सूरज की रोशनी नहीं देखते थे, आज चार बजे ब्रह्ममुहूर्त में उठकर बैठ गए थे। अचानक घर के पुरुषों और बच्चों में कुछ खुसर-पुसर आरंभ हुई और सबने मिलकर एक स्वर में विस्फोटक घोषणा की कि आज सफ़र का भोजन वे बनाएँगे। शायद जल्दी उठने का दुष्प्रभाव ही था। दरअसल हमारी इस यात्रा के सहभागी थे . . . चार वयस्क, दो शरारती बच्चे जिनकी उम्र दस के नीचे थी और दो चपल बुज़ुर्ग जिनकी आयु साठ के ऊपर थी। इसीलिए पहले ही निर्णय कर लिया गया था कि एक समय का खाना हम घर से ही लेकर जाएँगे। वैसे तमिलनाडु में आपको राजमार्ग में क़दम-क़दम पर शाकाहारी भोजनालय मिल ही जाएँगे। शायद मेरे ख़्याल से यह ही एक ऐसा राज्य है जहाँ शुद्ध शाकाहारी भोजनालय सबसे अधिक सफल व्यापारिक उद्यम है। हर रेस्तरां की अनगिनत शाखाएँ, अनगिनत शृंखलाएँ, अनगिनत शहरों में और विदेशों में भी मिल जाएँगी। 

तो तय हुआ था कि हम एक समय का खाना घर से ही लेकर जाएँगे और रात को थके-हारे बाहर भोजन कर लिया जाएगा। 

तो अब खाना बनाने की ज़िम्मेदारी महिलाओं के हाथ से निकल कर पुरुषों और बच्चों के हाथ में चली गई थी।  उन्होंने रसोई का अधिक्रमण किया और अंदर घुस कर सब दरवाज़े बंद कर लिए। अंदर महाभोग की तैयारी ज़ोर-शोर से होने लगी–’टमाटर चावल’। लेकिन कुछ ही क्षणों में दरवाज़े खुल गए और बाहर आकर हमसे लहसुन माँगा गया क्योंकि वह एक ‘अत्यावश्यक और अनिवार्य सामग्री’ था जिसके बिना भोग बनाना सम्भव नहीं था।  दुर्भाग्य! घर में नहीं था। वैसे तो हमारे घर में लहसुन निषिद्ध तो नहीं लेकिन हाँ, नियमित उपयोग में भी नहीं लाया जाता है। इस लिए कम ही मँगाया जाता है। तो अब . . . रसोइयों की टोली बाहर निकली और हम पर बरस पड़ी . . . हमें हमारी रसोई की अव्यवस्था का दिग्दर्शन कराया गया, लहसुन के गुणों और उपयोगिता पर लंबा चौड़ा भाषण भी झाड़ा गया और लहसुन के प्रति हमारी कुत्सित संकीर्ण सोच का शुद्धीकरण किया गया . . . लेकिन हाय! अब क्या हो सकता था . . . केवल प्रतीक्षा ही की जा सकती थी . . . सुबह होने की . . . दुकान खुलने की . . . लहसुन ख़रीदने की। तब तक खाना बनाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया था। 

आख़िर छह बज ही गए . . . नुक्कड़ की दुकान खुली और लहसुन ख़रीद कर लाया गया फिर खाना बनाने की प्रक्रिया आरंभ की गई। तब तक सात बज चुके थे। हमारी योजना के अनुसार हमें अब तक गाड़ी में होना चाहिए था लेकिन प्रथम चरण में ही हमारी योजना हिलडुल गई। 

ख़ैर . . . खाना बँधा . . . तैयारी पूर्ण हुई। साढे़ सात बज गए। 

अब अचानक झटका लगा। लगा जैसे सब कुछ हिला। कुछ कंपन महसूस हुआ। सब लोग थोड़े घबराए लेकिन फिर कुछ ही क्षणों में सब सामान्य हो गया था और हम सफ़र की उत्सुकता में सारा सामान गाड़ी में रखने लगे। बात आई-गई हो गई। किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। 

