तर्पण
डॉ. पद्मावती
कैसी धारणाएँ बना लेते है हम . . . कितने पूर्वाग्रह . . . कितना दंभ अपनी आभिजात्य जाति का, रंग का, संस्कारों का। अपने ही बनाए दायरों की संकीर्णता में सिकुड़े हुए किसी को क्या समझ पाएँगे कभी?
आगे पढ़िए . . .
“अब यहाँ क्या हुआ?” राजेश ने हड़बड़ा कर गाड़ी को रोका और नीचे उतरा। इसुरी को उसकी चचेरी बहन कमला और उसका मर्द ऑटो में लादकर ले जा रहे थे . . . उसके कपड़ों पर ख़ून के धब्बे . . . खोपड़ी फट गई थी . . . नाक से ख़ून की हल्की सी धार . . . उसकी बेटी टीकली गला फाड़ कर रो रही थी।
“साब . . . गिर गई, चोट लग गई . . . कुछ रुपये दो न साब . . . हाथ ख़ाली और डॉक्टर बिना पैसे के . . .” बाबू राजेश को देखते ही लपक कर पास आया और हाथ जोड़कर रुपए माँगने लगा। उसके मुँह से निकली शराब की बास से राजेश का चेहरा बिगड़ गया।
“पीछे हट . . . पर हुआ कैसे यह सब?” उसने बटुआ खोलकर जितने भी रुपए थे निकाले और बिना गिने जल्दी से उसकी हथेली में धर दिए। रुपए देखते ही उसकी लाल पुतलियाँ दहकते अंगारों की तरह चमक उठीं। अचानक इतने रुपए . . . तीन चार दिन तो अब मौज में बीतेंगे . . . विश्वास बिठा ही रहा था कि कमला इसुरी को ऑटो में एक तरफ़ सटा दूसरी ओर से उतरी और गिद्ध की तरह उस पर झपटी . . . तेज़ी से रुपये उसके हाथ से छीन अपनी चोली में घुसेड़ लिए। उस पर थूकती बोली, “नीच . . . देखता नहीं क्या हुआ . . . चल हट . . . जा सूअर . . . रुपए लेगा . . . साला हरामी . . . इन रुपयों का पीएगा तो इसुरी का क्या होगा? मर न जाएगी।”
टीकली और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।
“साली छिनाल . . . छीनती है रुपया? गला सूख गया . . . और तो औ!” आई लछमी हाथ से छिनते ही वह पगला गया . . . आव देखा न ताव आगे बढ़कर उसके बाल मुट्ठी में दबोच लिए और ज़ोर से धक्का मारा। कमला गिरते-गिरते बची। उसने किसी तरह अपने आप को सँभाला और गालियाँ निकालती झट से ऑटो की ओर लपकी। बाबू होश में न था। पाँव सीधे न पड़ रहे थे . . . चढ़ी हुई थी उसे। सर पकड़े वहीं सड़क पर कुप्पा बन बैठ गया। इन दोनों की छीना झपटी में ऑटो वाला चिल्लाने लगा, “अरे तुम दोनों और देर करेगा तो बेचारी मर जाएगी . . . जाना है कि नहीं? नहीं तो मैं जाता हूँ . . . तुम लड़ते रहो . . . उतारो इसको . . . ऑटो भी गंदा कर दिया।”
“न . . . ना रुक . . . जल्दी . . . अस्पताल जाना है . . . चलो भाया . . . चलो,” कमला ने टीकली को चुप कराकर गोद में बिठा लिया और ऑटो चल पड़ा।
“सामने पार्क के पास क्लीनिक . . . डॉक्टर को मेरा नाम कहना . . . देख लेगा . . . समझी . . . मैं भी आता हूँ,” राजेश अब तक जड़ बन यह नाटक देख रहा था, चिल्ला कर बोला।
ऑटो के जाते ही राजेश घर के अंदर लपका। सामने बरामदे में मीरा बेचैन-सी घूम रही थी। राजेश को देखकर भाग कर चली आई, “चले गए क्या वे अस्पताल? . . . पता है आज इसुरी नीचे गिर गई और वो भी अपने घर में। छत की सीढ़ियों से . . . पैर गीले थे बाल्टी उठाकर कपड़े सुखाने छत पर जा रही थी, पाँव फिसला और . . . और वो तो अच्छा हुआ उसकी बहन कमला भी यहीं थी . . . हाथ बटा रही थी उसका . . . वरना लोग तो कुछ और ही समझते . . . राजेश मुझे बहुत डर लग रहा है . . . मिन्नी भी डरी हुई है। उसे पकड़ना पड़ता है न . . . मैं जा भी न पाई? पता नहीं कितने दिन लगेंगे ठीक होने में? दूसरी नौकरानी भी इतनी जल्दी कहाँ मिलेगी? ज़्यादा रुपए तो नहीं दिए न तुमने? तुम्हारा कोई भरोसा नहीं . . . बस दान वीर हो तो कोई तुम्हारे जैसा . . .? अब उसका जीजा ठहरा पियक्कड़ शराबी, अनावश्यक रुपया झोंक देगा देखना तुम . . . तुम बताओ न . . . कुछ बोल क्यों नहीं रहे?”
