मिरगी

दीपक शर्मा (अंक: 159, जुलाई प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

उस निजी अस्पताल के न्यूरोलॉजी विभाग का चार्ज लेने के कुछ ही दिनों बाद कुन्ती का केस मेरे पास आया था।

“यह पर्ची यहीं के एक वार्ड बॉय की भतीजी की है, मैम,” उस दिन की ओपीडी पर मेरे संग बैठे मेरे जूनियर ने एक नयी पर्ची मेरे सामने रखते हुए कहा।

“कैसा केस है?” मैंने पूछा।

“वार्ड बॉय मिरगी बता रहा है। लड़की साथ लेकर आया है.....”

“ठीक है। बुलवाओ उसे.....”

वार्ड बॉय ने अस्पताल की वर्दी के साथ अपने नाम का बिल्ला पहन रखा था : अवधेश प्रसाद और पर्ची कुन्ती का नाम लिए थी।

“कुन्ती?” मैंने लड़की को निहारा। वह बहुत दुबली थी। एकदम सींकिया। “क्या उम्र है?”

“चौदह," उसने मरियल आवाज में जवाब दिया।

“कहीं पढ़ती हो?” मैंने पूछा।

“पहले पढ़ती थी, जब माँ थी, अब नहीं पढ़ती," उसने चाचा को उलाहना भरी निगाह से देखा।

“माँ नहीं है?” मैंने अवधेश प्रसाद से पूछा।

“नहीं, डॉ. साहिबा। उसे भी मिरगी रही। उसी में एक दौरे के दौरान उसकी साँस जो थमी तो, फिर लौटकर नहीं आयी.....”

“और कुन्ती के पिता?”

“पत्नी के गुजरने के बाद फिर वह सधुवा लिए। अब कोई पता-ठिकाना नहीं रखते। कुन्ती की देखभाल अब हमारे ही जिम्मे है.....”

“कब से?”

“चार-पाँच माह तो हो ही गए हैं.....”

“तुम्हें अपनी माँ याद है?” मैं कुन्ती की ओर मुड़ ली।

“हाँ.....” उसने सिर हिलाया।

“उन पर जब मिरगी हमला बोलती थी तो वह क्या करती थीं?”

कुन्ती एकदम हरकत में आ गयी मानो बंद पड़े किसी खिलौने में चाबी भर दी गयी हो।
तत्क्षण वह ज़मीन पर जा लेटी। होंठ चटकाए, हाथ-पैर पसारे, सिकोड़े, फिर पसारे और इस बार पसारते समय अपनी पीठ भी मोड़ ली, फिर पहले छाती की माँसपेशियाँ सिकोड़ीं और एक तेज़ कंपकंपी के साथ अपने हाथ-पैर दोबारा सिकोड़ लिए, बारी-बारी से उन्हें फिर से पसारा, फिर से सिकोड़ा। बीच-बीच में कभी अपनी साँस भी रोकी और छोड़ी कभी अपनी ज़ुबान भी नोक से काटी तो कभी दाएँ-बाएँ से भी।

कुन्ती के मन-मस्तिष्क ने अपनी माँ की स्मृति के जिस संचयन को थाम रखा था उसका मुख्यांश अवश्य ही उस माँ की यही मिरगी रही होगी, जभी तो ‘टॉनिक-क्लौनिक-सीज़ियर’ के सभी चरण वह इतनी प्रामाणिकता के साथ दोहरा रही थी!

“तुम कुछ भी भूली नहीं?” मैंने कहा।

“नहीं," वह तत्काल उठ खड़ी हुई और अपने पुराने दुबके-सिकुड़े रूप में लौट आयी।

“और तुम्हारी माँ भी इसी तरह दौरे से एकदम बाहर आ जाया करती थीं?” मैंने उसकी माँ की मिरगी की गहराई नापनी चाही क्योंकि मिरगी के किसी भी गम्भीर रोगी को सामान्य होने में दस से तीस मिनट लगते ही लगते हैं।

उत्तर देने की बजाय वह रोने लगी।

“उसका तो पता नहीं, डॉक्टर साहिबा, मगर कुन्ती जरूर जोर से बुलाने पर या झकझोरने पर उठकर बैठ जाती है," अवधेश प्रसाद ने कहा।

“इस पर्ची पर मैं एक टेस्ट लिख रही हूँ, यह करवा लाओ," कुन्ती की पर्ची पर मैंने ई.ई.जी..... लिखते हुए अवधेश प्रसाद से कहा।

“नहीं, मुझे कोई टेस्ट नहीं करवाना है। टेस्ट से मुझे डर लगता है," कुन्ती काँपने लगी।

