शाम के मंज़र को देखो
हेमन्त कुमार शर्मा
शाम के मंज़र को देखो,
क्या चुप्पी क्या ठहरा है।
शहर के जंगल का मंज़र,
एक ख़ामोशी एक सहरा है।
अपनी उलझन पास रखो,
यहाँ हुक्मरां बहरा है।
वो रात की कोई बात नहीं,
इस शहर का दिन भी गहरा है।
जनता ख़ुद, ख़ुद का ख़्याल रखे,
चोरों को तहफ़्फ़ुज पहरा है।
इस सोच के गहरे समंदर में,
इक याद का गोशा लहरा है।
पतझड़ सदा नहीं रहती,
बसंत का आँचल फहरा है।
सारी उम्र बनजारे सी बीती,
अब रुक के क्या चाहे देहरा है।
अब अपने से भी बच के रहना,
आदमी ख़ुद कितना ज़हरा है।
तहफ़्फ़ुज=सुरक्षा; गोशा=राग या रागिनी; देहरा=नरशरीर; ज़हरा=विषाक्त
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