पंडी ऑन द वे

दिलीप कुमार (अंक: 155, मई प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

जिस प्रकार नदियों के तट पर पंडों के बिना आपको मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, गंगा मैया आपका आचमन और सूर्य देव आपका अर्घ्य स्वीकार नहीं कर सकते जब तक उसमें किसी पण्डे का दिशा निर्देश ना टैग हो, उसी प्रकार साहित्य में पुस्तक मेलों में कोई काम साहित्यिक पंडों और पण्डियों के बिना नहीं हो सकता। ग़ालिबन इन पंडों से पुस्तक मेलों की रौनक़ बनती है, ये पंडे-पण्डियाँ अव्वल तो किसी ना किसी के निमंत्रण पर पहुँचते हैं, लेकिन अगर इन्हें कोई ना बुलाये तो भी बिन बुलाए हर जगह पहुँच जाते हैं। ऐसे ही एक व्याकुल पंडी इंदौर से इंद्रप्रस्थ पहुँची जहाँ पुस्तक मेला लगा था, बेचारी आजिज़ थी कि उसे किसी ने बुलाया नहीं, कोई ठिकाना नहीं सो कब तक राह तकती, लोगों ने चेताया भी कि बिन बुलाए मत जाओ दिल्ली-

ये सरा सोने की जगह नहीं बेदार रहो
हमने कर दी ख़बर तुमको, ख़बरदार रहो,

मगर पंडी अपने अधिरथी पति के साथ राजधानी के पुस्तक मेले में पहुँच गयी। पंडी को कोई ठिकाना नहीं मिल रहा था क्योंकि विगत वर्ष वो जिस जजमान के घर ठहरी थी; इस वर्ष वो इनकी आमद भाँप कर पलायन कर गयी। राजधानी में रहने के लिये, पंडी अति व्याकुल थी। क्योंकि पंडीगिरी करने के बाद भी अगर किराया देकर रहना पड़े तो ये उसके हुनर का अपमान होता। वो कहीं जाती तो सम्भावित नई पण्डियों के घर ही रुकती थी; कभी-कभी पंडों के घर भी पहुँच जाती थी अपने पति के साथ। पंडी अस्त-व्यस्त सी राजधानी के पंडों-पण्डियों के घर रुककर पुस्तक मेला घूमने का जतन बनाती रही। लेकिन दिल्ली अब सिर्फ़ दिलवालों की नहीं रही, बल्कि नए पंडों-पण्डियों की भी है जो दगे कारतूसों को महत्व नहीं देते। पिछले बरस वो जिस जजमानी में पति के साथ ठहरी थी और दान-दक्षिणा लेकर विदा हुई थी, दो साल बाद अब वो जजमानिन्न ख़ुद पंडी बनने की राह पर है और योग, ध्यान और फ़िटनेस की पंडी बनने कहीं सुदूर पहाड़ों पर चली गई है; जो दिल्ली लौट कर योग, ध्यान और फ़िटनेस की पण्डागिरी करेगी। दिल्ली में गेस्ट पंडी ने बहुत प्रयास किया कि रोहिणी, उत्तम नगर, शालीमार बाग के आस-पास उसे कोई रहने का ठिकाना मिल जाये ताकि वो पुस्तक मेला भी जा कर रंग जमा सके और अपने रोज़गार का सामान भी पीरागढ़ी से ख़रीद ले - थोक के भाव की मेहँदी। गेस्ट पंडी व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी से दीक्षा लेने के पूर्व घर-घर जाकर मेहँदी लगाती और बेचती थीं; अब भी या तो किताब बेचती हैं- मेहँदी के डिज़ाइन। बस बिक्री ही उनका ख़ुदा और जो ना ख़रीदे वो दुश्मन। पंडी ने ईस्ट ऑफ़ कैलाश में भी रहने की एक जुगत भिड़ाई लेकिन अब उस पंडी को कौन बताये कि उस पॉश एरिया की पण्डियाँ अँग्रेज़ी की पुस्तकें पढ़ती हैं और दिल्ली की गेस्ट पंडी तो ट्रेन और स्टेशन के नाम तक अँग्रेज़ी में नहीं पढ़ पाती। भले ही वो डोर टू डोर मार्केटिंग करती है, लेकिन यहाँ की सम्भावित पण्डियों ने उसे घास नहीं डाली। वो दिल्ली की साहित्यिक पण्डे-पण्डियों की संगत में रहना चाहती हैं। अंत में फरीदाबाद की एक पंडी ने उसे पनाह दी लेकिन इस शर्त पर कि इंदौर की पंडी, फरीदाबाद की पंडी को इंदौर बुलाकर साहित्यरत्न टाइप की कोई उपाधि या सम्मान देगी। सौदा पाँच हज़ार में पटा कि फरीदाबाद की पंडी, इंदौर की पंडी और उनके पति को घर में रहने भी देगी और पाँच हज़ार रुपये भी देगी; बस उसे साहित्य रत्न की उपाधि मिल जाये किसी तरह; क्योंकि अभी तक उसके साहित्य की खिल्ली ही उड़ाई गई थी। गेस्ट पंडी के पति को रहने का ठिकाना मिला तो इस सर्दी में तो उनकी जान में जान आई। बड़े बेबस थे गेस्ट पंडी के पति, क्या करें बेचारे! उधर दोनों पण्डियाँ इस म्यूच्यूअल रिश्ते पर निहाल थीं, वो दोनों सुर में सुर मिलाकर गाने लगीं –

