संत त्यागराज की राम भक्ति और उनका कृतित्व—एक विहंगावलोकन
डॉ. पद्मावतीसंगीत शिरोमणि श्री राम के अनन्य भक्त स्वनामधन्य काकर्ला त्यागब्रह्मम दक्षिण भारत की उन विभूतियों में से थे जिन्होंने संगीत साधना को ‘असाध्य’ को साधने का अवलम्ब बनाया और अपनी अंतर्निहित भाव सलिला को असंख्य गीत लहरियों में पिरो कर आध्यात्मिक जगत के साथ-साथ संगीत जगत में भी अमरत्व को प्राप्त कर लिया।
ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार इनका जन्म 4 मई 1767 को तमिलनाडु के तंजावूर ज़िले में तिरुवारूर मानक ग्राम में हुआ था। ये मूलतः तेलुगु भाषी है और इनके पूर्वज सदियों पहले तमिलनाडु में आकर बस गए थे। पिता रामब्रह्मम और माता सीतम्मा की ये तीसरी संतान थे। संस्कृत और वेद उपनिषद के प्रगल्भ ज्ञाता श्री त्यागराज ने संगीत की आरंभिक शिक्षा सोंठी वेंकट रामय्या जी से ली। संत त्यागराज संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। बाल्य काल से ही ये वैराग्य के प्रति आसक्त हो गए थे। संगीत और भक्ति इन्हें अपने परिवार से विरासत में प्राप्त हुई थी। अप्रमेय प्रतिभा के धनी भक्त त्यागराज की प्रज्ञा मानवातीत मानी जा सकती है जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि विरासत में मिले भक्ति और संगीत के बीज इनमें बाल्यावस्था में ही अंकुरित होने आरंभ हो गए थे और उसका परिचय मिला तेरह वर्ष की आयु में जब इन्होंने अपना पहला संकीर्तन रच कर उसे संगीतबद्ध भी कर दिया।
गंभीर भाव-सलिला से आप्लावित रचनाओं का सृजन और गायन इनकी एकांतिक विशेषता थी। भक्ति रस में रंजित पद जब वे भाव विभोर होकर गाते थे तो पार्थिव जगत इनकी दृष्टि से ओझल हो जाता था और श्रोता को भी पारलौकिक रसास्वादन में डुबो देते थे। उनकी हर कृति (तेलुगु भाषा में गेय रचना को कृति कहा जाता है) का एक विशेष संदर्भ था और एक विशेष प्रयोजनार्थ लिखी जाती थी जो काल समय और काल की सीमाओं से परे भक्ति में आकंठ डूब कर भावोद्रेक में अनायास इनके मुख से प्रस्फुटित हो जाती थी और इन कांचन मणियों को कालांतर में इनके शिष्यों द्वारा लिपिबद्ध कर संरक्षित किया गया जिसके लिए संगीत जगत इनका सदैव ऋणी रहेगा।
‘नमो नमो राघवा’ उनका प्रथम तेलुगु भाषा का संकीर्तन था जिसने कर्नाटक संगीत में ‘भजन नामावली’ नामक नवीन संप्रदाय का सूत्रपात किया जहाँ उनकी विलक्षण रचनाधर्मिता ने कर्नाटक शास्त्रीय संगीत में वर्णित राग की संकल्पनाओं को व्यवस्थित कर अपनी मौलिक उद्भावनाओं के आधार नवीन संभावनाओं को जन्म दे दिया। आइए इस भजन की एक झलक पाते है:
“नमो नमो राघवाय अनिशं, नमो नमो राघवाय अनिशं,
शुकनुताय दीनबान्धवे, सकल लोक दया सिंधवे, (1)
भावार्थ: “हे दीन बंधु, आश्रित रक्षक, कल्पतरु, सकल लोक के दया सिंधु, आयु आरोग्य के दाता, दानवों के हंतक, हे परमात्मा संत त्यागराज की सेवा स्वीकार कीजिए।”
संगीत साधना इनकी दृष्टि में भगवत प्रेम को व्यक्त करने का एक बहिर्गत माध्यम थी। अपने आराध्य श्रीराम के प्रति इनकी भक्ति का उत्कट संवेग इनके संगीत की रागात्मक सर्जना में अवसान पाने लगा। इनकी प्रतिभा ने चमत्कार दिखाना आरंभ कर दिया। राम भक्ति और संगीत का सामंजस्य–कीर्ति आसमान छूने लगी। एक किंवदंती के अनुसार साक्षात् नारद महर्षि ने स्वयं आकर इन्हें अपने कर कमलों से ‘स्वरार्णवं और नारदीयं’ ग्रंथ प्रदान किए थे।(2)