हमारी गाड़ी चल पड़ी। हम उत्तरी मद्रास में रहते थे। पहले गाड़ी में पेट्रोल भराना था। तब तक आठ बज चुके थे। धूप चढ़ आई थी। सूरज सर पर आ धमके थे। वैसे भी सूर्य देव यहाँ कुछ ज़्यादा ही मेहरबान और उदारमना होकर अपना ताप दक्षिणवासियों पर लुटाते हैं। अचानक सोचा इस गर्मी में सागर तट पर जाना बुद्धिमानी नहीं होगी इसीलिए दिशा परिवर्तन कर पहले हम पश्चिम की ओर चलेंगे। तब पहले तिरुवन्नामलई मंदिर आएगा, वहाँ से पांडिचेरी, फिर वहाँ से महाबलिपुरम पहुँचते शाम हो जाएगी तो शाम को पूनम की चाँदनी में लहरों का संगम . . . 26 दिसम्बर . . . पूर्णमासी का चाँद . . . अद्भुत आनंद रहेगा। और वहाँ से ईसीआर से वापस चेन्नई। वैसे ईसीआर से यात्रा अपने आप में एक बहुत ही सुखद अनुभूति से कम नहीं है। सबसे विचार किया गया और यह योजना सबको समुचित भी लगी। हमारी पूर्व निर्धारित सभी योजनाएँ टूट रहीं थीं। हर क्षण बदलाव। तो फिर एक और तबदीली हुई। अब की बार पेट्रोल पंप पर। अब पूर्व की ओर नहीं, विपरीत दिशा में पश्चिम की ओर प्रस्थान हुआ। 

शायद ईश्वर को यही मंजूर था। 

अब गाड़ी रिंग रोड से होती हुई तिरुचिरापल्ली राजमार्ग पर लगभग सौ कि.मी. की दूरी तय करती हुई ’तिंडीवानम’ शहर पहुँची जो राजमार्ग पर पड़ता है फिर वहाँ से गाँव की कच्ची सड़क पर तिरसठ कि.मी. की दूरी पार करते ही तिरुवन्नामलई शहर आ जाता है। यहाँ से गाँव का ख़ूबसूरत नज़ारा शुरू हो जाता है। सड़क के दोनों ओर घने विशाल छायादार वृक्ष, चारों ओर दूर-दूर तक फैले गन्ने के खेत, जहाँ तक दृष्टि जाए हरियाली ही हरियाली, लहलहाती फ़सलें, आकाश का प्रतिबिम्ब दर्शाते हुए स्वच्छ पानी के तालाब, सड़क पर अब-तब घंटियाँ बजाती हुई गन्नों के बोझ से लदी मद्धम-मद्धम चलती हुई बैल-गाड़ियाँ, बड़ा ही मनभावन दृश्य होता है। 

अरुणाचल पर्वत के निकट बसा तीर्थ क्षेत्र ’तिरुवन्नामलई। हमारा पहला पड़ाव! आइए जब बात मंदिर की निकली है तो कुछ दूर और चले। कुछ विस्तार से जाने। 

