दर्द की दवा
प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'मुझसे बेहतर, मेरा दर्द
समझेगा कौन,
क्यों इसकी दवा
पूछती मैं फिरूँ . . .
हर दर्द की दवा हो
ज़रूरी नहीं,
दर्द है, या नहीं
पहले तय तो करूँ . . .
कुछ दर्द तो इतने
पुराने हुए,
देने वाले भी इनको,
नहीं हैं रहे . . .
बेकार ही कुछ को
सम्भाले हूँ मैं,
बेमायने से शौक़, को
पाले हूँ मैं . . .
खोल मुट्ठी, उड़ा दूँ
मैं इनको अभी,
आज मन में, न जाने
क्या ज़िद है अड़ी . . .
दर्द के सिलसिले
टूटने चाहिए,
एहसास ए सुकूँ,
राहतें, चाहिए . . .
थाम सतरंगी सपनों की
हाथों में डोर,
क्यों न, उड़ चलूँ
आसमानों की ओर . . .
जैसा तय था किया
वैसा करती रही,
आसमानों में नीले
मैं उड़ती रही . . .
इन हाथों की क़िस्मत
भी लो सज गयी,
हाथ ख़ुशियों की चाबी
मेरे लग गयी . . .!
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