वापसी
डॉ. पद्मावतीहीरानंद चला जा रहा था दूर बहुत दूर जितनी जल्दी हो सके वह काशी नगरी पार कर देना चाहता था ताकि उजाले में कोई उसे देख ना सके। रात साथ छोड़ रही थी। प्रत्युषा की हल्की-हल्की किरणें आसमान में साधिकार प्रवेश कर लालिमा बिखेर रहीं थीं!
उसने सोचा, शहर की सरहद पार करके पक्की सड़क ले लूँगा और कुछ दूर जाकर सुस्ता भी लूँगा लेकिन अभी नहीं, समय अधिक नहीं है। जितनी जल्दी हो सके वह निकल जाना चाहता था। वहाँ से वह बस पकड़ेगा और सीधा अपने गाँव की ओर चल देगा!
भागते भागते हीरानंद हाँफ रहा था। गलियाँ, सड़कें चॉक बाज़ार कितने ही मोड़ पार करता हुआ बेतहाशा दौड़ रहा था। वह पीछे मुड़कर भी देखना नहीं चाहता था। दौड़ते-दौड़ते देखा सूर्य क्षितिज पर आ गया था। कुछ दूर राजमार्ग पर उसे एक बस आती दिखाई दी। बड़ी मुश्किल से बस को रोका और फटाफट बस में चढ़ गया। कंडक्टर को पैसे दिए और मुँह ढाँपकर एक कोने में जाकर बैठ गया।
चंपापुर चार घंटे की दूरी पर था जिसे पाटने में हीरानंद को चार वर्ष लग गए थे। अचानक मन पुरानी यादों से बेस्वाद हो गया। जब वह घर छोड़ भागा था बाबूजी नहीं रहे थे। माँ और भाई थे, खेती थी, लेकिन गुज़ारा बहुत मुश्किल से होता था। परिवार कर्ज़ में गले तक डूबे हुआ था। खेती गिरवी थी, घर गिरवी था खाने पीने के लाले पड़े हुए थे। वह घर का बड़ा बेटा हीरालाल बचपन से ही आलसी और मनमौजी स्वभाव का था। काम करने से घबराता रहता। भाई मानसिक रोगी था। माई और बाबूजी दिन रात काम कर इन दोनों निष्क्रिय प्राणियों का पेट भर रहे थे! बाबूजी के चले जाने के बाद घर का पूरा भार उसके कंधों पर आ गया था। हीरालाल का काम में मन नहीं लगता था। परिस्थितियाँ बर्दाश्त के बाहर हो रहीं थीं। उसने मन बना लिया था कि वह घर छोड़ कर भाग जाएगा और एक रात बिना किसी को बताए चुपचाप उसने अपने निर्णय को अंजाम दे दिया। माँ और छोटे भाई का ख़याल भी नहीं आया।
कुछ वक़्त भटकता रहा और फिर एक साधुओं की टोली से जा मिला। वह हीरालाल से हीरानंद बन गया। बहुत जल्द वहाँ घुल-मिल गया था और छोटे-मोटे चमत्कार करने भी सीख गया था। आराम से गुज़ारा होने लगा था। भिक्षाटन करना भभूत लगा कर शाम को चिलम पीना। मज़े ही मज़े थे।
पर कुछ दिन तो आराम से बीते लेकिन हीरालाल का मन हमेशा कचोटता रहता। घर की याद भी हमेशा सताती रहती। माँ की बहुत याद आती रही।
एक रात भी ऐसी न थी जो शान्ति से गुज़री हो। चार वर्ष तड़पने के बाद आज सब को छोड़ कर वह वापस अपने माँ-भाई के पास गाँव लौट रहा था। ग़लती जो हुई थी उसे सुधारना चाहता था। उसे यह अहसास हो गया था कि जीवन में प्रेम और अपनापन ही सब कुछ है। चार साल घर व अपनों की दूरी ने सब सिखा दिया था।
अचानक बस रुकी। वह उतर गया और गाँव की ओर कच्ची सड़क पर चलने लगा।