अरुणाचलेश्वर मंदिर

अरुणाचल पहाड़ी की तलहटी पर द्रविड़ स्थापत्य शैली पर बना हुआ एक भव्य मंदिर है ’अरुणाचलेश्वर मंदिर’। यहाँ भगवान अग्नि लिंग का स्वरूप माने जाते हैं। जिस प्रकार उत्तर में पंच केदार और पंच बद्री पाए जाते हैं उसी प्रकार दक्षिण में पंच भूतों पर निर्मित शिवलिंगों में—पृथ्वी लिंग एकाम्बरेश्वर-कांची पुरम में, जल लिंग जम्बूकेश्वर-तिरुचिरापल्ली में, वायु लिंग-श्री काल हस्ती . . . आंध्र में, आकाश लिंग। चिदम्बरम तमिलनाडु में और अग्नि लिंग यहाँ तिरुवन्नामलई में प्रतिष्ठित माना जाता है। मंदिर का परिसर तेईस एकड़ क्षेत्रफल में फैला हुआ है जहाँ चार दिशाओं में चार मुख्य द्वार हैं। चारों द्वारों पर ऊँचे गगन भेदी गोपुर (शिखर) बने हुए है जिनमें पूर्वी दिशा का गोपुर सबसे ऊँचा है। इसमें ग्यारह तल हैं और इसकी ऊँचाई 217 फीट है। चारों दिशाओं में स्वच्छ पानी की जलहरियाँ मिलती हैं। मंदिर के अंदर स्थापित पुरालेखों में इसके नवीं शताब्दी में चोला राजाओं के द्वारा निर्मित होने के प्रमाण सूत्र प्राप्त होते हैं। विशाल विस्तृत भू-भाग पर प्रतिष्ठित उत्कृष्ट संरचनात्मक वास्तु कला का उदाहरण यह अनूठा मंदिर प्राचीन संस्कृति की अनमोल धरोहर माना जाता है जिसकी शोभा वर्णित नहीं की जा सकती केवल इसे देख कर ही अनुभूत किया जा सकता है। यहाँ देवी पार्वती उन्नामलई अम्मन के नाम से पूजी जाती हैं। मंदिर के अंदर असंख्य अनुशांगिक देवालय भी बने हुए है जिनमें देवी का मंदिर प्रधान आकर्षण का केंद्र है। इसके अतिरिक्त वृहदाकार सहस्र स्तंभों वाला विशाल सभा मंडप भी विशेष दर्शनीय है। अंदर प्रवेश करते ही एकशिला खण्ड पर बनी नंदी की विराट प्रस्तर मूर्ति मन मोह लेती है। अंदर दाहिनी ओर पाताल लिंग स्थापित है जिसका मार्ग नीचे सीढ़ियाँ से होकर निकलता है। कहा जाता है कि श्री रमण महर्षि की तपस्या इसी स्थल पर फलीभूत हुई थी और यहीं उन्हें आत्म ज्ञान की प्राप्ति भी हुई थी। 

अध्यात्म और दिव्यता का उत्तम सामंजस्य . . . अरुणाचलेश्वर मंदिर! 

चूँकि भगवान यहाँ अग्नि रूप में स्थित हैं इसीलिए ऐसा माना जाता है कि पूर्णमासी की तिथि को ’गिरि वलय’ अर्थात्‌ अरुणाचल गिरि की परिक्रमा करने से विशेष पुण्य फल प्राप्त होता है। 

इस मंदिर को ’मणि पूरक स्थल’ के नाम से भी जाना जाता है। तंत्र साधना के अनुसार मानव की शारीरिक संरचना में निहित षट्चक्रों में तृतीय चक्र को मणि पूरक चक्र कहते है जो ’अग्नि’ का द्योतक माना गया है। इसीलिए अग्नि लिंग संभूत इस क्षेत्र को ’मणिपूरक स्थल’ भी कहा जाता है। यह क्षेत्र ’संकल्प सिद्धि’ की साधना के लिए जीवंत स्थल है। 

