कहो न
प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'चाँद की बाहों में
चाँदनी अलसाए,
भँवरे की गुंजन
सुन कलियाँ लजाएँ…!
सागर की लहरें भी
बलखाती सी हैं,
तरु पर लताएँ भी
मदमाती सी हैं…!
नभ में, पतंग भी
बहकी सी डोलें,
पुरवई चुपके से
कानों में बोले…!
फूलों पर, तितली का
हल्का सा चुम्बन,
बगिया के मन में भी
कौंधे है स्पंदन...!
तारों की टिमटिम
शरारत भरी है,
किसी की तो साज़िश
कहीं चल रही है...!
सखा मेरे, मुझको
यही लग रहा है,
बेला मिलन की
क़रीब आ रही है...
कहो न,
तुम्हें भी
यही लग रहा है,
बेला मिलन की
बस, आ ही गई है....!!
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