नारि बिबस नर सकल गुंसाई
नाचहिं नर मर्कट की नाई

जित्थे देख्या तवा परात
उत्थे नच्या सारी रात

फरीदाबाद की पंडी के पति जो एक भद्र पुरुष थे उन्होंने गेस्ट पंडी से पूछा, “आपके दिल्ली आने की वज़ह क्या है, बुक स्टाल तो हर जगह है, किताबें ऑनलाइन भी मिल जाती हैं, फिर सिर्फ़ किताब ख़रीदने के लिये दिल्ली आने की क्या तुक थी?”

गेस्ट पंडी ने गर्व से कहा, “जी सिर्फ़ किताब ख़रीदने-बेचने की बात नहीं है, वो तो मैं इंदौर में अपनी किटी पार्टियों में भी बेच लेती हूँ। यहाँ तो मैं एक विधा के उद्धार हेतु आयी हूँ जो यमुना में डूब गई थी। उसे मैं पाताल से निकालकर पुनः गौरान्वित हो जाऊँगी। वो विधा है लघुकथा।”

भद्र पुरुष ने इंदौरी के पति को देखते हुए पूछा, “लघुकथा, वो... वो क्या होती है?”

गेस्ट पंडी ने होस्ट पंडी की तरफ़ पहले अचरज फिर क्रोध से देखते हुए अंततः उसके पति से कहा, “मेरा पति अगर लघुकथा के बारे में ना जानता तो उसकी ऐसी की तैसी कर देती मैं। जो लघुकथा ना जाने उसका जीवन व्यर्थ है फिर भी सुनिये जब पच्चीस लोग बतकुच्चन करके सात-आठ लाईन की रचना निकालें तो उसे लघुकथा कहते हैं। ये मोह माया से मुक्त करती है, मुझे देखिये कुछ वर्ष पहले पाई-पाई को मोहताज थी। आज लघुकथा की बदौलत मेरे पास बैंक में लॉकर तक हो गया है और पंडीगिरी का इतना बड़ा नेटवर्क है कि पूछिये मत!”