मोह-माया के प्रति अनासक्ति:
तंजावूर के तत्कालीन महाराज शरभोजी तक इनकी असाधारण प्रतिभा की भनक पहुँची। उन्होंने राज ख़जाने से असंख्य स्वर्ण मुद्राएँ हीरे, जवाहरात भेंट स्वरूप उपहार देकर उन्हें दरबार में आकर अपनी विद्वता प्रदर्शन करने का निमंत्रण दे दिया। लेकिन शरभोजी की एक शर्त भी थी और वह यह कि संत त्यागराज अपने गीतों में उनका महिमा मंडन करेंगे। नाम से ही नहीं कर्म में भी मोह माया को तिलांजलि दे चुके श्री संत त्यागराज को राजा का प्रलोभन किंचित भी विचलित न कर पाया। तत्क्षण उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। मन में रामानुराग के तार झंकृत हो उठे। अश्रु पूरित नयनों से उद्गार निकले:
“निधि चाला सुखमा रामुनु सन्निधि सेवा सुखमा निजमुगा पल्कु मनसा।
दधि नवनीताक्षीरम्मुलु रुच्यो, दाशरधि ध्यान भजना सुधारसमु रुचियो,
दमा शममनु गंगा स्नानमु सुखमा, कर्दम दुर्विषय कूप स्नानमु सुखमा।
ममता बँधन युता नर स्तुति सुखमा, सुमति संत त्यागराज नुतिनि कीर्तन सुखमा?”(3)
भावार्थ: नश्वर मानव जन्म का प्रयोजन केवल धनार्जन नहीं है। सुख की सच्ची परिभाषा क्या हो सकती है? भौतिक साधनों से प्राप्त भोग-विलास ही क्या सुख का पर्याय हो सकता है? त्यागराज अपने मन से प्रश्न करते हुए परोक्ष रूप से मानव जाति को चेता रहे है कि किसे सुख माना जा सकता है—धनोपार्जन को या परमात्मा के सानिध्य में बैठ उनकी सेवा को? कर्मेन्द्रियों को तृप्त करने वाले पदार्थों से क्या शाश्वत सुख प्राप्ति हो सकती है? क्या जिह्वा को दधि माखन और दूध तृप्त करता है या दशरथ नंदन के ध्यान भजन से उद्भूत सुधा रस का पान? क्या दम शमन के लिए किया गया गंगा स्नान श्रेष्ठ है या विषय वासनाओं की कीच से स्वयं को परिशुद्ध करना? क्या मोह-माया के जाल में बँधे नर की स्तुति श्रेष्ठ है या संत त्यागराज को प्राप्त सुमति से सृजित भक्ति रस में आप्लावित यह भगवत् कीर्तन श्रेष्ठ है—हे मन तू सत्य वचन सुना।
अर्थ गाम्भीर्य और वेदांत का मिश्रण:
अर्थ गाम्भीर्य और वेदांत का पुट इनकी कृतियों में सर्वत्र दृश्यमान होता है। विषय वासनाओं से अनासक्ति के कारण इनके ज्येष्ठ भ्राता ने एक बार इनके आराध्य प्रभु राम की पंचायतन मूर्तियों को कावेरी नदी में फेंक दिया था।
संत त्यागराज उन्मादी की तरह अपनी मूर्तियों को ढूँढ़ने लगे। निद्रा आहार त्याग दिया। ईश्वर की कृपा में विलम्ब असहनीय हो रहा था। राम नाम स्मरण के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं दिखाई दे रहा था। क्षुब्ध हृदय चीत्कार कर उठा:
“नेनेंदु वेतुकुदुरा हरि, नेनेंदु वेतुकुदुरा हरि”(4)
भावार्थ: हे हरि मैं आपको कहाँ ढूँढ़ूँ? आप कहाँ मिल सकते है? जो चतुर्मुख ब्रह्मा के बुलाने पर भी न आए तो क्या आप मुझ जैसे पापी, कुमति, दुर्वचन बोलने वाले और कलुषित कर्म कर भक्ति का पाखंड रचने वाले मुझ जैसे नीच के बुलाने पर क्या आप आएँगे?”
