क्वार्टर नम्बर तेईस
दीपक शर्मामाँ और तीनों बहनों की हँसी अशोक ने बाहर से ही सुन ली। हमेशा की तरह इस बार भी हँसी उसे अचरज तथा रोष से भर गयी।
रेल गाड़ियों के धुएँ और धमाके के हर दूसरे पल पर डोल रहे इस क्वार्टर नंबर तेइस में रह कर भी भला कोई हँस सकता था? पैसे के बढ़ रहे दख़ल के कारण हर दूसरे क़दम पर पैसे की तंगी से लाचार रहने के बावजूद कैसे हँस लेती थीं बहनें और माँ?
रेलवे पार्सल बुक कराने के लिए जिस खिड़की पर लोग अशोक से पर्ची बनवाने आते वहाँ उसे बीस साल की इस उम्र में दिन-भर ड्यूटी बजाना नरक में साँस लेने से किसी तरह भी कम न लगता। तेज़ बदबू और उससे भी तेज़ शोर उसे हरदम परेशान किए रहता। अशोक का बस चलता तो वह अपनी ज़िन्दगी किसी पुस्तकालय की नौकरी में बिताता जहाँ काम चाहे जितना भी रहता, मगर आसपास शान्ति तो बनी ही रहती या फिर वह किसी ऐसे स्टेशन की टिकट-खिड़की का भार सँभालता जो पहाड़ों पर किसी वीराने में बसा रहता और जहाँ दिन में केवल एक ही गाड़ी आती और अधिकांश समय सन्नाटा छाया रहता।
मगर इन्टरमीडिएट पास करवाते ही रेलवे में गार्ड पिता ने अशोक से बिना पूछे उसे इस खिड़की पर बैठाने का पक्का इन्तज़ाम कर दिया था। जो क्वार्टर पिता के नाम से इस प्रमुख रेलवे स्टेशन के बाजू में परिवार को मिला था, वह अब पिता के रिटायर होने से पहले ही अशोक के नाम लगवाना ज़रूरी हो गया था।
पिता ने अपनी पूरी ज़िन्दगी परिवार के नाम पर गुज़ारी थी और वह सोचते थे उनके एकमात्र पुत्र अशोक की ज़िन्दगी भी अब परिवार के नाम ही थी। पुत्र की ज़िन्दगी पर उनका पूरा अधिकार था और वे जैसा चाहें पुत्र की ज़िन्दगी अपने तरीक़े से ज़रूर बरत सकते थे।
रिटायर होने के तुरन्त बाद वे ख़ुद ६ नम्बर प्लेटफ़ॉर्म पर चाय का ठेला लगाने लगे थे। अशोक कई बार ६ नम्बर प्लेटफ़ॉर्म पर पिता की ओर लपक कर पहुँचना चाहता, उनका हाथ बँटाना चाहता, उनकी झुकी कमर का दर्द अपनी कमर में बटोर लेना चाहता। मोतियाबिन्द से धुँधला रही उनकी आँखों में अपनी नेत्र-ज्योति प्रज्ज्वलित करना चाहता। उनके घुटनों की ऐंठन अपने घुटनों में समेट लेना चाहता पर हर बार एक तेज़ रुलाई उसे जकड़ लेती और वह भारी क़दमों से अपनी खिड़की पर आ बैठता। वहाँ की सड़ांध उसके नथुनों में फिर ज़हर भरने लगती वहाँ की भीड़ उसके दिलो-दिमाग पर फिर हथौड़े चलाती और उसकी रुलाई उससे दूर छिटक लेती, रह जाती सिर्फ़ ढेर सी झल्लाहट, घबराहट और हड़बड़ी। पर्ची काटते समय उसे हर बार लगता उसने किसी से पैसे कम लिए हैं या उसने किसी पार्सल पर ग़लत मोहर लगा दी है। दिन में बीसियों ही रसीदें काटता फिर भी हिसाब बार-बार जोड़ता। दसेक लोगों से तो रोज़ झाँव-झाँव भी हो जाती और फिर भी मोहर हर बार ठीक-ठाक ही लगती, गड़बड़ाती नहीं।