भद्र पुरुष पुलक उठे कि उनकी पत्नी ने सही व्यापारिक भागीदार चुना है।

गेस्ट पंडी भी मुस्कराई, वो जानती थी कि दिल्ली पण्डे-पण्डियों से भरी पड़ी है और दिल्ली के बाहर का हर साहित्यिक पंडा ये समझता है कि वो दिल्ली में होता तो पुस्तक मेले में चार चाँद लग जाता; भले ही वो अपनी गली में अमावस के चाँद की मानिंद गुम रहती हो।

गेस्ट पंडी ने अपने पति के साथ पुस्तक मेले में प्रवेश किया एक बहुत बड़े झोले के साथ। वैसे तो वो ग्राहक दिखती थीं लेकिन मौक़ा मिलते ही झोले से निकालकर अपनी पुस्तक भी बेच लेती, वो भी बिना स्टाल के। जबकि पुस्तक मेले में कई दुकानदार स्टाल का शुल्क चुकाकर मक्खी मार रहे थे और गेस्ट पंडी चलते-चलते किताब भी बेच लेती और मेहँदी के पैकेट भी। गेस्ट पंडी एक कस्टमर द्वारा किताब ख़रीदने से इनकार करने के बाद उसे मेहँदी ख़रीदने के लिये कन्विन्स कर रही थी एक बलखाती हुई रमणी नागिन वाली बिंदी लगाए हुए पहुँची और इतराते हुए गेस्ट पंडी से कहा, “मैम, व्हेर इज़ योर स्टाल? वी डु ऑफ़र ऑन आल टाइप ऑफ ब्यूटी प्रॉडक्ट्स एंड सर्विसेज। व्हाट डू यू वांट?”

गेस्ट पंडी अँग्रेज़ी सुनकर हक्का-बक्का हो गई। रमणी समझ गयी कि इसे अँग्रेज़ी नहीं आती। वो गेस्ट पंडी का मज़ाक उड़ाते हुए बोली, “हम सिर्फ़ ब्यूटी की बुक्स सेल नहीं करते बल्कि पुस्तक मेले में लोगों को सजाते-सँवारते हैं। पूरी गारंटी है लोकार्पण से पहले मेकअप नहीं उतरेगा और सेल्फ़ी में चेहरे के दाग़-धब्बे नहीं दिखेंगे। इवन जेंट्स भी हमारी सर्विसेज ले रहे हैं। बाई द वे आप क्या बेचते हो?”

गेस्ट पंडी हकलाते हुए बोली, “मेहँदी, नहीं, नहीं किताब, साझा संकलन।”

रमणी ने नागिन की तरह जीभ लपलपाकर कहा, “ब्लडी हेल, हु केयर्स, बट लिसेन, अगर तुम्हारी किताब ना बिक रही हो तो हमसे मेकअप करवा लो हम शुभ हैं।”

गेस्ट पंडी ने कहा, “मगर पहले तुम हमसे मेहँदी ख़रीद लो तुम्हारी ब्यूटी वाला काम चल जाएगा, हम भी शुभ हैं।”

फिर गेस्ट पंडी ने होस्ट पंडी से बिक्री के गुर सीखने-सिखाने शुरू कर दिए, तब तक हाँफते हुए गेस्ट पंडी के पति पहुँचे और छूटते ही बोले, “मैंने मेले का पूरा चक्कर लगाकर हर दुकान से एक कैटेलॉग, एक ब्रोशर ले लिया है। इसे बाहर बेचकर हमारा पुस्तक मेले का टिकट-भाड़ा और फरीदाबाद तक का किराया निकल जायेगा और बाहर इसे छोले वाले को देंगे तो नाश्ता भी फ़्री मिल जाएगा।”

ये सुनकर होस्ट पंडी हँस पड़ी और गेस्ट पंडी की शक्ल अब देखने लायक़ थी। वो पैर पटकते हुए वहाँ से चल दीं, नेपथ्य में कहीं अमिताभ का गाना बज रहा था, “मेरे अँगने में तुम्हारा क्या काम है”?

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