सन् 1808 में संत त्यागराज ने छियानवे करोड़ रामनाम का जप पूर्ण किया था। अट्ठारह वर्ष की आयु में आरंभ किया राम जप हर दिन एक लाख पच्चीस हज़ार की गिनती पूर्ण करता हुआ इस शिखर तक पहुँच गया था। यह कोई सामान्य उपलब्धि नहीं मानी जा सकती है।
कहा जाता है आत्म साक्षात्कारी मुमुक्षु महापुरुष अपनी जन्मांतर कर्म फल से अर्जित सिद्धियों सहित इस धरा पर अवतरित होते हैं। मोक्ष सिद्धि ही इनके अवतार का कारण होता है। इनका हर कर्म इसी प्रयोजन को सिद्ध करने हेतु किया जाता है। मार्ग भिन्न हो सकते हैं लेकिन लक्ष्य परम तत्त्व की प्राप्ति ही होता है। संत त्यागराज ने इस लक्ष्य प्राप्ति के लिए रामभक्ति का मार्ग चुना और साधन बना संगीत। भाव पूरित शब्द संपदा का आलम्बन लेकर नादमय संगीत का सृजन। उनकी मौलिक उद्भावना ने नए रागों का सृजन किया। भाव सिद्धि से आत्म ज्ञान सिद्धि—तदनंतर कैवल्य प्राप्ति। संत त्यागराज का मार्ग अनूठा था। उनकी विलक्षण प्रतिभा ने उनकी भाव सलिला को नया आयाम दिया। कर्नाटक संगीत को नया क्षितिज दिया। संगीत और भक्ति के मिलन का जो बीज पुरंदर दास ने दक्षिण में बोया था, भक्त रामदास ने जिसको पोषित किया था, संत त्यागराज के संरक्षण में वह वट वृक्ष बन गया।
लोक मंगल भावना:
त्याग और तप की प्रतिमूर्ति इन विभूति ने स्वर साधना को आत्म साक्षात्कार का माध्यम बनाया था। केवल उदर पूर्ति और भोग-विलास के लिए अर्जित किया गया धन इनकी दृष्टि में हेय था और इसी कारण ये अपने ही परिवार के कोप का भाजन बने। लोक निंदा और लोक अपमान भी सहा लेकिन आदर्शों से कभी समझौता न किया। अगर किसी के सामने समर्पण किया तो वे थे इनके प्रभु कोदंडपानी दशरथ नंदन प्रभु राम। विकारों से ग्रसित मानव जन्म के आत्मोत्थान हेतु लोक कल्याणार्थ उद्वेलित होकर अश्रु बहाते ईश्वर के सामने बैठ गिड़गिड़ाते हुए वे भजन गाते थे। निंदा करने वालों के प्रति परमार्थ की भावना—ये तो एक सच्चा संत ही कर सकता है। “जिसने साक्षात् नारद महर्षि से स्वरार्णवं ग्रंथ का प्रसाद पाया हो, जिसे महाकवि वाल्मीकि की प्रेरणा प्राप्त हुई हो और जिसने तुलसी के चरित्र को जीवन पर्यंत अपना ध्येय बना लिया हो उसके लिए संगीत साधना में उच्चतम शिखर को पाना आश्चर्यजनक बात नहीं है।”(5)
उनकी विलक्षण प्रज्ञा ने तप सिद्धि का मार्ग सुगम बना दिया था। इन्होंने लोक भाषा को अपने गीतों का माध्यम बनाया जो जन मानस में स्थायी प्रभाव डालने में सक्षम थी लेकिन इनकी संस्कृत का भी विशेष प्रभाव इनकी भाषा में स्पष्ट गोचर होता है।
‘Tyagaraj, literally ‘the king of renunciation’ or ‘relinquishment’s ruler’, a namesake of the Hindu deity Siva, is south India’s most celebrated musician-saint and has dominated the Karnataka music system for over a century’. (6)