“बाबूजी क्या अभी तक लौटे नहीं?” शाम को अशोक जब भी घर लौटता पहले पिता को घर में टटोलता। अगर कहीं वे घर पर न रहते तो अजीब सी छटपटाहट महसूस करता। पहले भी जब-जब पिता ड्यूटी पर शहर से बाहर रहते अशोक रेलवे स्टेशन पर रोज़ अख़बार देखने जाता। कहीं कोई रेल-दुर्घटना तो नहीं हो गयी, कहीं ऐसा तो नहीं कि अबकी बार के गए पिता वापस ही न लौट पाएँ, पर हर बार पिता लौट आते रहे- पहले से कहीं ज़्यादा थके-चुके। रेलगाड़ी में लगातार बैठे रहने की वज़ह से पिता अकसर उसे डोलते से दिखाई देते। वह उन्हें बढ़ कर सहारा देना चाहता, उन्हें स्थावर अवस्था में देखना चाहता, इन रेलगाड़ियों की गति और ध्वनि से उन्हें बहुत दूर किसी सन्नाटे में ले जाना चाहता, पर फिर वह कुछ भी तो न कर पाता। केवल देर तक चुपचाप पिता के दाएँ-बाएँ बना रहता और पसीने तथा रेल के कोयले की जिस मिली-जुली गन्ध में पिता लिपटे रहते वह उस गन्ध को अपने नथुनों में भर कर एक अजीब सा उद्वेलन अपने भीतर घुमड़ने देता।
“बाज़ार सब्ज़ी लेने गए हैं, अभी आ जाएँगे,” अशोक का स्वागत बड़ी बहन हमेशा अनूठे ठाठ से करती। जैसे ही अशोक घर में दाख़िल होता, बड़ी बहन सब काम छोड़ कर लम्बे डग भरती हुई हमेशा उसके निकट आन खड़ी होती। मुँह से तो तभी बोलती जब अशोक उससे कुछ पूछता पर अपनी आँखों की चमक और होठों के स्मित से उस पर अपना लाड़ उड़ेलना कभी न भूलती।
“आज मैंने हलवा बनाया था,” माँ एक बड़ी तश्तरी उठा लायी। पैसे कितने भी कम क्यों न रहते माँ हर त्यौहार, हर तीज व्रत को उत्सव मना कर ही मानतीं।
“आज कौन त्यौहार रहा?” हलवा अशोक को बहुत पसन्द था और वह जानता था माँ और बहनों ने इसे केवल चखा ही होगा और फिर दो तश्तरियों में तक़सीम कर दिया होगा- छोटी तश्तरी पिता के लिए रखी होगी और बड़ी उसके लिए।
“आज जीजी को नौकरी मिली है,” मँझली और छोटी एक साथ चिल्लायी। दोनों अक्सर एक साथ ही बात बोलतीं, एक ही बात पर हँसतीं, एक ही बात पर रोतीं।
“कहाँ?” अशोक आगे बढ़ कर बैठ लिया। हथेली पर टिकायी तश्तरी उसने अपनी गोद में रख ली। हर नयी अथवा बदली परिस्थिति उसे बुरी तरह से उत्तेजित अथवा आन्दोलित कर डालती।
“यहीं अपने ही रेलवे स्टेशन पर,” मँझली बहुत ख़ुश थी।
“एक नम्बर प्लेटफ़ॉर्म पर, जहाँ घोषणाएँ की जाती हैं,” छोटी ने उत्साह से जोड़ा।
“वहाँ अनाउन्सर की जगह तीन महीने के लिए ख़ाली थी सो वह जगह मुझे मिल गयी,” बड़ी बहन हँसने लगी।
“बी.ए. मैं तुम्हारी फर्स्ट डिवीज़न आयी है।” अशोक की बेचैनी बढ़ी ही, घटी नहीं, “तुम्हें अब बी.एड. करना चाहिए। पढ़ाने की नौकरी रेलवे की शोर-गुल वाली नौकरी से कहीं बेहतर रहेगी।”
“तुम्हारे भीतर पढ़ाई के लिए जो ललक है वह मुझ में नहीं।” बड़ी बहन ने अपना हाथ अशोक के कंधे पर धर दिया, “जिसे तुम हल्ला-गुल्ला कहते हो, मुझे तो वहाँ रौनक़ दिखाई देती है। फिर मेरी कुर्सी तो अलग-थलग रहेगी, स्टेशन मास्टर के दफ़्तर के ऐन सामने। वहाँ तो हरदम पुलिस की ड्यूटी भी लगी रहती है।”
