भिखारी
प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'बंसल साहब की बिटिया तो पसंद आ गयी थी, बस आज गुप्ता जी 'सामाजिक औपचारिकता' पूरी करने आए हुए थे, बिचौलिए के साथ—आज उन्हीं की मुख्य भूमिका थी, उन्हीं की वाक्पटुता पर सारा दारोमदार टिका हुआ था।
बिचौलिए ने श्री गणेश किया, “आप तो जानते ही हैं गुप्ता साहब का एकलौता लड़का है, अमरीका से पढ़कर आया है, वहाँ के तौर तरीक़े , ख़र्चे, सब यहाँ से अलग हैं . . .”
एक राह चलते भिखारी ने जाली के दरवाजे के उस पार से पुकारा, “ग़रीब को कुछ दे दो बाबा, भगवान आपका भला करेगा . . .”
बिचौलिए को, अपनी भूमिका में विघ्न बिलकुल न भाया, चिड़चिड़ाते हुए बोला, “चलो चलो, आगे चलो, यहाँ ज़रूरी बात हो रही है . . .
“हाँ, तो मैं कह रहा था कि, फ़्लैट और गाड़ी तो ठीक है, पर यदि नकद की राशि 10 लाख कर देते तो . . .”
दरवाज़े से फिर आवाज़ आयी, “दो दिन से कुछ खाया नहीं है, कुछ दे दो बाबा . . .”
बिचौलिए का पारा चढ़ गया, दरवाज़े तक उठकर गया और ज़ोर से फटकार लगाई, “शर्म नहीं आती भीख माँगते, भगवान ने हाथ पैर दिए हैं, जाकर कहीं महनत करो . . . ”
वापस आकर सर हिलाते हुए बोला, “जाने कहाँ से आ जाते हैं, भिखारी कहीं के, शर्म नहीं आती माँगते हुए . . .
“हाँ तो मैं यह कह रहा था, यदि नकद की राशि . . . “
कमरे में एक स्तब्ध मौन पसर गया था।
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साहित्य कुंज में प्रीति की “ भिखारी” कहानी पढ़ीं , पसन्द आई। बधाई स्वीकारें।
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