26 दिसम्बर पूर्णिमा थी। मंदिर भक्तों और श्रद्धालुओं से भरा हुआ था। अंदर सर्पिल क़तारों में लोग खचाखच भरे हुए थे। भीड़ को देखकर हम घबरा गए। समय एक बज चुका था। भूख सता रही थी जो हमारी भक्ति की परीक्षा भी ले रही थी। वैसे तो हम कई बार इस महिमांवित मंदिर के दर्शन कर चुके थे, गिरि परिक्रमा भी की थी, लेकिन आज हम दर्शन नहीं कर पाए। हम सब उदास हो गए। सुबह से हमारा एक भी संकल्प सिद्ध नहीं हो रहा था। पता नहीं क्यों? लेकिन क्या करते। भीड़ को देखकर दर्शन करने की अभिलाषा पर पानी फिर गया। हारकर मंदिर के अंदर ’ध्वज स्तम्भ’ के निकट ही पूर्वाभिमुख होकर साष्टांग प्रणाम अर्पित कर हम बाहर निकल आए। अरुणाचल पहाड़ी की परिक्रमा हमने गाड़ी से ही की और भगवान का मानसिक दर्शन कर पुनः दर्शन प्राप्ति की प्रार्थना और क्षमा याचना दोनों गाड़ी में ही कर लीं। 

हाँ! बच्चों के मुरझाए हुए चेहरे अब चमक उठे थे क्योंकि खाने की दरी बिछ चुकी थी। घनी छाँव में बैठ कर पहले पेट पूजा की गई। बड़े मनोयोग से बनाया हुआ भोजन चाव से मज़े ले लेकर खाया सबने। और फिर कुछ देर सुस्ताने के बाद। चल पड़े अगले पड़ाव की ओर . . . पांडिचेरी . . . 

पांडिचेरी

श्री अरबिंद आश्रम

श्री अरबिंद समाधि

तिरुवन्नामलई से सौ कि.मी. की दूरी पर स्थित है महर्षि अरबिंदो की विश्राम-स्थली पांडिचेरी . . . केंद्र शासित प्रदेश। 

फ़्रांसीसी उपनिवेश का मुख्य प्रदेश जिसकी झलक आज भी फ़्रेंच कॉलोनी में देखने को मिल जाती है। समुद्र तट पर बसा हुआ सुंदर शहर। देश-विदेश से सैलानी यहाँ आते हैं। नवागंतुकों के लिए दृश्य पर्व! अथाह सागर का फैला हुआ कटाव। शांत . . . शुभ्र। शायद यही कारण रहा होगा जो महर्षि अरबिंद ने अपनी तपस्या के लिए इस स्थल को चुना था। 

सड़क के एक ओर कई अतिथि निवास बने हुए हैं जिनमें से अधिकतर आश्रम के ही अतिथि गृह हैं जो पूर्व सूचना देने पर बहुत कम दर पर उपलब्ध हो जाते हैं। मुख्य आकर्षण यहाँ ’अरबिंद आश्रम’ है। घने वृक्षों से आच्छादित स्थल, जहाँ अंदर प्रवेश करते ही विभिन्न रंग-बिरंगे फूलों से सुसज्जित प्रकोष्ठ में महर्षि अरबिंद और उनकी शिष्या की संगमरमर से बनी समाधियाँ है। असीम शान्ति और निःशब्द वातावरण। आँखें मूँदे ध्यान मग्न साधक और आश्रमवासी। बड़ी ही रमणीय मनभावन जगह है। 

पांडिचेरी पहुँचते साढ़े पाँच बज गए थे। आज आश्रम जल्दी बंद हो गया था। सो वहाँ भी निराशा ही हाथ लगी। अंदर न जा पाए। शीत ऋतु . . . दिन जल्दी ढलता है। सूर्य का तेज मद्धिम हो चला था। वैसे तो पांडि हमारा नियमित विहार स्थल बन चुका था यानि कई बार आ चुके थे लेकिन आज कुछ अलग ही दृश्य दृष्टिगोचर हो रहा था। 

अब समुद्र-तट की ओर चले। वहाँ सड़क पर अफ़रा-तफ़री मची हुई थी। पुलिस की गाड़ियों से निकलती कर्ण भेदी साइरनों की गूँज वातावरण को भयभीत बना रही थी। अचानक समुद्र की ओर दृष्टि गई तो देखते ही रह गए। अद्भुत नज़ारा था। लगभग आधा कि.मी. परिधि तक का सागर रक्त रंजित वर्ण में रंगा हुआ था। गाढ़ा लाल रंग और उसके आगे नीला गहरा बादामी रंग का पानी। सागर के बीचों-बीच ऊपर आसमान में डूबता हुआ सूर्य लाल रंग में चमक रहा था। लहरों पर उसकी किरणें चमकीली रोशनी के वलय बना रही थीं जिससे पानी इंद्रधनुषी नज़र आ रहा था . . . अभूतपूर्व दृश्य! 

