लोग सड़क पर

दिलीप कुमार (अंक: 148, जनवरी द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

"नानक नन्हे बने रहो, जैसे नन्ही दूब
बड़े बड़े बही जात हैं, दूब खूब की खूब"

श्री गुरुनानक देव जी की ये बात मनुष्यता को आईना दिखाने के लिये बहुत महत्वपूर्ण है। ननकाना साहब में जिस तरह गुरुद्वारे को घेर कर सिख श्रद्धालुओं पर पत्थरबाज़ी की गयी और एक कमज़र्फ ने धमकी दी कि वो सिखों के साथ ये करेगा, वो करेगा। नफ़रत से भरी भीड़ ने सड़क पर कब्ज़ा करके गुरुद्वारे पर हमला कर दिया। सिखों और उनके धर्म स्थान को ख़त्म करने की खुलेआम धमकी दी। अभी कुछ वक़्त पहले ही पाकिस्तान में एक शख़्स को ईशनिंदा क़ानून के तहत फाँसी दी गयी है। फिर पता नहीं क्यों, इमरान खान नियाजी के मुल्क में ईशनिंदा क़ानून भी चुनिंदा लोगों पर लागू होता है, ये बँटवारा इंसानों पर ही अभी तक लाज़िम था पाकिस्तान में, अब ख़ुदा पर भी हो गया है शायद। ऐसे ही मारे-पीटे सताए लोग जब भारत आते हैं और उनके आँसू पोंछने की क़वायद होती है, तो तमाम क़िस्म की दलीलें देकर कुछ लोग सड़कों पर आ जाते हैं। अभी तक अवैध बांग्लादेशी और रोहिंग्या हमारी सड़कों पर कहीं-कहीं पाये जाते थे, अब एलीट क्लास को भी सड़कों पर सम्भावनाएँ दिखने लगी हैं। लोग सड़क पर हैं कि फलां को भी अपनाओ, ढिमाका को क्यों छोड़ दिया। जान बचाकर भागकर आये लोगों और ज़बर्दस्ती घुस आए लोगों में फ़र्क होता है। लेकिन जो बेचारे शरणागत हुए हैं हमारे देश में उनका क्या? सड़कों पर डफली, डुगडुगी बजती रही और लोग चीखने में इस क़दर लोग मशग़ूल रहे कि देश की शिक्षा नगरी मानी जाने वाली और युवाओं की पसंदीदा पढ़ने का शहर, नौनिहालों की मौत से सिहर उठा। सैकड़ों मासूम बच्चों की आहें, कराहें उन लोगों के कानों तक नहीं पहुँच सकीं जो सड़कों पर चीख रहे थे। हर तबक़े के ग़रीब बच्चे मरे। कोई सनसनी नहीं बन सकी। क्योंकि ग़रीबी एक ऐसी बदक़िस्मत नेमत है, जिसे ख़ुदा ने बराबरी से हर जाति में बाँट रखा है। ग़रीब के बच्चे की चीख सड़कों के हल्ले-गुल्ले में दब गयी। वो बेबस बच्चे परलोक सिधार गये और यहाँ इहलोक में मीडिया की तवज्जो के तमाशे चलते रहे। सियासत की तवज्जो, सड़क की सरगर्मी थी सो हस्पताल का सर्दी पर किसी का ध्यान ही नहीं गया कि बीमार बच्चों को सर्दी से बचाने के लिए हीटर, जनरेटर की भी ज़रूरत पड़ती है हस्पतालों को। क्योंकि जितनी सर्दी सड़कों पर थी उतनी ही सर्दी हस्पतालों में थी, लेकिन बीमार नौनिहाल उतनी सर्दी झेल नहीं सके। देश सिर्फ़ एक्ट और क़ानून ही नहीं होता बल्कि असली देश तो ये बच्चे थे जिन्हें कोई सिर्फ़ सौ बच्चों की मौत कहकर पल्ला झाड़ रहा है, क्योंकि उनके आंकड़े कह कह रहे हैं कि पहले हज़ारों मरते थे, अब सिर्फ़ सैकड़ों ही मरे हैं - 

क्या कहना, सदके जांवा आप पर, कविवर अदम गोंडवी के शब्दों में

"तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है"