“तुम बोलने दो तब न . . . मिन्नी कहाँ है? कोई बात नहीं . . . तुम बस एक चाय पिला दो; मैं जाता हूँ और देखता हूँ। डॉक्टर मिश्रा देख लेंगे। मैंने समझा तो दिया है कमला को, पर एक बार पर्सनली मिल आऊँ तो अच्छा है। हादसा अपने घर में हुआ है। फ़र्ज़ बनता है हमारा।”
“अंदर है मिन्नी। परेशान . . . मैंने मना किया बाहर आने से तुम जाओ उसके पास। पर रुपए तो तुमने दे दिए न? अब फिर जाओगे तो उनकी माँग बढ़ती ही जाएगी। देखो . . . भले बुरा लगे पर इन लोगों से जितना दूर रहो उतना भला . . . आगे तुम्हारी इच्छा। जाके देख आओ . . . पर पैसा देने की बात न करना। मैं चाय लेकर आती हूँ।”
राजेश मिन्नी के पास अंदर आया। आवाज़ सुनते ही मिन्नी तेज़ी से बिना छड़ी ही उठी और लपक कर उसकी ओर चली आई, “पापा, क्या हुआ इसुरी अक्का को? ममा क्यों परेशान है? टीकली भी रो रही थी . . . गिर गई न अक्का . . . ठीक हो जाएगी न . . .?” राजेश से लिपट कर वह तेज़-तेज़ रोने लगी। “माँ ने अंदर मुझे बंद कर दिया था पापा, क्या हुआ इसुरी अक्का को, टीकली को . . . बताओ न पापा . . .?” उसकी आँसू बहे जा रहे थे।
“न बेटा . . . ऐसे न रोते . . . कुछ नहीं हुआ उसे,” राजेश ने आगे बढ़कर उसको थाम लिया कसकर अपने से चिपटा लिया।
आज मिन्नी की आँखों के सर्जन डॉक्टर आशुतोष का फोन राजेश को आया था . . . साफ़-साफ़ कह दिया था न उन्होंने कि मिन्नी की आँखें बहुत जल्द अंधकार के अलावा कुछ न देख पायेंगी। आज तक कुछ आस बँधी थी, आज वो भी जाती रही। रोग आनुवंशिक क़रार कर दिया गया था और मर्ज़ लाइलाज। पंख कटे परिंदे की तरह तड़प कर रह गया था राजेश। काम में मन न लगा इसीलिए ऑफ़िस से जल्दी निकल गया पर . . . घर आते ही यह काण्ड।
“कुछ न बेटा . . . “राजेश उसे बहलाने की कोशिश करता बोला “बस सर पर चोट आई है . . . डॉक्टर अंकल के पास गए हैं . . . वे सब देख लेंगे . . . तुम परेशान न हो . . . दूध पिया तुमने? चलो मैं पिलाता हूँ। मीरा मिन्नी के लिए भी दूध लाओ . . .” राजेश ने आवाज़ लगाई। “आज हम हमारी बेटी के साथ पीएँगे चाय। मैं फ़्रेश होकर आता हूँ मिन्नी . . .”
मीरा चाय लेकर जैसे ही कमरे में आई। देखा राजेश फोन पर बात कर रहा है। फोन काटकर वह तेज़ी से उठा, कार की चाबी ली और बाहर की ओर लपका। “मीरा मैं अस्पताल जा रहा हूँ . . . फोन आया है . . . तुम मिन्नी का ध्यान रखो . . . बाय।”
“लेकिन कुछ तो बताओ . . . हुआ क्या?” मीरा ने उसके पीछे भागते हुए पूछा।
“आकर बताऊँगा। तुम मिन्नी का ध्यान रखना।” गाड़ी तेज़ी से निकल गई।
राजेश जैसे ही अस्पताल पहुँचा, डॉक्टर मिश्रा बरामदे में उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। राजेश ने जाते ही सवाल दाग दिया, “डॉक्टर आप ने मुझे क्यों बुलाया . . . आप जानते हैं कि वह हमारी केवल नौकरानी है, और चोट लगी हमारे घर में सो मानवता के नाते मैंंने मेरा नाम आपसे कहने को कह दिया . . . बस और हमारा कोई नाता नहीं . . . फिर हमें क्यों तकलीफ़ दी जा रही है . . . मैंं तो . . .”
