कृत्रिम मेधा (एआई) वरदान या अभिशाप

 

एक वर्ष पूर्व कभी-कभार हमें कृत्रिम मेधा (एआई) के निर्माण, विकास, सम्भावनाओं इत्यादि के विषय पर कुछ सुनाई दे जाता था। उस समय हम नहीं जानते थे कि यह उपकरण (मैं इसे एक उपकरण ही मानता हूँ) इतनी शीघ्र हमारे दैनिक जीवन का एक अंश बन जाएगा। अंश भी ऐसा जो दिन-प्रतिदिन, प्रत्यक्ष और या परोक्ष रूप में हमारे जीवन को ही नियंत्रित कर रहा है और यह नियंत्रण भी बढ़ता जा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है, इससे समझना कठिन नहीं है। हम सब जानते हैं कि किस तरह हम कम्प्यूटर तकनीकी पर इतना निर्भर हो चुके हैं कि इसके प्रयोग के बिना हम जी ही नहीं सकते। हाँ, कुछ साहसी व्यक्ति सप्ताहांत पर एक-दो दिन मोबाइल, कम्प्यूटर या टीवी के बिना रहने का प्रयास करते हैं; क्या वह कर पाते हैं यह अलग विषय है। इस मार्ग पर हम कितनी दूर निकल आए हैं उसका एक उदाहरण दे रहा हूँ। 

कल मैं अपने सात वर्षीय पोते, युवान के साथ एक बाल-साहित्य की पुस्तक पढ़ रहा था। कहानी में ‘पोस्ट कार्ड’ की चर्चा थी। मैंने युवान से पूछा कि क्या तुम जानते हो कि पोस्टकार्ड क्या होता है? वह केवल यह जानता था कि अगर आप छुट्टी मनाने कहीं पर जाते हैं तो आप उस स्थान से संबंधित कुछ कार्ड ख़रीदते हैं और वापिस लेकर आते हैं। मैंने उसे एक पोस्टकार्ड का चित्र दिखाकर समझाया कि ई-मेल से पहले केवल यही लिखित सम्पर्क का साधन था। युवान न तो डाक-टिकट से परिचित था और न ही उसपर लगी डाक-विभाग की मुहर से। हाँ, सोशल मीडिया, ई-मेल, यूट्यूब, फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम इत्यादि साधनों को वह भली-भाँति जानता है या यूँ कहूँ मुझसे अधिक जानता है।

कृत्रिम मेधा भी इसी प्रगति के मार्ग पर मील का पत्थर है। यह मार्ग भी ऐसा है कि जिस पर हम सबको चलना ही पड़ेगा। यह बात अलग है कि आप संन्यास लेकर किसी घने वन में रहने लगें जहाँ आप केवल वन पशु पक्षियों से ही वार्तालाप करने लगें। ऐसी अवस्था में आप स्वयं मात्र एक पत्थर हो जाएँगे—स्थिर, अपरिवर्तनीय पाषाण-काल प्राणी!

इस समय आम व्यक्ति या कम्प्यूटर यूज़र कृत्रिम मेधा की सम्भावनाओं को समझ नहीं पा रहा। मानव प्रवृत्ति है कि जो हम समझ नहीं सकते तो उसके प्रति हमारी दो प्रतिक्रियाँ होती हैं। या तो उससे भयभीत होने लगते हैं, या फिर उसकी पूजा-आरती करने लगते हैं यानी उसे भगवान तुल्य निर्दोष, सर्वज्ञ मानने लगते हैं। हम समझ ही नहीं पाते कि इस नई तकनीकी का अविष्कार मानव की आवश्यकता के लिए और सुविधा के लिए किया गया है। जो व्यक्ति पिछली सदी के मध्य में पैदा हुए थे, भारत में पलते-बढ़ते हुए उन्होंने निश्चित रूप से पहाड़े भी याद किए होंगे, तख़्ती पर कलम और काली स्याही से लिखा भी होगा। स्कूल की आधी छुट्टी के समय तख़्ती पर लिखा नल पर धो कर मिटाया भी होगा और फिर से गाचनी मिट्टी (पंजाबी का शब्द) का लेप लगा कर, धूप में पेंडुलम तरह हिला-हिला कर गाने गाते हुए सुखाया भी होगा। अगली पीढ़ी क्या इस दैनिक प्रक्रिया को जानती होगी? महानगरों में तो बिल्कुल भी नहीं। संभवतः ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी ऐसा ही होता होगा। इन ग्रामीण क्षेत्रों में मोबाइल पहुँच चुका है। अगर मोबाइल पहुँच चुका है तो कृत्रिम मेधा भी पहुँच चुकी है। इसी तरह हमारे पूर्वज भोज-पत्रों पर लिखते रहे, यानी उस समय स्याही का प्रयोग भी नहीं था। इसका अर्थ यह है कि प्रगति पथ पर अग्रसर होना भी मानव की प्रवृत्ति है। प्रगति को अपनाना, उसे समझना और उसका उचित प्रयोग करना ही मानवीय धर्म है। प्रगति से भयभीत होकर जिया नहीं जा सकता। 