कुछ दूर चलकर सामने वाली गली में मुड़ते ही वह अपने घर पहुँच गया। वहाँ की हालत देखते ही हीरालाल का दिल बैठ गया। गाय, भैंस, बकरियाँ अहाते में घूम रहीं थीं। घर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था। छत से खपरैल ग़ायब थी। दरवाज़ा नदारद था। घर कहने लायक़ वहाँ कुछ बचा नहीं था।
सामने से करमन बाबू आते दिखाई दिए। हीरानंद ने पहचान लिया। प्रणाम किया और कहा, "चाचा माँ कहाँ है, दिखाई नहीं दे रही।"
"किसकी माँ? और तुम कौन हो बेटा?” चाचा ने बढ़ी हुई दाड़ी और बदले हुए हुलिये के कारण उसे नहीं पहचाना।
"हीरालाल की माँ,” कुछ अनिष्ट की आशंका से काँपते हुए उसके शब्द निकले।
"वो . . . न जाने जंगल में कहाँ-कहाँ भटक रही होगी, किस चक्की का आटा खाया है बुढ़िया ने, बड़ा भाग गया, छोटा गुज़र गया फिर भी न जाने किस आस में जिए जा रही है, पूरा दिन खोजती रहती है अपने दोनों बेटों को, पगला गई है, पता नहीं आज किस ओर हो? भगवान ऐसी सज़ा दुश्मन को भी न दे!”
हीरानंद और सुन न सका।
भागने लगा था जंगल की ओर। इधर-उधर चिल्ला-चिल्ला कर पागलों की तरह पुकारने लगा ..माँ. . .माँ. . .माँ. . .। अंत में दूर एक परछाई दिखी। आस बँध गई। हो न हो माँ ही होगी। हाँ ..माँ ही थी। माँ को देख कर गति और भी बढ़ गई। काँटों में धूल-मिट्टी किसी की परवाह किए बिना वह भागने लगा। चारों ओर कीचड़ भरा हुआ था, कीचड़ में पैर छपाक-छपाक पड़ रहे थे, कीच उड़कर दाढ़ी सर के बालों में लग रहा था। बुरी तरह हाँफने लगा और पास जाकर लपककर माँ के क़दमों में गिर गया।
"कौन हो बेटा?” कच्ची मिट्टी पर बैठी माँ ने घबरा कर पीछे हटते हुए पूछा।
हीरालाल काँप रहा था, बोला . . ."माँ . . .माँ देख, मैं तेरा अभागा हीरालाल।"
“क्या?” माँ की निगाहें निर्विकार ही रहीं, बोली, “ कौन हीरालाल . . . नहीं .. नहीं ..झूठ न बोलते बेटा!”
"कुछ देर आराम कर, हाँफ रहा है। लगता है बहुत भागा है। पता नहीं कुछ खाया है कि नहीं, कुछ देर बैठ कर अपने घर चले जाना। अच्छा! वहाँ लोग इंतज़ार कर रहे हैं न इसलिए। उन्हें न सता बेटा . . . किसी को इंतज़ार नहीं करा बेटा. . . तेरी माँ ताकती होगी न . . . जा। चला जा . . . चला जा . . .. जल्दी जा . . .जा न!” माँ उसे धक्का देते हुए न जाने क्या बड़बड़ा रही थी और वह कुछ सुनने की स्थिति में ही नहीं था।
पागलों ही तरह माँ के पैरों से लिपट कर फूट-फूट कर रो रहा था।
वह चाहता था कि चीख़-चीख़ कर कहे . . . माँ मुझे माफ़ कर दे, माँ मैं तेरा दोषी हूँ, लेकिन शब्द उसके मुँह में ही अटक कर रह गए। बाहर ही नहीं निकले। केवल फटी सी चीख़ ही निकल रही थी। उसका चेहरा आँसुओं से तरबतर हो गया था।
कुछ क्षण बाद सँभल कर हीरालाल ने माँ की ओर देखने का प्रयास किया तो स्तंभित सा देखता ही रह गया।
माँ कितनी सुंदर हुआ करती थी। गोल-मटोल सलौना सा भरा भरा मुख . . . प्यारी हँसी, हमेशा चुस्त और फ़ुर्तीली।
हाय वक़्त और क़िस्मत की मार, क्या से क्या हो गई माँ . . . इतनी जल्द इतना बुढ़ा गई।