“न राजेश . . . सुनो . . . आओ और देखो . . . ग़ज़ब हो गया . . . बहुत ज़रूरी बात है . . . इसीलिए तुम्हें बुलाया . . . चलो अन्दर।”
डॉक्टर राजेश को खींचता हुआ अंदर ले गया। इसुरी की साँस चल रही थी . . . चमक आ गई उसके चेहरे पर राजेश को देखते ही। उसका हाथ काँपता हुआ ऊपर उठा और सर उठाकर वह अस्पष्ट शब्दों में कुछ बोलने का प्रयत्न करने लगी . . . होंठ फड़फड़ाने लगे, गले से अजीब सी आवाज़ निकली, पर बड़ी मुश्किल से कह दिया उसने, जो कहना था . . . राजेश सन्न रह गया। लगा जैसे भूकंप आया है कमरे में और उसका तन मन हिला जा रहा है। कानों पर विश्वास न आ रहा था। बाहर तेज़ हवा चल रही थी उससे भी तेज़ उफान राजेश के मन में उठ रहा था। बहुत कुछ करना था और समय कम था . . . बहुत कम . . . वह उठा और तेज़ी से बाहर की ओर भागा।
♦ ♦ ♦
चार घंटे हो गए थे। न राजेश का फोन आया न उसने फोन उठाया। मीरा फोन कर करके थक गई। मिन्नी बड़ी मुश्किल से थोड़ा-सा खाकर सो गई थी। बस एक ही रट—इसुरी अक्का कैसी है . . . टीकली कैसी है . . .
मीरा की बेचैनी बढ़ रही थी। इतना समय क्यों लगा? क्या हुआ होगा। मन में अशुभ विचार तूफ़ान मचा रहे थे। क्यों हुआ ऐसा? दिन में कितनी बार सीढ़ियाँ चढ़ती है इसुरी . . . कभी तो न गिरी . . . पर आज क्यों? इस क्यों का कोई जवाब था उसके पास? लगभग चार-पाँच सालों से इसुरी यहाँ काम कर रही थी . . . ऐसा पहली बार हुआ। आज इसुरी अस्पताल क्या पहुँची, मीरा को एक-एक बात याद आने लगी।
स्मरण है वो घड़ी . . . मिन्नी अपने पार्क में खेल रही थी। दरअसल दृष्टिलोप के कारण उसके बाहर जाने पर स्वतः ही पाबंदी लग चुकी थी। इसीलिए राजेश ने घर में ही तरह-तरह के खेलों से सजे एक छोटे-से पार्क की व्यवस्था कर दी थी उसके लिए। ढेर सारे खिलौने, लकड़ी के हाथी बंदर, घोड़े, झूला . . . क्या न था वहाँ। और तब उस शाम पहली बार इसुरी उसके घर काम पर आई थी, छोटी सी बच्ची की अंगुली पकड़े . . . दक्षिण प्रांत की आदिवासिन इसुरी . . . होगी तीस-पैंतीस की . . . रंग ऐसा काला जैसे कोयला। नाटी इतनी जैसे किसी ने ऊपर से दबा कर छोटा कर दिया हो। डरी हुई सहमी सी। और उस दिन आते ही उसकी बच्ची टीकली आँगन में पड़े घोड़े को देखकर ऐसे ख़ुश हो उठी जैसे ऐसा खिलौना पहली बार देखा हो और तो और बिना किसी से पूछे झट से जाकर उस पर झूलने भी लगी थी। पर उस वक़्त मीरा उसे देख इतना तेज़ चीखी थी कि बेचारी के होश ही उड़ गए थे
“किसने कहा छूने को तुझे वह? आं? . . . किससे पूछकर चढ़ी? उतर नीचे . . .” राजेश भी बाहर आ गए थे मीरा की चीख सुनकर, बोले भी थे, ”बच्ची है मीरा . . . क्या हुआ छू लिया तो?”