अब मुख्य बिन्दु पर आ रहा हूँ। अभी तक सम्पादकीय में यह तथ्य स्थापित कर रहा था कि जीवन के प्रत्येक पक्ष पर कृत्रिम मेधा की छाया है। साहित्य भी इससे विलग नहीं है। लगभग पिछले छह-सात महीनों से मैं कृत्रिम मेधा का प्रयोग, साहित्यिक अनुसंधान करने के लिए, चित्र बनाने के लिए, साहित्यिक परिभाषाओं के लिए, पर्यायवाची शब्द खोजने के लिए और शब्दकोश की तरह उपयोग कर रहा हूँ। सच मानिए तुरंत सटीक जानकारी मिल जाती है। तुरंत भी इतनी कि आश्चर्यजनक गति के साथ। मैं कुछ संपादित कर रहा था। लेखक ने एक आंचलिक शब्द का प्रयोग किया था जिसका मुझे अर्थ मालूम नहीं था। मैंने कृत्रिम मेधा से शब्द का अर्थ पूछते हुए लिखा की यह शब्द संभवतः भोजपुरी का हो सकता है। मुझे उदाहरण सहित उत्तर मिल गया, जिसमें साहित्य कुञ्ज के संदर्भ के पृष्ठ का लिंक दिया गया था, और यह लिंक प्रूफ़रीडिंग टूल के पेज का था। यानी संपादन पूरा होने से पहले कृत्रिम मेधा ने इसे खोज कर दर्ज कर लिया था।

उस दिन से मैं सोच रहा हूँ कि हम लोग जो हिन्दी भाषा के प्रेमी हैं और इसे शुद्ध रूप में देखना चाहते हैं किस तरह से कृत्रिम मेधा का प्रयोग करते हुए भाषा की शुद्धता को सुरक्षित करें। मैं जानता हूँ कि साहित्य कुञ्ज के कई लेखक अपने आलेख लिखने के लिए कृत्रिम मेधा का प्रयोग कर रहे हैं। मुझे उससे कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि शोधार्थी भी तो अपने निबन्ध लिखने के लिए पूर्व प्रकाशित शोध निबन्धों से सामग्री एकत्रित करते हैं। मैं इन लेखकों से अपेक्षा रखता हूँ कि जो कुछ आपको अपने चयनित विषय की जानकारी कृत्रिम मेधा से मिल रही है, उसे ज्यों का त्यों या एक दो शब्द बदल कर मत प्रकाशित करवाएँ। आपका यह दायित्व है कि आप उसमें अपने विचारों का और तर्कों का संयोजन भी करें। ताकि आपका चयनित विषय और अधिक समृद्ध हो।

दूसरा मेरा निवेदन शिक्षा जगत के आचार्यों से है कि आपके जो शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं (प्रिंट में) और आप उसका लाभ उठा चुके हैं, कृपया आप उन्हें इंटरनेट पर प्रकाशित करें ताकि हिन्दी साहित्य की कृत्रिम मेधा और समृद्ध हो और इसके उपयोगकर्त्ताओं को सटीक और परिष्कृत जानकारी मिल सके। 

सभी लेखकों से भी निवेदन कर रहा हूँ कि कृपया अपने लेखन की वर्तनी और व्याकरण की ओर भी ध्यान दें। क्योंकि कृत्रिम मेधा आपकी मेधा को ही प्रस्तुत करती है। एक और उदाहरण दे रहा हूँ। एक शब्द के पर्यायवाची शब्द में कृत्रिम मेधा ने चन्द्र बिन्दु की जगह बिन्दी का प्रयोग किया। मैंने उसे टोका तो मुझे कृत्रिम मेधा का उत्तर मिला, “आप ठीक कहते हैं। सही प्रारूप चन्द्र बिन्दु का ही है”। यानी अगर सभी लोग सही वर्तनी लिखेंगे तो कृत्रिम मेधा भी वर्तनी की संख्या के आधार पर ही उसे सही मानेगी। 

वैज्ञानिकों ने हम सब के हाथ में शक्ति थमा दी है कि हम हिन्दी को इंटरनेट पर शुद्ध रूप में स्थापित कर सकें।  अब दायित्व हमारा है कि हम उसे निभाते हैं कि नहीं।

— सुमन कुमार घई

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