डफलियाँ, डुगडुगियाँ, कूल डूड और डूडनियाँ राजधानियों की चौड़ी सड़कों पर मीडिया वैन देखकर ही उद्वेलित होने वाली संवेदनाएँ क्या सिर्फ़ लाइमलाइट तक महदूद रहेंगी, ये सवाल बहुतों के जेहन में है। सड़कों पर हुड़दंग, आगजनी, करने वाले लोगों के लिए कुछ लोगों की संवेदना इतनी उबाल मार रही थी कि कि भारत वर्तमान को उकसा कर सड़कों पर ला दिया, और देश का भविष्य अस्पतालों में दम तोड़ गया क्योंकि सर्दी में अस्पतालों और सड़कों का फ़र्क मिट गया। देश के तमाम युवाओं की टोली नकारात्मक ऊर्जा से सड़कों पर जूझ रही थी, तो दूसरी तरफ़ देश के कुछ नौनिहाल सर्दी और बीमारी से जूझ रहे थे, और ज़िन्दगी की जंग हारते जा रहे थे। उन नौनिहालों के परिवारों की टीस, दर्द, पीड़ा कोई सुनने वाला नहीं था

"चीख निकली तो है, होंठों से मगर मद्धम है, 
बन्द कमरों को नहीं सुनाई जाने वाली।"

जेरे बहस ये है कि चंदा लगाकर अगर दंगाइयों और उपद्रवियों का सरकारी ज़ुर्माना भरा जा सकता है तो क्या इन बच्चों को बचाने का दायित्व उनका भी हो सकता है जो दर ब दर चंदा माँग रहे हैं भटके और मासूम लोगों का ज़ुर्माना भरने के लिए। बच्चे और बच्चे का फ़र्क देखकर लोग हैरान हैं -

"तुम अभी शहर में क्या नये आये हो
रुक गए राह में हादसा देखकर"

