कोरोना काल में बन्द दरवाज़ों के पीछे जन्मता साहित्य

प्रिय मित्रो,

पिछले वर्ष २३ मार्च को भारत में पहला लॉकडाउन केवल २१ दिनों के लिए घोषित हुआ था। जनसाधारण को कोई अनुमान नहीं था कि यह केवल तीन सप्ताह का समय एक अन्तहीन व्यवस्था में बदल जाएगा। कोरोना की पहली लहर से उबरे तो दूसरी आरम्भ हुई; वैस्कीन क्षितिज पर दिखाई देने लगी और साथ ही इंग्लैंड में परिवर्तित वाइरस ने भी संक्रमण करना आरम्भ कर दिया। अभी वैक्सीन जनता तक पहुँची नहीं थी, उससे पहले ही इंग्लैंड, दक्षिण अफ़्रीका और ब्राज़ील के परिवर्तित कोरोना वाइरस ने तीसरी लहर को जन्म दे दिया। इस समय विश्व भर में जन-जन तक वैक्सीन पहुँच रही है। एक आशा की किरण दिखाई देने लगी तो कल समाचार में सुनाई दिया कि कुछ डॉक्टर अब कोविड-१९ की चौथी और पाँचवी लहर की बात करने लगे हैं। देखना यह है कि विश्वमंच पर इस नाटक का अंत कब होगा और कैसे होगा!

सम्पादकीय लिखने से पहले एक विचार मन में यह भी उठा कि मैं कितनी बार कोरोना के बारे में लिखूँगा। परन्तु लेखक वही लिखता है जो उसके आसपास घटता है,  जो वह देखता है और जो उसकी चेतना को छूता है। यही कारण है कि एक ही वर्ष में कोरोना के विषय में साहित्य की एक सुनामी-सी आ गई है। इनमें से कुछ रचनाओं ने मानवीय संबंधों के विस्तार में कोरोना के प्रभावों को खोजा तो किसी ने इसके निदान की कामना की। किसी ने महामारी की विभीषिका को अभिव्यक्त किया तो किसी ने महामारी के अंत की कल्पना की। शोध पत्र लिखे गए, उपन्यास लिखे गए। संगोष्ठियाँ, कवि-सम्मेलन,कार्यशालाएँ और भी वह सब कुछ हुआ जो कि तकनीक द्वारा संभव हुआ। देखिए दो गज़ की दूरी तो साहित्यकारों ने बनाए ही रखी। अब वो गर्मजोशी से हाथ मिलाना, गले मिलना तो पुरानी बातें हो गईं। जैसे हमारे बुज़ुर्ग कहा करते थे कि ’हमारे ज़माने में तो . . .’ हम भी कहा करेंगे ’हमारे ज़माने में तो हाथ मिलाकर गले मिला करते थे। यह दूरियाँ न थीं . . .” क्या यही नया सामान्य शिष्टाचार होगा? क्या हम कभी वही पुराने ज़माने में लौट पाएँगे? 

लगने लगा है कि एक नया साहित्यिक विमर्श जन्म ले रहा है। साहित्य कुञ्ज के इस अंक में डॉ. महेश परिमल का आलेख ’कोरोना काल में मिथकों से टूटता मोह’ बदलते सभ्याचार की बात करता है तो दूसरी ओर साहित्य कुञ्ज के वीडियो सेक्शन में डॉ. राजकुमारी शर्मा का ’लॉकडाउन में संबंधों का अभाव’ निबन्ध पारिवारिक और सामाजिक संबंधों पर महामारी के प्रभावों के प्रति चिंता व्यक्त करता है। साहित्यकार का दायित्व है कि वह समाज की चिंताओं को अपने साहित्य में व्यक्त करे, चर्चा आरम्भ करे। कठिन परिस्थितियों से मानवता न जाने कितनी बार उबरी है और हर बार हम लोग पहले से बेहतर ही हुए हैं। मानों प्रकृति की चुनौतियाँ हमारे चरित्र को दृढ़, सहनशील और धैर्यवान बनाती हैं। जीवन चलता रहता है। 

सोचता हूँ कि पिछले वर्ष ८ मार्च की रात्रि को गोवा से दिल्ली लौटा था। ९ मार्च को होली थी और उसी रात भारत से कैनेडा लौटने की फ़्लाईट थी। लोगों में एक भय, एक असमंजस की छाया थी। दिल्ली एयरपोर्ट पर मध्यपूर्व एशिया के देशों को जाने वाली उड़ाने रोकने की उद्घोषणा हो रही थी। चार बोर्डिंग गेट्स को बंद कर दिया गया था। वापिस पर लंदन ५ घंटे के लिए रुकना था। टर्मिनल बदलते हुए फिर से कस्टम में से गुज़रना था। भीड़ २०% भी नहीं थी। भारत आते हुए इस लाईन में जहाँ आधा घंटा प्रतीक्षा करनी पड़ी थी, इस बार कुछ मिनटों में ही हम गुज़र चुके थे। पहली बार कस्टम अधिकारी को मास्क और दस्ताने पहने हुए देख कर कुछ अजीब लगा। क्या मालूम था कि एक सप्ताह बाद हम भी यही कुछ करते हुए दिखाई देंगे। 

पिछले वर्ष इतने त्योहार आए और चले गए। अब तो लगने लगा है कि यही जीवन है। अब कुछ अटपटा नहीं लगता परन्तु मन विचलित होता है जब मैं दुकानों के बन्द दरवाज़े देखता हूँ। सोचता हूँ कि इन बन्द दरवाज़ों में से कितने अब कभी खुलेंगे ही नहीं। इन परिवारों का क्या होगा जो इन दुकानों की आय पर जीवित थे। क्या इन लोगों ने भी आय के नए स्रोत खोज लिए होंगे? अभी तो सरकारें अरबों डॉलर ख़र्च करके इन व्यवसायों को जीवित रख रही हैं परन्तु अन्त में यह भार भी तो कर-दाता को ही उठाना है। इसका प्रभाव सामाजिक, पारिवारिक संबंधों पर क्या होगा? बंद दरवाज़ों के पीछे जीते परिवारों की कहानी हिन्दी साहित्य किस तरह लिखेगा? इन बंद दरवाज़ों के पीछे जन्मता साहित्य – हाँ, यही आज का सच है!

साहित्य कुञ्ज का अगला विशेषांक संभवतः कोरोना काल से ही संबंधित होगा, अब विमर्श यही होना शेष है कि इस विशेषांक का प्रारूप क्या होगा? 

– सुमन कुमार घई

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