आवारा मन
प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'जाने कौन से गलियारों में
घूमता फिर रहा है,
कहो तो उससे, जो माने
ये तो अपनी ही ज़िद पे अड़ा है!
होगा कुछ भी नही,
यूँ ही, ख़ाक छानकर, थका लौटेगा . . .
क्या हुआ?
क्यों हुआ?
ऐसा होता तो?
वैसा न होता तो? . . .
इसी गर्दिश में धक्के खाकर,
फिर चुपचाप सिमट कर बैठेगा।
कह कर देखूँ
शायद मान ले –
"मन, अब तू बच्चा नहीं
बड़ा हो चला है,
जो है,
आज और केवल आज है,
काल की रट ने
सिर्फ़,
और सिर्फ़, छला है!!"
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- लघुकथा
- कविता - हाइकु
- कविता-माहिया
- कविता-चोका
- कविता
- कविता - क्षणिका
-
- अनुभूतियाँ–001 : 'अनुजा’
- अनुभूतियाँ–002 : 'अनुजा’
- प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' – 002
- प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' – 003
- प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' – 004
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 001
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 005
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 006
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 007
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 008
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 009
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 010
- प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 011
- सिनेमा चर्चा
- कविता-ताँका
- हास्य-व्यंग्य कविता
- कहानी
- विडियो
-
- ऑडियो
-