अप्रत्याशित

01-02-2015

अप्रत्याशित

सुभाष चन्द्र लखेड़ा

मुझे एक ज़रूरी बैठक में भाग लेने हेतु शताब्दी एक्सप्रेस से देहरादून जाना था। यह गाड़ी दिल्ली से सुबह 6:50 पर चलती है और दोपहर 12:40 बजे देहरादून पहुँचती है। बैठक उसी दिन 2 बजे थी, इसलिए मैं निश्चिंत था कि मैं सही समय पर पहुँच जाऊँगा। मैंने एक टैक्सी स्टैंड से यही कोई सुबह साढ़े पाँच बजे टैक्सी भेजने को कहा और देहरादून के अपने कार्यक्रम को पूरी तौर से सुनिश्चित कर लिया था। बहरहाल, जब नियत समय पर टैक्सी नहीं आई तो मैंने यही कोई पौने छह बजे टैक्सी स्टैंड से पूछताछ की। वहाँ से मालूम हुआ कि कोई नरेश नामक ड्राइवर कुछ ही देर में मेरे पास पहुँच जाएगा। सवा छह बज गए तो तब भी नरेश न पहुँचा। फिर गुस्से में फोन किया तो मालूम हुआ कि नरेश को तो अब तक पहुँच जाना चाहिए था। घड़ी पर नज़र गई तो 6:25 बज रहे थे। अब देहरादून जाने का सवाल ही नहीं था। टैक्सी स्टैंड वालों को गालियाँ देते हुए मैंने निश्चय किया कि मैं इस मामले को उपभोक्ता अदालत तक ले जाऊँगा और अपना पूरा हर्जाना वसूल करके रहूँगा। इस बीच दो - तीन मित्रों से भी बात की तो वे भी टैक्सी स्टैंड वालों के ऐसे ही किस्से सुनाने लगे। खैर, सात बजे मुझे टैक्सी स्टैंड से जो फोन आया, उसने इस पूरे मामले को ही बदल दिया। पता चला कि जब नरेश गाड़ी लेकर मेरे घर आ रहा था तो वह एक तेज़ रफ़्तार ट्रक की चपेट में आ गया और अब वह बेहोशी की हालत में अस्पताल में है। अगले ही क्षण मैं भगवान से नरेश की सलामती के लिए प्रार्थना कर रहा था।

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