हम सब मंत्र मुग्ध होकर खड़े देख रहे थे कि अचानक तेज़ आवाज़ों से बुरी तरह चौंक गए। पुलिसवाले चिल्ला-चिल्लाकर हमें वहाँ से तत्क्षण निकल जाने का निर्देश दे रहे थे। या यूँ कहिए कि बलपूर्वक खदेड़ रहे थे। हम कुछ समझ न पाए क्योंकि हमें स्थानीय भाषा का तब उतना ज्ञान नहीं था। अजीब भगदड़ मची हुई थी। हम भी हड़बड़ी में सामने के रेस्तरां में घुस गए चाय के बहाने। वहाँ भी अजीब सा लगा। रेस्तराँ ख़ाली था और कर्मचारियों के चेहरों का रंग उड़ा हुआ था। 

निस्तेज चेहरों पर डर का आतंक। आँखों की पुतलियों पर भय की कालिमा ऐसे फैली हुई थी मानो अभी-अभी किसी भयानक दृश्य को पास से देखा हो। 

वे हमें भी ऐसे घूर रहे थे जैसे किसी हौवा को देख रहे हों। 

हम अचंभित। कुछ समझ न सके। पूछा . . . 

“क्या हुआ भाई? ये सब क्या हो रहा है? इतनी पुलिस? और क्यों सबको भगाया जा रहा है? क्या माजरा है? आख़िर हुआ क्या?" 

वे कुछ कह न पा रहे थे। अस्फुट शब्दों में उन्होंने हमें कुछ समझाने का प्रयास किया . . . 

“क्या आपको नहीं पता? आज सुबह अचानक धरती हिल गई . . . भूकम्प आया . . . और फिर समुद्र कुछ क्षणों के लिए पीछे हट गया। सब चकित हो गए . . . समुद्र के सब जीव जंतु सीप मोती सब सामने दिखाई देने लगे। फिर अचानक भारी भरकम आवाज़ से समुद्र में तेज़ उफान आया। समुद्र की एक भीमकाय लहर आसमान को छूती हुई उठी और भंयकर गर्जना करते हुए दौड़ती हुई आई . . . सीमा लाँघ कर सड़क पार कर यहाँ तक आ गई। दीवारें फाँद कर पानी अंदर घुस गया। सब अचानक हो गया। किसी को कुछ पता ही नहीं चला कि क्या हुआ . . . क्या हो रहा है? सब आश्चर्यचकित . . . कुछ क्षण बाद लहर पीछे बह गई लेकिन तब तक अपने साथ बहुत कुछ बहा ले गई। यहाँ समुद्र में मछुआरों को कई छोटी-छोटी किश्तियाँ थी, लेकिन पलक झपकते ही सब अदृश्य हो गईं। और तो और पास ही तीस कि.मी. की दूरी पर का गाँव ’कडलोर’ तो पूरी तरह से तबाह हो गया। सब कुछ समुद्र के गर्भ में समा गया। अब वहाँ कुछ नहीं है। सब कुछ निगल लिया। हज़ारों लोगों की जान चली गई। मामलापुरम और मेरीना तट पर सुबह टहलने वाले कई लोग लापता हैं . . . लोग . . . मछुआरों की नावें . . . सब अदृश्य। कुछ नहीं बचा। आशंका जताई जा रही है समुद्र फिर उफनेगा। आप जल्दी चले जाइए। ईसीआर से नहीं राजमार्ग से। जैसे आये . . . वैसे। लंबा रास्ता होगा लेकिन इन हालातों में वही सुरक्षित रहेगा।" वे हमें चले जाने का बार-बार इशारा कर रहे थे। 