पर उसने तो मुँह पर साफ़ उनके सामने कह दिया था, “अब मिन्नी आकर वही घोड़ा झूलेगी और मेरी गोद चढ़ेगी . . . तुम्हें क्या मालूम . . . आज एकादशी है . . . कितनी बार नहाऊँगी मैं? चल उतर नीचे तू।” बच्ची अप्रत्याशित व्यवहार से सहम कर उतर गई थी। और उस दिन के बाद फिर उसने किसी भी किसी चीज़ को न छुआ था। जब तक उसकी माँ आँगन बुहारती, बरतन चौका, कपड़े करती, वह अकेली पीछे केलों के पेड़ों के इर्द-गिर्द घूमती रहती या गीली मिट्टी में एक छोटी सी डंडी लेकर उल्टी-सुल्टी रेखाएँ खींच मिटाती रहती, जैसे अपनी क़िस्मत की रेखाएँ मिटा रही हो। डरी-सी, सहमी-सहमी-सी। न बाल सहज शरारत, न शोर। टीकली मिन्नी की हम उम्र थी या कुछ एक दो साल बड़ी, शायद इसीलिए दोनों एक दूसरे को पसंद करती थीं। पर मीरा मिन्नी को हमेशा या तो कमरे में बंद रखती थी या फिर अपने ही साथ चिपटाए घूमती। लेकिन बालमन खिलौनों के साथ-साथ साथी भी तो चाहता है इसीलिए मिन्नी को टीकली की उपस्थिति इन खिलौनों से भी अधिक ख़ुश कर देती पर मीरा . . . मीरा को टीकली से किस जन्म की दुश्मनी थी पता नहीं। उसे देखते ही उसके तन बदन में आग लग जाती और वह मिन्नी को उससे दूर कर देती। उसे पास फटकने न देना, झिड़कना राजेश को बिल्कुल पसंद न था। वह मीरा को टोकता तो कहती, “मुझे उसकी आँखें बिल्कुल पसंद नहीं . . . देखो उसके नारियल के रेशे की तरह सूखे बाल, उसकी रूखी त्वचा . . . घिन्न्न सी आती है।” और टीकली, वह भी बेचारी डर के कारण दूर से मिन्नी को देखती और ख़ुश होती रहती। न उससे खेलती न खिलौनों को छूने की कोशिश करती। दोनों में सहज आकर्षण भी था और दूरी भी।
दस बज गए। सब थम-सा गया था। उसने एक बार फिर फोन लगाया। राजेश का फोन ऑफ़ था। शायद बैटरी ही ख़त्म हो गई थी। वह अंदर गई, मिन्नी को देखा। वह तो आराम से सो रही थी। खिड़की के पास आकर पर्दा हटाया, आकाश की ओर देखा . . . अजीब सी कांति पर न चाँद न सितारे। आज आसमान डरावना सा लगा सूना, सपाट किसी विधवा की माँग की तरह। हवा ऐसे चल रही थी जैसे कि बवंडर। बिजली रह-रहकर तड़क रही थी और बादलों की गड़गड़ाहट रूह कँपा रही थी। आज तूफ़ान आने वाला था। बारिश अभी शुरू न हुई थी। वह मिन्नी के पास उस पर हाथ रखकर बैठ गई कि कहीं आवाज़ से वह जग न जाए और रो न पड़े। बाहर वातावरण का क़हर और मन में आशंकाओं का फन सर उठा उठा धमका रहे थे। अशुभ होने के आसार साफ़ नज़र आ रहे थे। मन रह-रहकर पत्ते की तरह काँप जाता जब सोचती कि ‘न जाने कम्मो और टीकली कहाँ होंगे? कुछ खाया हो या नहीं? उफ़। आज ही गिरना था उसे और मेरे ही घर में होना था यह सब . . . हे भगवान . . . राजेश फोन क्यों न उठा रहे . . . न जाने क्या हो गया है?’
उसने मिन्नी को कसकर चिपटा लिया। राहत मिली।
याद आया वह दिन . . . पिछले महीने . . . हाँ . . . कितनी हताश हो गई थी वह। जब डॉक्टर आशुतोष मानसिक रूप से उसे तैयार करने के लिए घुमा-फिरा कर कह गए थे कि मिन्नी का रोग लाइलाज है। मीरा के पाँव तले तो ज़मीन ही खिसक गई थी। कितना बड़ा धक्का लगा था उसे। सिर दीवार से पटक-पटक कर रोई थी देर तक। बुरा हाल हो गया था उसका। और इसुरी . . . वह तो पूरा दिन देहरी पर बैठ कर निगरानी करती रही थी उसकी कि कहीं मीरा कोई ग़लत क़दम न उठा ले।
उस दिन मीरा ने इसुरी को अपना दर्द बता दिया था।
“अब कुछ नहीं हो सकता इसुरी . . . पहाड़ जैसा जीवन . . . कैसे जीएगी बिना आँखों के? कौन सँभालेगा?