“जीजी की तनख्वाह आप से ज़्यादा रहेगी,” छोटी ने कहा।
“जीजी कहती हैं वह सबसे पहले घर में परदे लगाएँगी,” मँझली ने छोटी की बात आगे चलायी।
“फिर चीनी के नए बरतन लेंगी..…”
“जीजी कहती हैं भाई को रेलवे की नौकरी मिल ज़रा भी पसन्द नहीं..…”
“भाई तो किसी लाइब्रेरी में काम करना चाहते हैं..…”
“जीजी को जब रेलवे में पक्की नौकरी मिल जाएगी तो वह यह क्वार्टर भी अपने नाम करवा लेंगी..…”
“ताकि भाई रेलवे की नौकरी छोड़ कर कालिज में दाख़िला ले सके..…”
एक दूसरे की बात आगे बढ़ाती हुई दोनों भूल रही थीं अशोक ने इस बीच बड़ी बहन का हाथ अपने कंधे से परे झटक दिया था और वह ग़ुस्से से काँपने लगा था।
“चुप कर जाओ।” बड़ी बहन ने स्थिति सँभाल लेनी चाही। “बाद में बात करेंगे।”
“बाद में क्योंऽ,” आग-बबूला हो रहे अशोक ने हलवे की भरी तश्तरी ज़मीन पर दे मारी।
“अभी क्यों न तुम लोगों को बताऊँ कि तुम तीनों अव्वल दर्जे की अहमक हो। पूछता हूँ तुम से मेरे लिए योजनाएँ बनाने का अधिकार तुम्हें किसने दिया? मैं मर्द हूँ, आज़ाद हूँ। किसी का मोहताज नहीं। मेरे पास अपने हाथ-पैर हैं, अपना दिमाग है। मैं जो करना चाहूँगा अपने बूते पर करूँगा। मुझे किसी के त्याग-तपस्या की ज़रूरत नहीं पड़ेगी..…”
“मैं भी तो इस परिवार का एक हिस्सा हूँ,” बड़ी बहन में गज़ब का एक ठहराव था जो उसे कभी क्षुब्ध नहीं होने देता था। दूसरे के मन में उसके प्रति कितनी भी शंका अथवा अश्रद्धा क्यों न रहे वह अपने व्यवहार की शालीनता व दृढ़ता लोप नहीं होने देती, “परिवार के प्रति मेरे भी कुछ कर्त्तव्य हैं..…”
“ऐसी अनर्गल बातें मेरे सामने मत किया करो।” अशोक आपे से बाहर हो चला, “और एक बात अच्छी तरह से समझ लो..... यह क्वार्टर मेरे नाम है और मेरे ही नाम रहेगा..…”
“तुम इन नादान लड़कियों से माथापच्ची न करो।” माँ ने बेटे के विस्फोटक क्रोध से अपनी बेटियों को बचाना चाहा, “कहीं कोई बेटी के नाम लगे क्वार्टर में रहता है? कल तो इसकी शादी होगी तो क्या हम दामाद के आगे झोली फैलाएँगे?”
“मैं तुम्हारी ही बात मानूँगी।” बड़ी बहन अशोक के निकट चली आयी, “पर मैं चाहती हूँ मैं कल से ज़रूर नौकरी पर जाना शुरू कर दूँ..…”
“तुम अपने लिए कोई भी योजना बना सकती हो। माँ और बाबूजी को अगर तुम्हारी नौकरी पर कोई एतराज़ नहीं तो मेरे लिए सब ठीक है पर आइन्दा मेरे लिए देवी-प्रतिमा बनने की कोशिश कभी मत करना। मैं जहाँ हूँ, ठीक हूँ। नाख़ुश रहूँ या ख़ुश रहूँ, वह मेरी निजी समस्या है। तुम्हें इसमें दख़लन्दाज़ी करने का कोई अधिकार नहीं। मैं मर्द हूँ, किसी का मोहताज नहीं..…”
अशोक ने ज़ोर से ज़मीन पर पैर पटका और क्वार्टर नम्बर तेइस से बाहर चला आया।
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