वक़्त की मार

15-06-2021

वक़्त की मार

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 183, जून द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

बड़े साहब के सामने हरकू माली हाथ जोड़े खड़ा था। उसे 'ग्रीन एंड ग्रीन' नामक इस लिमिटेड कंपनी में नौकरी मिले अभी सिर्फ़ तीन महीने हुए थे। अच्छी पगार थी और वह ख़ुश था। कल बड़े साहब की मेम साहब दफ़्तर आयीं और उससे उनकी शान में कुछ गुस्ताख़ी हो गई। उन्होंने उसे कुछ फूलों के पौधों को अपनी कोठी में पहुँचाने के लिए कहा और हरकू ने कहा कि बिना बड़े साहब से पूछे वह पौधे तो क्या एक फूल तक किसी को नहीं दे सकता है। ख़ैर, इस वक़्त बड़े साहब भड़कते हुए हरकू से कह रहे थे, " अरे तुम्हारे दिमाग़ में मेम साहब की बात टालने का ख़्याल आया कैसे? फिर ऐसी  ग़लती हुई तो मैं तुम्हें निकाल बाहर करूँगा। घर आकर मेम साहब से माफ़ी . . . "

अभी बड़े साहब अपनी बात पूरी कर पाते कि भूकंप के तेज़ झटकों की वज़ह से उनकी कुर्सी हिलने लगी। तभी बाजू में रखी बड़ी अलमारी बड़े साहब के ऊपर गिर गयी और छत का कुछ हिस्सा भी भरभराकर गिर पड़ा। शुक्र है बड़े साहब का सर बच गया। अब वे हरकू से कराहते हुए कह रहे थे, "हरकू भैया, इस अलमारी को हटाओ और मुझे जल्दी से बाहर निकालो।"

जो बड़े साहब कुछ देर पहले हरकू को बाहर निकालने की बात कर रहे थे, हरकू अब उन्हीं को बाहर निकालने का सुरक्षित तरीक़ा सोच रहा था।      

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता - हाइकु
स्मृति लेख
लघुकथा
चिन्तन
आप-बीती
सांस्कृतिक कथा
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
व्यक्ति चित्र
कविता-मुक्तक
साहित्यिक आलेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में