उसका रोना देख इसुरी भी रोने लगी थी। मिन्नी से वह बहुत नेह रखती थी। आख़िर वह भी माँ थी एक बच्ची की।
“तो क्या कोई उपाय नहीं, दीदी?” उसने डरते-डरते पूछ था।
“है पर वो सम्भव नहीं। अब तो आई बैंक से कोई आँखें मिल जाए तो मिन्नी का जीवन बदले।”
“क्या . . .?” उसका मुँह खुला का खुला रह गया था। “क्या ऐसा भी होता है दीदी?”
“हाँ कोई मरने से पहले अपनी आँखें दान कर दे तो . . . पर करता कौन यह? मिलेगी कहाँ आँखें?”
“न दीदी . . . मिन्नी को किसी पराई आँखों की ज़रूरत न होगी। इसुर के घर में अंधेर नहीं। सब ठीक हो जाएगा। तू सब्र रख। तुझे नहीं मालूम दीदी, मैं तो कब की मर जाती, ख़त्म कर लेती अपने आपको . . . पर देख ठूँठ की तरह कैसे जी रही हूँ। तू सुनेगी तो पता चले . . . दीदी, कितना साफ़ दिल है तुम्हारा, कितनी पूजा करती हो इसुर की, वह क्यों देगा इतना दुख तुम्हें? . . . सब्र कर . . . सब्र कर।”
अचानक मीरा ने सर उठाकर उसकी ओर देखा था। उसने अपना दर्द छेड़ा था अब उसकी आत्मा चीर कर देखना चाहती थी। क्योंकि दर्द ही दर्द का काट जो होता है। “क्या कह रही थी अपने बारे में?”
“जाने दो न दीदी . . . क्या मिलेगा . . . मन दुखी ही हो जाएगा . . .” वह टाल गई।
कुछ पल ख़ामोशी छाई रही थी। मीरा में दबाव न डाला था। सोचा न बताना चाहती है तो न सही। पर अगले क्षण इसुरी ख़ुद-ब-ख़ुद बोलने लगी थी . . . “पता है दीदी माँ ने जन्म दिया पाला-पोसा, बापू तो था ही नहीं, माँ को छोड़ कर किसी और के साथ . . . तो माँ ही थी मेरी सब। मालिक के फ़ैक्ट्री में कपड़े सीने का काम करती थी . . . मालिक की बुरी नज़र सहती हुई . . . पर चुप रहती थी . . . पैसा . . . मुझे पालना था न . . . पैसे की ज़रूरत के सामने बेच दिया अपने आप को पर . . . जब मालिक ने मुझे . . . उफ़ . . . कितना रोई थी मैं दर्द से . . . आठ साल की . . . लहुलुहान हो गई थी मैं और मुझे देखकर माँ पागल-सी . . . कितना रोई थी मुझे चिपटाकर . . . मैं तो दर्द से रो रही थी . . . पर तब पता न चला माँ क्यों रो रही है? समझ तो बाद में आई बात . . . इसीलिए शायद माँ उस रात दौड़ गई थी कुल्हाड़ी लेकर उस राबण को ख़त्म करने . . . गई तो थी घायल शेरनी की तरह . . . पर कुछ ही देर में लौट आई हाँफती . . . आँचल में रुपयों की गड्डी छिपाए . . . और उसी रात थैली में कपड़े रखे हम दोनों आ गईं यहाँ इस सहर में अपनी बड़ी माँ के पास . . . तभी से यहाँ ठिकाना बन गया। पर कुछ ही सालों में माँ . . . पता नहीं किसी बीमारी से चल बसी। उसके बाद बड़ी माँ ने पाला . . . दो बख्त की रोटी दे देती थी वो . . . और बदले में मैं अपनी पूरी कमाई, घरों में काम की।”
इसुरी चुप हो गई थी।
“तो विवाह . . .?”
“कहाँ बिबाह दीदी . . . बोलता था रग्गू कि ब्याह रचाउँगा इसुरी . . . पर वो तो भाग गया क़तार . . . बड़ा आदमी बनना चाहता था . . . मेरी हंसुली माँगी . . . एक ही गहना जो माँ की निसानी थी . . . कहता था परदेस जाने का ख़र्चा कम हो रहा है . . . तू हंसुली दे तो काम बने . . . दे दी . . . पर . . .”
