मिलावट
डॉ. पद्मावती“नहीं . . . नहीं यह कैसे सम्भव है?” रामनाथ शर्मा को पैरों के नीचे ज़मीन घूमती नज़र आई। कानों पर विश्वास न आया। साँस बेतरतीब . . . बदन पसीने से तरबतर।
“कल शाम ही तो आपने बताया था कि साक्षात्कार में मुझे ही सबसे ऊँचे अंक मिले हैं। नौकरी मिलने की पूरी सम्भावना है और आज तो आप नियुक्ति का आदेश भी जारी करने वाले थे . . . तो फिर अचानक एक रात में यह परिवर्तन? नहीं . . . नहीं . . . ऐसा कैसे हो सकता है?
“देखिए मुझे नौकरी की सख़्त . . .”
“क्षमा कीजिए . . . मैं कह चुका हूँ आपसे . . . चयन मंडली का अभिमत है कि यह नौकरी अब आपको नहीं मिल सकती और यह किसी और को दी जा चुकी है। आप इतनी-सी बात समझते क्यों नहीं?” शिक्षा संस्थान के प्राचार्य महंत गोस्वामी जी ने दो टूक शब्दों में निर्णय सुना दिया।
“कुछ तो दया कीजिए। कल तक तो मैं इस नौकरी के लिए योग्य माना गया था और आज यह बदलाव? आप नहीं जानते मैं किस मुसीबत में हूँ . . . और आश्रम शिक्षा संस्थान तो अपनी निःस्वार्थ सेवाओं के लिए जाना जाता है। वहीं पर इस प्रकार की मिलावट की उम्मीद तो कदापि नहीं की जा सकती . . . कदापि नहीं . . .।” वह फफक उठा। त्रस्त बेबसी आक्रान्त हो उठी।
इतना बड़ा आघात . . . इतना बड़ा धोखा।
महंत शान्त बैठे थे, स्मित मुस्कान अधरों पर . . . जड़वत . . . जो कहना था, वो तो कह चुके थे।
वह जान चुका था कि क्या हुआ है। स्पष्ट दिख रहा था कि अब कुछ नहीं हो सकता।
असमंजस में खड़ा वह भावशून्य टकटकी बाँधे उन्हीं की ओर ही देख रहा था . . .।
निराश मन चमत्कार की अभीप्सा लिए क्रंदन कर रहा था। शायद . . . कुछ हो जाए। सब वैसा ही . . . पूर्ववत।
उसकी नज़रें उनके चेहरे पर से हटने का नाम नहीं ले रहीं थीं।
अस्ताचल सूर्य की रक्तिम आभा सम उनका गेरुआ वस्त्र आज उसकी आँखों को स्याह दिखाई दे रहा था और उनका तेजोमय मुख मंडल . . . धूमिल . . . मलिन परिमार्जित छवि!
आश्चर्य! वह सोच में पड़ गया, ‘क्या देख रहा हूँ मैं? क्या है यह?
‘आँखों का धोखा या पवित्रता का कोई नया रंग?’
महंत उठे। कुरसी पर टँगा अंगोस्त्र कंधे पर सरकाया और चलकर कोने में विराजी माँ सरस्वती की प्रतिमा को मुलायम मख़मली कपड़े से पोंछने लगे। ‘रात भर में बहुत धूल आ चुकी थी प्रतिमा पर’।
“मैं आपसे फिर अनुरोध करता हूँ कि आप प्रस्थान कीजिए। मेरी पूजा का समय हो गया है।”
उन्होंने बिना मुड़े कहा और आगे बढ़कर माँ की प्रतिमा के पास रखा पूजा का दिया जला दिया।
रामनाथ . . . रामनाथ के पाँव जैसे ज़मीन से चिपक गए थे। लुटा भाग्य सर पीट रहा था . . . हाथ आया, मुँह को न आया।
वह तत्क्षण यहाँ से भाग जाना चाहता था पर हिल भी न सका।
तूफ़ान थम चुका था। सैलाब बरौनियों में सिमट चुका था। शायद अपनी मर्यादा जानता था या यहाँ रहने की निरर्थकता को पहचान गया था।
मन अब शान्त था . . . शान्त। पर निस्पृह निगाहें अब भी निरंतर उन्हें ताक रहीं थीं। पढ़ रहीं थीं उनके चरित्र को जो दीये की रोशनी में उनकी आँखों में साफ़ दिखाई दे रहा था।
दोनों चुप . . .
वातानुकूलित कमरे में कुछ क्षणों के लिए शान्ति पसर गई। इतनी शान्ति की साँसों की आवाज़ तक साफ़ सुनाई दे रही थी। और जीवन पर्यंत शान्ति का मंत्र रटने वाले महंत आज इस शान्ति से असहज होने लगे। छटपटाहट बढ़ रही थी। कान फटने लगे। पसीना आने लगा। और जब पीड़ा असहनीय हो गई तो उनकी उँगलियों ने टेबुल पर लगे बटन को दबा दिया।
पहरेदार अंदर आ गया था . . .
1 टिप्पणियाँ
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ऊंची पहुंच किस प्रकार संघर्षों में जीने वाले की योग्यता को निगल जाती है और समाज का सम्मानित अपने लिये गलत निर्णय की ग्लानी में फंस अशांति में घिर जाता है इस ओर लेखिका ने जिस कुशलता से इंगित किया है वह प्रशंसनीय है
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