मन की गाँठ
प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'"गिरीश जी भी हद करते हैं, उन्हें तुझसे मशवरा करना चाहिए था . . . हमेशा अपने को ही प्रधानता देते हैं, कभी तुझसे भी तो पूछें कि तेरे मन में क्या है . . .
"माँ की ज़िम्मेदारी क्या कम थी जो बहन के झगड़े में पड़ कर, उसे भी ससुराल से लिवा लाए . . .
"दो कमरों का छोटा सा फ़्लैट है, उसमें कौन कहाँ उठेगा-बैठेगा, कोई विचार नहीं किया, बस हुक्म दे दिया कि ऐसे होगा . . . .तेरी भावनाओं और इच्छाओं की कोई क़द्र नहीं . . .
"अब, सबका करेगा कौन . . . .तू! . . . न बच्ची की देखभाल ठीक से कर पायेगी, न अपनी . . . दोनो माँ-बेटी मिलकर, दिनभर पंचायत करेंगी, सो अलग!
"तेरे पापा, अव्वल तो मुझसे ऐसा कुछ कहते नहीं, और अगर कहते भी, तो मैं क़तई हामी न भरती . . .
"पर तू . . . तू तो सदा से ऐसी ही है, सब चुपचाप पी जाती है, बिल्कुल अपनी दादी की तरह . . . कभी तो कुछ बोला कर, अपने मन की गाँठ खोला कर . . . वरना यूँ ही पिसती रहेगी, जीवन भर . . . "
"माँ, मैंने तो तब भी कुछ नहीं कहा, जब मुझसे बिना पूछे-बताए, मेरी इच्छा जाने बग़ैर, मेरा रिश्ता तय कर दिया गया . . . मुझे कभी ऐसा लगा ही नहीं कि मुझे भी कुछ कहने की इजाज़त है . . .
"आदतें तो . . . अपने घर से ही पड़ती हैं ना!"
रचना ने आख़िर, अपने मन की गाँठ, खोल ही दी!
3 टिप्पणियाँ
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प्रीति जी की कहानी एक लड़की के जीवन की स्तिथि को भली भाँति थोड़े शब्दों में कह रही है। बधाई।
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बहुत खुशी हुई कि आपको पसंद आई सरिता जी, प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार!
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कम शब्दों में गंभीर विषय
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