“और लूट गया तुझे . . . हैं न? वह तुझसे नहीं तेरी हंसुली को चाहता था पगली . . . तो उस पापी की निसानी को क्यों पाल रही है? उस सपोले की निसानी . . .?”
“न दीदी। वो भी आया था यही कहने जब मैं ने बताया मैं पेट से हूँ . . . कहता . . . गिरा दे . . . पर कैसे मार दूँ एक जान को? दुख तो तब लगा दीदी जब वो गया रर्बिया के साथ . . . क़तार . . . बाक़ी पैसा उसने दिया था न . . . कम्मो . . . मेरी बड़ी माँ की बेटी . . . उसने बताया बाद में मुझे . . . क्या करती . . . तू बता?”
“जान से मार देती। और क्या . . . तेरी माँ भी तो गई थी पापी को ख़त्म करने तो तू क्यों नहीं?” मीरा का चेहरा तमतमा उठा।
“न दीदी . . . माँ पापी को मारने गई थी . . . टिकुली न पापी है न पाप . . . पापी तो मैं थी . . . मारने तैयार भी हो गई थी ख़ुद को पर टिकली पेट में ख़ूब लात मारती थी . . . उसकी ख़ातिर बचा लिया अपने को और देख आज वो मेरा सहारा है और मैं उसका,” इसुरी का चेहरा दर्द से सर्द हो गया था। आत्म कथा बंद कर काम करने चली गई थी वह . . . पर घर उस दिन राजेश के आने के बाद ही गई थी।
उस दिन मीरा ने मिन्नी की सबसे प्रिय सब्ज़ी बनाई थी और राजेश से टीकली को स्कूल में भर्ती कराने की माँग भी कर दी थी। राजेश ने जानना चाहा था कि डॉक्टर ने क्या कहा, पर वह टाल गई थी।
मीरा की तंद्रा टूटी। उसने घड़ी की ओर नज़र दौड़ाई . . . तीन बज रहे थे। यानी थोड़ी देर के लिए आँख लग गई थी उसकी। दिमाग़ जो थक गया था। ग़ुस्लख़ाने से पानी गिरने की आवाज़ सुन चौंक गई। तो क्या राजेश वापस आ गए है? वह उठी और पलंग पर बैठ गई।
राजेश बाहर आया और बाल पोंछते कुर्सी पर पसर गया। राजेश को देखते ही मीरा के मन का उफान थम गया। कितने सवाल थे पर अब कुछ पूछने का मन न कर रहा था। अनचीन्हा डर था या थकान . . . पता नहीं।
“मीरा सो जाओ। सुबह बात करते हैं . . .” राजेश ने मीरा की स्थिति का अंदाज़ा लगाए कहा।
“न, कहो राजेश क्या हुआ . . . मेरी नींद हो गई। . . . कोई बात नहीं . . . अभी बोलो न . . . कैसी है इसुरी?” उसने अपने शरीर को सीधा किया और धीमी आवाज़ में पूछा।
“न मीरा . . . इसुरी नहीं रही . . .” राजेश मीरा की प्रतिक्रिया देखने के लिए कुछ क्षण शांत हो गया।
“क्या . . . अ . . . अ . . .?” मीरा का मुँह खुला का खुला रह गया। स्तब्ध रह गई। लगा कमरा घूम रहा है और छत नीचे गिर जाएगी। उसने आँखें बद कर लीं . . . अपनी हथेलियों से अपने दोनों कानों को बंद कर लिया और चीखती बोली, “नहीं . . . नहीं झूठ है ये . . . कह दो झूठ . . .” राजेश ने उसके हाथ कानों से हटाए और झंझोड़ते हुआ बोला . . .”होश में आओ मीरा और ध्यान से सुनो . . .
“जब मैं पहुँचा, उसकी आख़िरी साँस चल रही थी इसीलिए डॉक्टर ने मुझे बुलाया था . . . वह कुछ कह रही थी . . . स्पष्ट नहीं . . . बड़ी मुश्किल से कह पाई कि मरने के बाद उसकी आँखें हमारी मिन्नी को लगा दी जाए। डॉक्टर और मैं . . . हैरान . . . तभी सर्जन आशुतोष को फोन किया . . . आशुतोष आए और साँस छूटते ही ऑपरेशन कर आँखें सुरक्षित कर लीं। कम्मो ने अनुमति दे दी थी। इसुरी की आख़िरी इच्छा जो थी। पता नहीं इसके बारे में उसे कैसे जानकारी थी . . . पर कुछ भी हो हमारी बच्ची का भाग्य बदल गया। अब मिन्नी दुनिया देख सकेगी . . . कल तड़के ही हमें मिन्नी को अस्पताल में एडमिट करना होगा। तुम तैयारी कर लो . . . मैं भी हैरान हूँ इतना सब कुछ . . . इतनी जल्दी कैसे बदल सकता है . . . ईश्वर की इच्छा के आगे किसका बस चलता है . . . वे लोग बॉडी ले गए हैं . . . मिश्रा जी का प्राइवेट अस्पताल जो है। वे सब रात को ही निपटाना चाहते थे। हालत तो गंभीर थी बड़ी मुश्किल से ज्वाइन किया था उन्होंने। मैंने क्रिया कर्म के रुपए दे दिए है। ख़ैर जो हुआ दर्दनाक था पर जो हो रहा है, मिन्नी का भाग्य है . . .”