अब भयभीत होने की हमारी बारी थी। चाय गले में ही अटक गई। निगल भी न पा रहे थे। लेकिन उनकी बातें न जाने क्यों अविश्वसनीय लग रही थी। यूँ कहो तो हम रोमांचित अधिक हुए थे और भयभीत कम। सब छोड़ हम गाड़ी की ओर दौड़े और फर्राटे से कार भगाई। साहसी निर्णय लिया और भय से साक्षात्कार करने के लिए ईसीआर रोड को ही चुना। हम घर जल्दी पहुँचना नहीं चाहते थे। और अब तो सब अपनी आँखों से देखकर अनुभूत करने की जिज्ञासा भी जग गई थी। सूरज डूब गया था। हल्का अँधेरा हो चला था। 

सौ कि.मी. का रास्ता था! हम बेख़बर आगे बढ़ रहे थे। सड़क बिल्कुल ख़ाली थी। रास्ते में कई गाँव पड़ते है और काफ़ी हलचल भी रहती है। लेकिन आज पाया . . . सुनसान मार्ग और हर मार्ग पर बत्तियाँ गुल। केवल गुप्प अँधेरा। पूर्णमासी का चाँद निकल आया था। आकाश साफ़ था तारों से लदा हुआ। चाँद की स्निग्ध रोशनी . . . चाँद अपनी पूरी रवानी पर था। समुद्र भी अब अपने मचाए उपद्रव से थक कर शांत चुपचाप पड़ा था। किसी भी गाँव में रोशनी नज़र नहीं आ रही थी। अधिकतर मछुआरों की ही बस्तियाँ थी जो शायद उजड़ चुकी थीं। आज सब सुनसान . . . शांत। हमारी अकेली गाड़ी सड़क पर भाग रही थी। दहशत का वातावरण हम अब कुछ कुछ अनुभूत कर रहे थे। 

रास्ते में मामलापुरम के पास एक रेस्तरां हुआ करता था। छोटा सा हरा-भरा बग़ीचा बीच में बच्चों के झूले और कुछ चार-पाँच कुर्सियाँ। सफ़र में कुछ देर सुस्ताने का तात्कालिक पड़ाव। ज़्यादा तो कुछ नहीं पर कॉफ़ी, चाय-नाश्ता मिल जाता था। हल्के भी हो जाते थे। तो आज भी वहाँ गाड़ी रोकी। सात बज चुके थे। यहाँ भी सब सुनसान। केवल समुद्र के थपेड़ों की आवाज़ . . . निःशब्द वातावरण। 

वहाँ रेस्तराँ में एक दो काम करने वाले ही थे जो शटर बंद करने की जल्दी में थे। आज हमें कुछ न मिला। फिर भी हमने उन्हें रोक कर जानना चाहा कि सुबह क्या हुआ था? उन्होंने क्या देखा था? 

उन्होंने डरते-डरते बताया कि किस तरह सुबह कइयों को पलक झपकते ही अपनी आँखों के सामने अदृश्य होते हुए देखा था। वे सब भी आशंकित थे कि रात को समुद्र फिर उफनेगा और तबाही मचाएगा। इसीलिए वे सब बंद करके जा रहे थे। वे हमारे लिए भी चिंतित हुए और हमें जल्दी वहाँ से निकल जाने की हिदायत दी। 