“तुम डरो नहीं," मैंने उसे ढाढ़स बँधाया, “यह ई.ई.जी. टेस्ट बहुत आसान टेस्ट है, ई.ई.जी. उस इलेक्ट्रो-इनसे-फैलोग्राम को कहते हैं जिसके द्वारा इलेक्ट्रो-एन-से-फैलोग्राफ नाम के एक यंत्र से दिमाग की नस कोशिकाओं द्वारा एक दूसरे को भेजी जा रही तरंगें रिकॉर्ड की जाती हैं। अगर हमें यह तरंगें बढ़ी हुई मिलेंगी तो हम तुम्हें दवा देंगे और तुम ठीक हो जाओगी, अपनी पढ़ाई फिर से शुरू कर सकोगी.....”

“नहीं," वह अड़ गयी और ज़मीन पर दोबारा जा लेटी। अपनी माँसपेशियों में दोबारा ऐंठन और फड़क लाती हुई।

“बहुत जिद्दी लड़की है, डॉक्टर साहिबा," अवधेश प्रसाद ने कहा, “हमीं जानते हैं इसने हम सभी को कितना परेशान कर रखा है.....”

“आप सभी कौन?” मुझे अवधेश प्रसाद के साथ सहानुभूति हुई।

“घर पर पूरा परिवार है। पत्नी है, दो बेटे हैं, तीन बेटियाँ हैं। सभी का भार मेरे ही कंधों पर है.....”

“आप घबराओ नहीं। अपने वार्ड में अपनी ड्यूटी पर जाओ और कुन्ती को मेरे सुपुर्द कर जाओ। इसके टेस्ट्स का ज़िम्मा मैं लेती हूँ।"

कुन्ती का केस मुझे दिलचस्प लगा था और उसे मैं अपनी नयी किताब में रखना चाहती थी।

“आप बहुत दयालु हैं, डॉक्टर साहिबा," अवधेश प्रसाद ने अपने हाथ जोड़ दिये।

“तुम निश्चिन्त रहो। जरूरत पड़ी तो मैं इसे अपने वार्ड में दाखिल भी करवा दूँगी," मैंने उसे दिलासा दिया और अपने जूनियर डॉक्टर के हाथ में कुन्ती की पर्ची थमा दी।

कुन्ती का ई.ई.जी. एकदम सामान्य रहा जबकि मिरगी के रोगियों के दिमाग की नस-कोशिकाओं की तरंगों में अतिवृद्धि आ जाने ही के कारण उनकी माँसपेशियाँ ऐंठकर उसे भटकाने लगती हैं और रोगी अपने शरीर पर अपना अधिकार खो बैठता है।

ई.ई.जी. के बाद हमने उसकी एम.आर.आई और कैट स्कैन से लेकर सी.एस.एफ, सेरिब्रल स्पाइनल फ्लुइड और ब्लड टेस्ट तक करवा डाले किन्तु सभी रिपोर्टें एक ही परिणाम सामने लायीं-कुन्ती का दिमाग़ सही चल रहा था। कहीं कोई ख़राबी नहीं थी।

मगर कहीं कोई गुप्त छाया थी जरूर जो कुन्ती को अवधेश प्रसाद एवं उसके परिवार की बोझिल दुनिया से निकल भागने हेतु मिरगी के इस स्वांग को रचने-रचाने का रास्ता दिखाए थी।
उस छाया तक पहुँचना था मुझे।

“तुम्हारी माँ क्या तुम्हारे सामने मरी थीं?” अवसर मिलते ही मैंने कुन्ती को अस्पताल के अपने निजी कक्ष में बुलवा भेजा।

“हाँ," वह रुआँसी हो चली।

“तुम्हारे पिता भी वहीं थे?”

“हाँ।"

“मिरगी का दौरा उन्हें अचानक पड़ा?” मैं जानती थी मिरगी के चिरकालिक रोगी को अक़्सर दौरे का पूर्वाभास हो जाया करता है, जिसे हम डॉक्टर लोग ‘औरा’ कहा करते हैं। हालाँकि एक सच यह भी है कि भावोत्तेजक तनाव दौरे को बिना किसी चेतावनी के भी ला सकता है।

“हाँ.....” उसने अपना सिर फिर हिला दिया।

“किस बात पर?”

“बप्पा उस दिन माँ की रिपोर्टें लाये थे और वे उन्हें सही बता रहे थे और माँ उन्हें झूठी.....”

“रिपोर्टें मिरगी के टेस्ट्स की थीं? और उनमें मिरगी के लक्षण नहीं पाए गए थे?”