राजेश काफ़ी थक गया था। बोलकर चुप हो गया। आँखें बंद कर लीं। आराम आया।
वह उठी और पागलों की तरह कमरे में चक्कर काटने लगी . . . साँस धौंकनी की तरह चल रही थी . . . वातानुकूलित कमरे में उसके पसीने छूट रहे थे . . . कानों में तो जैसे हज़ारों रेलगाडियाँ एक साथ दौड़ने लगीं। इतनी तेज आवाज़ . . . लगा कान के पर्दे फट जाएँगे . . . ये क्या . . . कौन कानों में गर्म सीसा डाल रहा है?तन बदन में आग तपन . . . ओफ्फ . . . पानी . . . पानी . . . गला सूख रहा है . . . ओफ्फ्फ कितनी प्यास . . . याद आया वह पानी ही तो माँग रही थी जब बाल्टी समेत गिरी थी सर के बल . . . खोपड़ी ज़मीन को लगी और चित्त हो गई थी। मीरा भाग कर गई थी पानी लाने . . . पीछे की ओर . . . पीछे आँगन में था उसका घड़ा . . . जिसमें वह पानी पीती थी . . . बरतन थे उसके जिसमें हर रोज़ वह खाती थी . . . भला मीरा कैसे छूती उन्हें? . . . वापस रसोई में भागी थी . . . वहाँ इसुरी की आँखें बंद हो रहीं थीं . . . होंठ फड़फडा रहे थे, . . . ‘पानी . . . पानी . . .’ रसोई में मीरा ने सब अलमारियाँ खोल कर देखा था . . . सब जगह ढूँढ़ा पर न मिला काँच का गिलास . . . हड़बड़ी में कुछ न मिल रहा था . . . फिर देखा . . . मिला वहाँ एक काँच का गिलास . . . धोया, पानी भी भरा था और दौड़ कर बाहर आई थी . . . गिलास ज़मीन पर रख टिकली को इशारा भी किया था कि माँ को पानी पिलाए . . . इसुरी ने आँखें खोली थीं . . . आधी . . . सूखे पत्ते की तरह काँप रही थी दर्द से . . . पानी लेने को हाथ बढ़ाया . . . लहराता उठा था उसका हाथ पर पानी तक न पहुँच पाया था . . . नीचे लटक गया . . . तब तक इसुरी का होश उड़ चुका था . . . मीरा . . . मीरा खड़ी देखती रही थी . . . वह भला क्या कर सकती थी . . .?
अब उसे लगा सामने इसुरी खड़ी है . . . पानी माँग रही है . . .‘ पानी . . . पानी . . . दीदी पानी . . .’
‘रुक इसुरी . . . रुक . . . अभी देती हूँ’ . . . मीरा बड़बड़ाती रसोई में भागी। ‘ले पानी . . . पी . . . ले। पी . . .’ पागलों की तरह पानी नीचे डालने लगी। उसका गला भी सूखा जा रहा था . . . गिलास भरा . . . पानी पीने लगी। पीए जा रही थी . . . पीए जा रही थी . . . और नीचे डाले जा रही थी . . . न जाने कितने गिलास पानी पी गई . . . पर प्यास न बुझी . . . कितना पानी नीचे उड़ेल दिया . . . पूरा फ़र्श नदी बन गया . . . पी-पीकर साँस फूल रही थी . . . पेट दुखने लगा था पर वह न रुकी . . . बस पागलों की तरह पीए जा रही थी . . . वह तब तक न रुकी जब तक पानी गले तक न आ गया . . . बाहर न निकलने लगा . . . ज़मीन पर बैठ वहीं दहाड़ मार बाल नोंच-नोंच कर चीख रही थी . . . ‘ले इसुरी पानी पी . . . पानी पी . . . . . .’ हाथ पानी में मार-मार कर रो रही थी . . .