हम वापस कार में आ गए। हममें उत्सुकता पल-पल और भी बढ़ रही थी। 

दो घंटे का रास्ता एक घंटे में ही कट गया। आवागमन नहीं था और गति भी तेज़ थी। सांय-सांय करती सड़क। केवल हमारी गाड़ी . . . और कोई नहीं। कभी-कभार दूर से कहीं पुलिस सायरन की आवाज़ सुनाई दे जाती और फिर . . . लम्बी भयानक शान्ति। हम बढ़े चले जा रहे थे। हम सबकी धड़कनें गाड़ी की गति की तरह तेज़ हो रही थीं। शायद किसी अप्रत्याशित सम्भावना से। कभी भी . . . कुछ भी हो सकता था। सब तन कर बैठे हुए थे। एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए . . . मन ही मन अपने आप को तसल्ली देते हुए। सब साथ थे . . . इसीलिए शायद डर नहीं लग रहा था। राह में कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई। हम ’सकुशल’ चेन्नई पहुँच गए। 

ईसीआर मार्ग मेरीना पर आकर ही ख़त्म हो जाता है। मेरीना सड़क से ही होकर जाना था। यहाँ तो और भी अनोखा दृश्य देखने को मिला। चेन्नई में समुद्र का सागर तट मुख्य सड़क से काफ़ी दूरी पर स्थित है। लगभग सात सौ मीटर का अंतर हो सकता है जहाँ समुद्री रेत पसरी हुई है। फिर ढलान और उफनती बंगाल की खाड़ी। लेकिन आज वो देखा किसकी कभी कल्पना भी न की थी। मछुआरों की नावें आज सड़क की शोभा बढ़ा रहीं थीं। सब नावें आज सड़क पर आ पहुँची थी। आश्चर्य! हमें कुछ कुछ समझ आ रहा था। मन अब भी मान नहीं रहा था। पर जो देखा वह झुठलाया भी नहीं जा सकता था। लेकिन अब भी वह ’डर’न जागा था। 

घर पहुँचकर टीवी पर जो देखा वह अविश्वसनीय . . . कल्पनातीत . . . चौंका देने वाला था। आँखों देखा हाल . . . भयानक . . . डरावना . . . वीभत्स . . . उस दहशत का वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण भी किया जा रहा था . . . किस तरह समुद्र की सतह में कंपन हुआ, भूमि काँप उठी . . . समुद्र की प्लेट किस तरह पीछे को झुक गई . . . कुछ पलों के लिए पानी पीछे हट गया, . . . फिर पानी ऊपर उठा . . . बहुत ऊपर उठा . . . और तेज आवाज़ से . . . अपनी सीमा को तोड़ता हुआ आगे बड़ा . . . समुद्र। ज़मीन के एक बड़े हिस्से को निगल गया . . . उफ्फ . . . कितना भयंकर रहा होगा वो दृश्य . . . 

तमिलनाडु में लगभग आठ हज़ार से भी अधिक जानें उन राक्षसी लहरों की बलि चढ़ गई थी। कई हज़ारों लापता हो गए थे। भयंकर तबाही मच गई थी। चारों ओर दहशत . . . सब उलट-पलट हो गया था। पल में सब बदल गया था। समुद्र किनारे बसे मछुआरों के गाँव के गाँव अदृश्य हो गए थे। बस्तियों का नामों-निशान भी मिट गया था। उफनती लहरों की मचाई तबाही का सजीव चित्रीकरण टीवी पर देखकर दिल दहल गया। हाँ! जो डर कल्पना पैदा न कर सकी, वह डर जीवंत दृश्यों को देखकर दिलो-दिमाग़ को झनझना गया। 

आख़िर डर जाग ही गया . . . लेकिन . . . वह डर जागा किससे . . .? समुद्र की लहरों के उफान से या उन उफनती लहरों के बीच हमारी संभावित उपस्थिति से? पता नहीं। लेकिन डर जाग ही गया। यह सोचकर तो रीढ़ की हड्डी में ठंडी लहर दौड़ आती कि किस तरह मौत हमारे पीछे थी और हम उसको लाँघ कर चले जा रहे थे। आँख मिचौनी खेलते हुए हम ने उसे मात दे दी थी। हर मोड़ पर उसने चुनौती दी थी। हर मोड़ पर उसने पीछा किया था। और हम अज्ञात थे उसकी आहट से। हमने तो पूरी तैयारी कर ली थी उसके मुँह में जाने के लिए . . . 

