ज़िन्दगी
प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'(चोका)
खुली किताब
कभी बंद मुट्ठी सी
मिश्री की डली
तो कभी सच्चाई सी
बंद तिजोरी
चौराहे, बाज़ार सी
नई नवेली
बासी अख़बार सी
बहती नदी
ठहरे तालाब सी
दबी सिसकी
खुले अट्टहास सी
उनाबी जोड़ा
विधवा लिबास सी
माँ की थपकी
अंधड़ तूफ़ान सी
दुखती रग
कभी मरहम सी
सुख के अश्रु
शोक के चीत्कार सी
गलती शीत
जेठ दोपहरी सी
अमा की रात
पूनम के चाँद सी
सीधी सरल
कभी कृष्ण लीला सी
ज़िन्दगी एक
रूप रंग अनेक
कई बाक़ी हैं
ए ज़िन्दगी तुझसे
मुलाक़ात बाक़ी है!
2 टिप्पणियाँ
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आदरणीय हेमन्त जी, आपने समय निकाल कर रचना को पढ़ा, सराहा, आपका हार्दिक आभार ! आपके प्रश्न को लेकर मेरा मत यह है कि हम जिंदगी से प्रतिदिन मिलते है , फिर भी वह एक पहेली सी लगती है। वो इसलिए, कि हर बार एक नए रूप मिलती है, जो अक्सर एक दूसरे से एकदम भिन्न, विपरीत होते हैं। हमें नहीं पता कि कल वह किस रूप में मिलेगी। जैसा हमारा अनुभव होगा, जिंदगी वैसी ही प्रतीत होगी। इसलिए जिंदगी को पूरी तरह से जानना नामुमकिन है, न जाने कल उसके किस रूप से मुलाकात हो जाए! तभी कहती हूँ , ए जिंदगी तुझसे मुलाकात बाकी है ... आपका पुनः धन्यवाद।
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अच्छी कविता है। ज़िन्दगी का परिचय आप पूरी कविता में दे रही हैं।अन्त में ज़िन्दगी से मिलने की अभिलाषा?यह बात पूरी कविता से अलग हो गई है।
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