सर्वेपल्ली राधाकृष्णण ने इसी ग्रंथ की प्रस्तावना पर अपने विचार यूँ प्रकट किए; “Tyagaraja was a man of great humility, utter self-effacement. He expresses the truths of Upanishads, the Bhagavad-Gita in simple and appealing language. He addresses the Supreme as Rama. The kingdom of God acquired through devotion is the greatest of all treasures.” (7)
भक्ति भावना:
बात 1802 की है जब त्यागराज की ख्याति आग की तरह फैल रही थी। गुरु शोठी वेंकटारमणय्या जी ने तंजावूर में संगीत के प्रकांड पंडितों की एक सभा बुलाई जिसमें वे त्यागराज की प्रतिभा का सामूहिक प्रदर्शन करना चाहते थे। यह संगीत सभा गुरुजी के निवास पर ही आयोजित की गई थी। त्यागराज ने उस समय बिलहरि राग में इस गीत का आलाप किया जो आज भी संगीत मर्मज्ञों के कंठ का हार है।
संत त्यागराज का रोम-रोम राममय था। राममंत्र इनकी नसों में लहू बनकर दौड़ता था। उन की कृतियों को पढ़ कर लगता है कि भगवान रामकृष्ण परमहंस की तरह वे भी अपने इष्ट से वार्तालाप किया करते थे। ध्यान की चरमावस्था में वे अपने आराध्य का साक्षात्कार कर लेते थे और उनसे किया वार्तालाप ही इनके मुँह से भजनों के रूप में प्रस्फुटित होने लगता। इनकी रचनाओं में सुर और तुलसी की भाँति अपने आराध्य का लीलागान और महात्म्य वर्णन अत्यंत मनोहारी और हृदयस्पर्शी बन पड़ा है। वैसे तो इनकी भक्ति विनय और दास्य ही मानी जाएगी लेकिन जब कभी दर्शन की अभिलाषा उत्कट हो उठती, उत्कंठा तट–बंध तोड़ने लगती तो निराश मन उलाहना देता, विवाद करता और कभी-कभी अपशब्द भी बोल देता। प्रभु को अपनी योग्यता का प्रमाण दिखलाकर उनकी अहेतुकी कृपा में विलम्ब का कारण पूछा जाता। संदेह उठता—कहीं प्रभु को स्मरण न हो, विस्मृति हो गई हो। तब आवश्यक हो जाता सर्व अंतर्यामी सर्वशक्तिमान प्रभु को उनकी शक्ति का स्मरण दिलाना। इसका एक और उदाहरण देखिए:
“चेसिंदेल्ला मरिचितिवो ओ रामा, ओ रामा।
आसा कोन्नाटि नन्नु आलयिंचुटकुमुन्नु,
चेसिंदेल्ला मरिचितिवो ओ रामा, ओ रामा॥(8)
भावार्थ: “हे प्रभु–क्या आपको विस्मृति आ गई है? क्या भूल गए हैं किस तरह आपने अपनी प्रियतमा सीता, जो आपकी भक्ति की सुयोग्य पात्र थी, उन की खोज हेतु एक क्षण विलम्ब किए बिना सूर्यपुत्र सुग्रीव से मित्रता कर ली थी? क्या आप भूल गए हैं किस तरह आपने विभीषण को लंका का अधिपति बनाकर अपने अनुज शेषनाग को उनकी रक्षा हेतु कार्यभार सौंपा था? क्योंकि उसे भी आपने अपनी कृपा के योग्य माना था। हे त्यागराज के प्रेममूर्ति राम, क्या भूल गए किस प्रकार आपने रौद्र अवतार भक्त आंजनेय को ब्रह्म पदवी दे दी थी क्योंकि उसने आप तक आपकी प्रियतमा का संदेश पहुँचाया था?” आज प्रभु को सब विस्मरण हो गया।
