एक कहानी
प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'एक कहानी है
जाने क्यों
दुखती सी रहती है,
रुक रुक के सही
कुछ तो ज़रूर कहती है . . .
उसे मुझसे
कोई उम्मीद है शायद . . .
एक ऐसे मोड़ की
जहाँ से
उसका रुख़ बदल जाए,
उसके मुक़द्दर का
शायद ताला खुल जाए,
जहाँ
वह मेरे बिना
चाह कर भी
पहुँच न पाए . . .
पर मैं,
कभी मर्ज़ी
तो कभी बिन मर्ज़ी
उन्हीं अपेक्षित राहों पर
चलती रही,
वो कहानी
ऊब कर
एक कोने में
सिमटती गयी . . .
मेरा हर क़दम
उसमें अरमां जगाता
'एक बार तो नई राह चुन'
फुसफुसाता,
मैं हिचकिचाती
आदत नहीं थी, सो
कुछ नया करने का हौसला
कहाँ से पाती . . .
एक दिन
दिल के कोने से
सुबकने की आवाज़ आई
हौली सी, दबी सी
मगर आई . . .
मेरे झाँकने पर वह कहानी
मुखौटा लगा मुस्कुराने लगी,
पर जाने क्या था उन आँखों में
उनमें बसा शून्य
मेरा ज़ेहन काटता रहा,
'बुज़दिल मत बन'
मन डाँटता रहा . . .
मुझसे पहले
मेरी कहानी दम तोड़ दे
ये मुझे गवारा न हुआ . . .
सो
चल पड़े हैं दोनों
मैं और मेरी कहानी
गलबहियाँ डाले . . .
अब
हम अलग नहीं हैं
अकेले नहीं है
और वह मोड़ भी
दूर नहीं है . . .
सपनों से हक़ीक़त तक का यह सफ़र
अब,
ख़ूब कटेगा!
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