वो कौन सी शक्ति थी जो हमें हर पल बचा रही थी? हमारी योजनाओं को असफल कर रही थी? 

अब हम डर गए। सचमुच बहुत डर गए। 

इतना डरे कि इतने वर्षों पश्चात आज भी कभी उस दिन का स्मरण आता है तो हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 

हमारा डर तो और भी गहराने लगता है जब हम यह सोचते है कि . . . अगर उस दिन खाना हम बनाते . . . लहसुन के लिए समय बर्बाद न करते . . . सब समय पर हो जाता . . . हमारी नियत योजना असफल न होती . . . दिन निकलने से पहले तैयार हो जाते . . . सूरज सर पर न चढ़ता . . . पेट्रोल पंप पर दिशा न बदलते . . . पश्चिम की जगह पूर्व की ओर ही निकलते . . . तो . . . निर्णीत यात्रा के अनुसार हम ठीक साढ़े सात बजे मामलापुरम पहुँच जाते क्योंकि सुबह यातायात कम ही होता है . . . और मामलापुरम में ’सुनामी’ ने (जो नाम उसे बाद में मिला था), ठीक सात बजकर चालीस मिनट पर ही दस्तक दी थी . . . 

 26 दिसम्बर 2004-सुनामी 

उसके बाद तो हमारी कई कई रातों की नींद उचट गई। कल्पना में बिम्ब उतरते रहते कि हम सब समुद्र में खेल रहे है और अचानक उफनती लहरों का बवण्डर . . . उफ्फ! कितना भयंकर दृश्य रहा होगा वह . . . 

 लेकिन ईश्वर को तो कुछ और ही मंजूर था!

7 टिप्पणियाँ

  • 23 Dec, 2021 03:52 PM

    what a wonderful narration. during tsunami you were roaming in and around area which was red alerted. excellent way of expression and the words are really marvelous. simply superb yaar.

  • 15 Dec, 2021 04:55 PM

    नमस्कार आदरणीय महोदया

  • बहुत खूब वर्णन मैम। तमिलनाडु के हर एक पर्यटन स्थल का प्रभावी चित्रण जैसा लगा हमने ख़ुद भ्रमण कर लिया हो। कितने वर्षों पहले टी.वी और अखबार में पढ़ा यह समाचार अब इतने गहराई से प्रस्तुत कर आपने हमारे भावनाओं को जागृत कर दिया, सुनामी से गुजरे लोगों की करुण गाथा, दर्द, बेबसी और आशा की बेहतरीन अभिव्यक्ति। यथार्थ जीवंत लेख। बहुत बधाई आपको।

  • 14 Dec, 2021 04:22 PM

    बहुत बेहतरीन यात्रा संस्मरण। शबदो का चयन बहुत ही अच्छे ढंग से किया है ताकि पाठक पढने को मजबूर हो जाए। हर क्षेत्र की विशेषता का वर्णन सलीके किया गया है।पढकर लगता उसे देखना चाहिए। प्रकृति जहा वरदान है वहां अभिशाप भी हो सकती है इसका ध्यान रखना होगा। लेखिका को बधाई।

  • 12 Dec, 2021 10:15 PM

    बहुत सुंदर वर्णन।आँखों देखा सा अनुभव होतिहै।मंदिर, वातावरण आदि. का यथार्थ चित्रण।सुनामी की भयंकरता का कंपाने वाला वर्णन जो रोंघटें खड़ा करताहै ।अति सुंदर रचना।बधाई हो।

  • 12 Dec, 2021 06:29 PM

    Very nicely written keep it up

  • 12 Dec, 2021 06:11 PM

    अति सुन्दर और भावपूर्ण लगी, पढ़ते ही आंखों के सामने दृश्य घूमने लगा। उन लोगों की याद आ गई जिन्होंने अपने परिजनों को खोया था

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