उसने माँ का चेहरा अपने दोनों हाथों में ले लिया . . . गड्ढों में धँसीं हुई बुझी सी आँखें, गाढ़ी झुर्रियाँ, लटकती त्वचा, खोपड़ी पर गिने-चुने बाल जिसके नीचे की पपड़ी तक दिखाई दे रही थी, उभरी हुई नसें, पतला बदन जिस पर मांस न के बराबर था। कुल मिलाकर वह एक भयंकर कंकाल सी लग रही थी।
हीरालाल अब अपने आपको रोक नहीं सका। उसकी रुलाई और तेज़ हो गई, आँखों से अश्रु धाराएँ बहने लगीं। उसने अपनी ठुड्डी माँ के सिर से टिका दी और माँ को चूमता हुआ दहाड़े मार कर रोने लगा। उसके आँसू माँ के सिर को गीला कर माथे और कान पर नीचे पानी की लकीर बनाकर बह रहे थे।
आज माँ का अभिषेक अपने आँसुओं से कर हीरालाल ने वो सब पाप धो लिए जिसे चार साल गंगा मैया भी न धो पाई थी।
न जाने कितनी वह देर रोता रहा। रोकर थक जाने के बाद वह उठा . . .
टूटी आवाज में कहा, “माँ . . . चलो..।"
माँ प्यार से उसे देख रही थी . . . बिना कुछ कहे, बिना कुछ समझे, विक्षिप्त सी . . .
“ माँ चलो . . . यहाँ से दूर . . . अब तुम कहीं नहीं भटकोगी।"
उसने माँ का हाथ मज़बूती से पकड़ा और उसे उठाने की कोशिश की।
माँ लड़खड़ा कर धीमे से उठी और उसका मुँह ताकने लगी असमंजस में, न जाने क्या सोचती हुई . . .
उसने माँ को भींच कर गले से लगा लिया, अपने से कस कर चिपका लिया और बड़े प्रेम से माँ का चेहरा सहलाने लगा।
अचानक उसे लगा जैसे वह बहुत बड़ा हो गया है और माँ एक छोटी सी बच्ची बन गई है. . .
माँ मुस्करा रही थी, मासूम, निश्चल सी मुस्कान. . . बिल्कुल नन्हे बच्चे की तरह।
धीरे-धीरे दोनों गाँव की सड़क पर चलने लगे . . .चुप्प . . . एक अनजान सफ़र पर ..।
पीछे करमन चाचा और बस्ती के लोग आश्चर्य से उन्हें जाते हुए देख रहे थे।
दूर क्षितिज पर सूर्य अस्त हो रहा था। ढलती लालिमा में हीरालाल ने माँ को ओर देखा, उसकी बूढ़ी आँखों में अनगिनत तारे चमक रहे थे। हीरालाल का हाथ माँ के कंधों पर कस गया अधिकार और विश्वास के साथ . . .
6 टिप्पणियाँ
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बहुत ही बेहतरीन और मार्मिक कहानी है। आज के युवा पीढ़ी को बहुत गहरा संदेश है। मैंने श्रवण कुमार की कहानी पढ़ी थी और यह उसी के अनुरूप है। आपको बहुत बहुत बधाई।
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Bahut badiya giving this comment as reader . Very immotional
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बहुत बढ़िया
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मार्मिक कहानी, हीरालाल का घर के जिम्मेदारियों से भागना और अंत में रिश्तों के मायने समझकर घर वापस आना, सकारात्मक समापन। बहुत बढ़िया ।
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कर्तव्य बोध जगाने वाली हृदय स्पर्शी कहानी के लिए बधाई पद्मावती जी
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sundar
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