आप जब से ज़िंदगी में आए हैं
डॉ. शोभा श्रीवास्तव
बहर: रमल मुसद्दस महज़ूफ़
अरकान: फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाइलुन
तक़्ती'अ: 2122 2122 212
आप जब से ज़िंदगी में आए हैं
ख़्वाब रंगों की गली में आए हैं
चाँद फिर उतरा हुआ है झील में
आज फिर वो सादगी में आए हैं
हर तरफ़ फ़िरक़ा-परस्ती आम है
लोग कितने ही कजी में आए हैं
आप से पहले यहाँ थी तीरगी
आप से हम रोशनी में आए हैं
नामवर थे जो ज़माने में कभी
आज अपने घर बदी में आए हैं
यूँ तो दर पर आपके आना न था
क्या कहें, किस बेबसी में आए हैं
हमसे मिलने का इरादा छोड़कर
आप आख़िर किस ख़ुशी में आए हैं
इंतज़ारी थी बहुत जिनकी हमें
आ गये पर बे-रुख़ी में आए हैं
नेकियों का रंग ‘शोभा’ दिख गया
घर वो वापस ख़ैरगी में आए हैं
फ़िरक़ा-परस्ती=धार्मिक भेद-भाव फैलाकर आपस में लड़ाना; कजी=बुराई, त्रुटि, दोष; ख़ैरगी–कुशल मंगल
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