(माना जाता है कि रामावतार के समापन पर प्रभु राम ने हनुमान को भी वैकुण्ठ आने का निमंत्रण दिया था जिसे हनुमान ने ठुकरा दिया था और प्रतिज्ञा की थी कि जब तक धरा पर राम नाम का स्मरण होता रहेगा तब तक वे धरा पर ही रहेंगे। इसीलिए हनुमान को ‘कलियुग ब्रह्म’ की पदवी प्रभु राम द्वारा दी गई थी)
जाति-पांति का खंडन:
सभी संत सर्वजन समभाव में विश्वास रखते है। “कबीर कुआँ एक है, पानी भरे अनेक” की विचारधारा सभी संतों के व्यक्तित्व में चरितार्थ होती दिखाई देती है। दैहिक बल नश्वर है। जाति-कुल बाह्याडंबर है जिसका भक्ति या सिद्धि से कोई सम्बन्ध नहीं है। एक कीर्तन इसी सम्बन्ध में दृष्टव्य है:
“बलमु कुलमु एला? राम भक्ति कारणमु,
वेयल सकल सिद्धुलु एला? वेण्ट वच्चु कानि मेंनुब। (9)
भावार्थ: कुल और बल की चिंता क्यों करते हो जब रामभक्ति ही मूल है और सभी सिद्धियाँ इसी से प्राप्त हो सकती है। काग और मीन दोनों अगर पानी में डुबकी लगाए तो क्या वह प्रातः स्नान की कोटि में गिना जा सकता है? बगुला आँख बंद कर खड़ा रहे तो क्या वह ध्यान कर रहा होता है?
बकरी फल पत्तियों का सेवन करे तो क्या वह उपवास की कोटि में आ सकता है? अगर पंछी ऊँचे आसमान में उड़े तो क्या उनकी तुलना सूर्य और चाँद से की जा सकती है? सामान्य जन अगर गुफाओं में वास करे तो क्या वे ऋषि बन सकते है? और जंगल के वानर तपस्वी माने जा सकते है? जब भिखारी नंगे तन रहता है तो क्या वह योगी कहा जा सकता है? वस्त्रहीन शिशु क्या आत्मज्ञानी संत कहे जा सकते है? भक्ति ही मूल मंत्र है? कुल आडम्बर व्यर्थ है।
संत त्यागराज के कृतित्व का अवलोकन करें तो मुख्यतः तीन ग्रंथ सामने आते हैं। इतनी असाधारण प्रतिभा होने पर भी इनका जीवन एक योगी का जीवन था। विद्वता प्रदर्शन से कोसों दूर, भक्ति रस में डूबे श्री त्यागराज ने 24000 से भी अधिक संकीर्तनों को स्वर दिया था लेकिन दुर्भाग्य है कि आज केवल एक तिहाई रचनाएँ (कृतियाँ) ही उपलब्ध हैं। शेष काल के गर्भ में विलुप्त हो गई हैं। इन्होंने अपनी मातृ-भाषा तेलुगु को अपने गायन का माध्यम बनाया और गेयता गुण-धर्म के कारण इनके संकीर्तनों ने संगीत जगत में काफ़ी लोकप्रियता अर्जित की है। इनके गीत आज भी संगीत प्रेमियों के कंठहार है। भक्त कवियों की भाँति इन्होंने अपने गीतों को कभी न लिपिबद्ध किया न संकलित करने का ही कोई उपक्रम किया। कालांतर में महान संगीत विशेषज्ञों ने इनकी संगीत साधना में अंतर्निहित शास्त्रीय गायन की अमूल्य निधि की अपरिमित संभावनाओं का आकलन कर उन्हें क्रमवार व्यवस्थित कर भावी पीढ़ी के लिए संरक्षित करने का महत्ती प्रयास किया।