♦ ♦ ♦
मिन्नी का ऑपरेशन सफल रहा। उसे जीवन मिल गया और मीरा को दृष्टि। आज उसकी आँखों की पट्टी खुलने वाली थी। राजेश सीधा अस्पताल आ रहा था। बाहर बरामदे में आते ही उसके क़दम ठिठक गए। मीरा टीकली को लिए वहाँ बैठी थी। नयी फ्राक, बालों में रंगीन रिब्बन, रंगीन चप्पलें, गुड़िया लग रही थी टीकली। मीरा उसे देखते ही तेज़ी से पास आई और कहा, “राजेश इसुरी की आँखें सबसे पहले टीकली को देखें तो अच्छा रहेगा न। यही सोचकर इसे लाई हूँ। अच्छा किया न?” राजेश बस मुस्कुरा भर दिया और बेंच पर बैठ गया। मीरा ने राजेश की हथेली अपने हाथों में लेकर कहा, “राजेश . . . मैं मानती हूँ टीकली को उसकी माँ इस जन्म में नहीं मिल सकती और मैं उसकी माँ कभी नहीं बन सकती पर राजेश हम उसके अभिभावक बन उसका भविष्य सुधार सकते हैं . . . क्या था इसुरी का ‘कल’ . . .? लुटा बचपन, छली जवानी . . . शापित जीवन . . . नहीं राजेश मैं टीकली को एक और इसुरी नहीं बनने दूँगी। बोलो न क्या यह सही है? इसुरी का इससे अच्छा तर्पण और क्या हो सकता है?” मीरा की आवाज भावुक नहीं काफ़ी संतुलित लगी राजेश को और वह सुन्न सा खड़ा मीरा को देखता रहा . . . कुछ न बोल सका।
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राजेश ने मीरा को मना लिया था कि वे मिन्नी को बोर्डिंग स्कूल में भेजेंगे। अब तक मिन्नी की परिधि कमरा थी इसीलिए अब उसे खुला आकाश देना था। उसका नया जन्म हुआ था। उसे स्वतंत्र निर्णय लेने योग्य बनना था। बच्चों के बीच रहना, खेलना सिखाना था और यह बोर्डिंग स्कूल से ही सम्भव था। देहरादून के नामी स्कूल में दाख़िला मिल गया था। मीरा के पहचान वाले थे वहाँ तो कोई दिक़्क़त न हुई।
मौसम ख़ुशनुमा था पहाड़ियों का। स्कूल में दाखिले की सब औपचारिकताएँ पूरी हो गई थीं। जाने से पहले मीरा राजेश एक बार प्राचार्या से मिलना चाह रहे थे। बुलावा आया, अंदर गए और बैठ गए।
“आपको चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह विद्यालय बच्चों का विशेष ध्यान रखता है। हाँ, कुछ सब्र तो करना होगा पर देखिए कुछ ही दिनों में बच्चे घर से अधिक इसी वातावरण को चाहने लगते हैं। निश्चिंत रहे,” प्राचार्या ने विनम्र शब्दों में मीरा और राजेश को सम्बोधित कर कहा और मिन्नी की ओर मुड़कर बोली, “क्या नाम है बेटा आपका?”
“निखिता शर्मा,” मिन्नी होले से मुस्कुरा दी।
“और आपका?”
इससे पहले टीकली कुछ बोले, मीरा ने अपनी कुहनी मेज़ पर टिकाते आगे झुककर कहा, “ईश्वरी . . . ईश्वरी शर्मा . . .”
2 टिप्पणियाँ
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"एक को जीवन मिलने वाला था और एक को आँखे" वाक्य में में संपूर्ण कहानी का मर्म छिपा है। समाज साहित्य साधिका डॉ पद्मावती जी को बहुत बहुत बधाई
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कहानी को पढ़ना आरम्भ करने के बाद कहानी खुद खींचने लगी मृदुलता से जैसे बर्फ पर सर्फिंग की जा रही हो। शिल्प की दृष्टि से कहानी में प्रशंसनीय कसाव है। कथा इतनी कुशलता से अपने में समेट लेती है कि सभी पात्र जीवंत होकर बोलते प्रतीत होते हैं। भाषा भारतीय जीवन के सड़क से लेकर महल तक की भाव शब्दावली को प्रकट करती है। अभिव्यक्ति पाठक के अंतस तक समामेलित हो जाती है। एक अति सुंदर रचना। डॉ पद्मावती की एक और प्रभावशाली रचना
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