बन्द कमरों में सियासी मीटिंगें और प्रदर्शन के तौर-तरीक़े डिसकस हो रहे हैं आजकल ना कि नौनिहालों को बचाने का उपाय। बन्द कमरे में पैकेज, पारितोषिक की चर्चा-परिचर्चा होती है, फिर लोग सड़कों पर प्रोटेस्ट करने निकल पड़ते हैं. . . किसका प्रोटेस्ट, कैसा प्रोटेस्ट. . .? सड़कों वाले लोग इन मुद्दों से नहीं जूझते हैं, उनको तो बस, पथराव, आगजनी, और चीखों से आसमान सर पे उठा लेना है। वो चीखें तो संवैधानिक हक़, संविधान के प्रहरी कुछ कहें तो उनको ज़ुल्म नज़र आता है। सड़कों पर ही इंस्टेंट मेकअप हो जाते हैं, दुनिया भर में पेरिस, हांगकांग, के प्रोटेस्ट के फ़ैंसी स्लोगन, ट्रेन्डिंग ड्रेस को फ़ॉलो किया जा रहा है कि जिससे प्रोटेस्ट थोड़ा स्टाइलिस्ट और ट्रेंडी बन सके। कम्पनियाँ प्रोटेस्ट जैकेट, प्रोटेस्ट स्कार्फ़ जैसे उत्पाद बेचने लगी हैं जो कि धड़ाधड़ बिक रहे हैं। योग सिखाने वाले लोगों की दुकान चल निकली है कि ख़ूब देर तक चीखने-चिल्लाने का नारा कैसे लगाएँ। ड्राई फ़्रूट भी महँगे हो गए क्योंकि सुबह-सुबह लोग ख़ूब ड्राई फ़्रूट खाकर प्रोटेस्ट करने जाते हैं ताकि स्टैमिना बना रहे। सड़कों पर पहले लोग एक बिल्ला लगाये घूमते थे जिसमें लिखा रहता था "आस्क फ़ॉर वेट लॉस"। अब बाज़ार विशेषज्ञों ने अपने एग्ज़ीक्यूटिव बाज़ार में उतार दिए हैं जो बिल्ला लगा कर घूमते हैं कि "आस्क फ़ॉर बेटर प्रोटेस्ट ट्रेंड्स"। कंपनियाँ क्रैश कोर्स ऑफ़र कर रही हैं कि प्रोटेस्ट से आपके जीवन में नई क़ामयाबी लाएँ। इस शार्ट टर्म कोर्स में बताया जाता है कि क्या खाकर, क्या पहन कर प्रोटेस्ट करने जाएँ। मेकअप पूरा करें, मुँह खोलें कम, हिलाएँ ज़्यादा, मेकअप किट साथ रखें, थोड़ा उस प्रोटेस्ट के बारे में पढ़कर जाएँ, संविधान के दो चार ज़रूरी उपबंधों को याद रखें क्योंकि जब रिपोर्टर के प्रश्न समझ में ना आएँ तो "संविधान ख़तरे में है" कहकर रिपोर्टर के सामने उन उपबंधों का हवाला दे दें। रिपोर्टर के सामने बाइट देते हुए कितना मुँह खोलें, वरना चेहरे की पीओपी बिगड़ी हुइ आएगी। क्लीन शेव और नहाए धोये लड़के हर्गिज़ नजर ना आएँ, हजामत चार-छह दिन पुरानी हो और बालों में हेयर जेल का प्रयोग बिलकुल ना करें, बाल बिखरे हों तो सो फ़ॉर सो गुड। पंप शूज़ पहनें, और मोटी जैकेट भी ताकि लाठी चार्ज हो तो भागने में आसानी हो। फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम की फोटो ख़ुद ना खींचे बल्कि एक दूसरे की खींचे और एक दूसरे की वाल पर शेयर करें, सोशल मीडिया की फोटो के साथ क्रांति के गीतों की कैप्शन और इंक़लाब से जुड़ी शायरियाँ ज़रूर लिखें। अपने साथ पट्टी और हैंडीप्लास्ट ज़रूर रखें और कुछ प्रोटेस्ट में लगाकर जाएँ, बाक़ी प्रोटेस्ट ख़त्म होने के बाद लगाएँ। डफली, डुगडुगी बजाने की दोनों हाथों से प्रैक्टिस कर लें। कैमरा आसपास ना हो तो पुलिस वालों से बहुत शालीनता से "सर और अंकल जी कहकर बात करें, उन्हें बता भी दें कि जब कैमरा आयेगा तो आप चीख कर उनसे उलझ पड़ेंगे बाइट के लिए। इसके लिए उनसे बता भी दें और एडवांस में माफ़ी भी माँग लें। अपने रिज़्यूमे में ज़रूर लिखें कि आपने कितने प्रोटेस्ट किये हैं, कितनी डफली बजायी है, इससे नौकरी और तरक्क़ी की संभावना बढ़ जायेगी। देशद्रोह का मुक़दमा झेल रहे एक ओवरएज युवक को तो इसी के बदौलत लोकसभा का टिकट और नौकरी भी मिल चुकी है। अब हमारे टॉप संस्थानों से सिर्फ़ देश निर्माण का सपना लिए युवा नहीं निकलेंगे, बल्कि वो डफल-डुगडुगी से देश को जगायेंगे। बांध और फ़्लाईओवर तो वे हमेशा से बनाते ही आये हैं अब अपने अपने शहरों में लौट कर बताएँगे कि प्रशासन को बेबस कैसे किया जा सकता है? लड़के-लड़कियों ने मम्मी पापा को बता दिया है कि वो कॉलेज बन्द होने के बावजूद सड़कों पर इसलिये डटे हैं क्योंकि इस बार के कैम्पस प्लेसमेंट सड़कों पर ही होंगे। कोई किसी राजनैतिक दल के आईटी सेल में जाएगा तो कोई प्रवक्ता बनेगा और पैकेज क्या होगा. . .? "बेस्ट इन द इंडस्ट्री"। माँ-बाप समझा दिए गए हैं कि इकोनॉमी की हालत बुरी है, अब नौकरी सड़कों पर ही बहादुरी दिखाने से मिलेगी। मीडिया इंडस्ट्री में रोज़गार की बहार है वरना देश के टॉप संस्थानों में सब्सिडी पर पढ़ रहे टॉप इंजीनियर सड़कों पर डफली-डुगडुगी लिए ना खड़े होते। ये वही लोग हैं जो देश के संस्थानों में भारी सब्सिडी लेकर पढ़ाई पूरी करते ही विदेशों की इकोनॉमी सँवारने चले जाते हैं। लोग सड़कों पर हैं तो सड़कों और फ़ुटपाथों पर रहने सोने वाले लोग कहाँ जाएँ?

वे लोग परेशान हैं कि सड़कों का शौक़ लोगों का ख़त्म हो तो वे फुटपाथ पर अपनी रोज़ी-रोटी चला सकें। उन्हें क्रांति के नारे नहीं जँचते क्योंकि अपना रोज़गार ना कर पाने की वजह से वे भूखे हैं इस सब में - 
"ना कुछ देखा राम भजन में, ना कुछ देखा पोथी में
कहत कबीर सुनो भाई साधो, जो देखा दो रोटी में"

. . .सवाल तो लाज़िम है, फिर भी लोग सड़क पर हैं। 


 

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