इनमें मुख्य है ‘त्यागराज पंचरत्न कृति’ जिसका शाब्दिक अर्थ है पाँच रत्न, कर्नाटक संगीत की उत्कृष्ट निधि, पाँच रत्नों की खान। इनमें वर्णित सभी गीत ‘आदि-ताल’ पर आधारित हैं। इनकी गायकी में जहाँ शास्त्रीय संगीत की पुरातन शैलियों का समावेश है वहीं इन्होंने कई नवीन शैलियों का मौलिक सृजन कर कर्नाटक शास्त्रीय संगीत को नया आयाम दिया है—इनकी यही विशेषता इन्हें समकालीन शास्त्रीय गायकों से अलग एक विशेष धरातल पर प्रतिष्ठित कर देती है। इसके अतिरिक्त इन्होंने तेलुगु में दो गीति-नाट्यों का भी सृजन किया जिनके नाम है क्रमशः ‘प्रह्लाद भक्ति विजयम’ और ‘नौका चरितम’।
उपसंहार:
इनकी रचनाएँ भक्ति और दर्शन का संश्लिष्ट रूप है जहाँ भक्ति को प्राधान्य मिला है। भगवान श्रीराम की प्रतिमा के सम्मुख बैठकर नित्य ये संगीत साधना किया करते थे। कहा जाता है कि जब श्री संत त्यागराज भगवान के सम्मुख बैठ भाव-विभोर होकर संकीर्तन भजन गाया करते थे, तब इनके शिष्य ताड़-पत्रों पर उन्हें लिपिबद्ध किया करते थे। इनकी भगवान राम के प्रति अनन्य निष्ठा थी, लेकिन इन्होंने शिव, शक्ति, गणेश और माँ सरस्वती की स्तुति में अनेक रचनाएँ को स्वरबद्ध किया है।
त्यागराज आराधना:
हर वर्ष जनवरी और फरवरी मास में तंजावूर ज़िले के तिरुवायुरू गाँव में इस विभूति की पुण्यतिथि पर स्मरणीय त्यागराज आराधना संगीत महोत्सव का भव्य आयोजन किया जाता है जहाँ देश-विदेश से हज़ारों की संख्या में संगीत प्रेमी वाद्य यंत्रों के साथ इनकी पंचरत्न कृति के गीतों का सामूहिक गायन करते हैं।
अंत में इन्हीं के शब्दों से लेख का समापन:
“एंदरों महानुभावुलु, अंदरिकि वंदनमुलु”(10)
अर्थात्: जितनी भी महान विभूतियाँ हैं, उन सब को नमन।
लेखिका–डॉ पद्मावती
सहायक आचार्य, एस आर एम इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस एण्ड टेक्नोलजी,
रामापुरम, चेन्नई।
संदर्भ ग्रंथ सूची:
-
तुलसीदास और त्यागराज की भक्ति- चिट्टि अन्नपूर्णा- आर एन आर प्रकाशक- टिर्पलीकेन, चेन्नई ।
-
त्यागराज- ईमनी सुधा – पृ. सं. 22, एमेस्को प्रकाशक , विजयवाड़ा
-
वही – पृ. सं. 18
-
तुलसीदास और त्यागराज की भक्ति- एक अनुशीलन- चिट्टि अन्नपूर्णा – पृ सं. 51, आर एन आर प्रकाशक, ट्रिपलीकेन चेन्नई
-
त्यागराज कृतुल्लो पद –सुधा विंयासमु मोक्ष संयासमु- ईमनी – पृ. सं. 19
-
वही – पृ.सं. 11
-
त्यागराज कृतुल्लो पद –सुधा विंयासमु मोक्ष संयासमु- ईमनी सुधा – पृ. सं. 5
-
Tyagraj life & Lyrics – Oxford University Press – P.No. 184
-
वही – पृ.सं. 176
-
त्यागराज कृतुल्लो मोक्ष विन्यासमु- ईमनी सुधा – पृ.सं. 41
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