“हाँ," वह फफककर रो पड़ी।

“और उन्हें झूठी साबित करने के लिए तुम्हारी माँ ने मिरगी का दौरा सचमुच बुला लिया था?”

कुन्ती की रुलाई ने ज़ोर पकड़ लिया।

अपनी मेज़ की घंटी बजाकर मैंने कुन्ती के लिए एक ठंडा पेय अपने कक्ष के फ़्रिज से निकलवाया, उसे पेश करने के लिए।

उससे आगे कुछ भी पूछना उसके आघात का उपभोग करने के बराबर रहता।

“कुन्ती के बारे में आप क्या कहेंगी, डॉक्टर साहिबा?” अवधेश प्रसाद मेरे पास अगले दिन आया।

“कुन्ती नहीं आयी?” मैंने पूछा।

“नहीं, डॉक्टर साहिबा। वह नहीं आयी। मिरगी के दौरे से गुज़र रही थी, सो उसे घर ही में आराम करने के लिए छोड़ आया.....”

“और अगर मैं यह कहूँ कि उसे मिरगी नहीं है तो तुम क्या कहोगे? क्या करोगे?”

“हम कुछ नहीं करेंगे, कुछ नहीं कहेंगे," हताश होकर वह अपने हाथ मलने लगा।

“हैरानी भी नहीं होगी क्या? भतीजी पर ग़ुस्सा भी न आएगा?”

“हैरानी तो तब होती जब हम उसकी माँ का क़िस्सा न जाने रहे होते,"

“माँ का क्या क़िस्सा था?” मैं उत्सुक हो आयी।

“उसे भी मिरगी नहीं थी। वह भी काम से बचने के लिए मिरगी की आड़ में चली जाती थी।"

“किस काम से बचना चाहती थी?”

“इधर कुछेक सालों से भाई के पास ढंग की कोई नौकरी नहीं थी और उसने भौजाई को पाँच-छह घरों के चौका-बरतन पकड़वा दिए थे, और भौजाई ठहरी मन मरजी की मालकिन। मन होता तो काम पर जाती, मन नहीं होता तो मिरगी डाल लेती.....”

“यह भी तो हो सकता है कि ज़्यादा काम पड़ जाने की वज़ह से उसका दिमाग़ सच ही में गड़बड़ा जाता हो, उलझ जाता हो और उसे सच ही में मिरगी आन दबोच लेती हो.....”

"यही मानकर ही तो भाई उस तंगहाली के रहते हुए भी भौजाई को डॉक्टर के पास लेकर गया था और डॉक्टर के बताए सभी टेस्ट भी करवा लाया था.....”

“और टेस्ट्स में मिरगी नहीं आयी थी?" कुन्ती के कथन का मैंने पुष्टिकरण चाहा।

“नहीं, नहीं आयी थी।"

“मगर तुमने तो मुझे आते ही कहा था मिरगी ही की वज़ह से तुम्हारी भौजाई की साँस रुक गयी थी.....”

“अब क्या बतावें? और क्या न बतावें? उधर भाई के हाथ में रिपोर्टें रहीं और इधर भौजाई ने स्वांग भर लिया। भाई गुस्सैल तो था ही, तिस पर एक बड़ी रकम के बरबाद हो जाने का कलेश। वह भौजाई पर टूट पड़ा और अपना घर-परिवार उजाड़ बैठा.....” अवधेश प्रसाद के चेहरे पर विषाद भी था और शोक भी।

“तुम्हारा दुख मैं समझ सकती हूँ," मैंने उसे सांत्वना दी।

“साथ ही कुन्ती का भी, बल्कि उसके दुख में तो माँ की मौत की सहम भी शामिल होगी। तभी तो वह आज भी सदमे में है और उसी सदमे और सहम के तहत वह माँ की मिरगी अपने शरीर में उतार लाती है। मेरी मानो तो तुम उसकी पढ़ाई फिर से शुरू करवा दो... स्कूल का वातावरण उसके मन के घाव पर मरहम का काम करेगा और जब घाव भरने लगेगा तो वह मिरगी विरगी सब भूल जाएगी...”

“मैं उसे स्कूल भेज तो दूँ मगर मेरी पत्नी मुझे परिवार के दूसरे खरचे न गिना डालेगी!” अवधेश प्रसाद ने मुझे विश्वास में लेते हुए कहा। उसका भरोसा जीतने में मैं सफल रही थी।

“उसकी चिन्ता तुम मुझ पर छोड़ दो। उसकी डॉक्टर होने के नाते उसके स्कूल का ख़र्चा तो मैं उठा ही सकती हूँ.....”
 

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