रोशनी
प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'
ऊँची इमारतों ने आज
फिर से मुँह चिढ़ाया है,
दिल की झोंपड़ी में मैंने
एक दिया जलाया है।
इस दिए कि रोशनी में
दिख रहा ये साफ़ है,
रौंद के किसी को उठना
ज़ुल्म ये न माफ़ है।
जो दिख रहा है वो नहीं
सच्चाई के क़रीब है,
ईमान बेचकर जिया
असल में वो ग़रीब है।
जो पा रहे, जता रहे
जो खो रहे, छुपा रहे,
मोह, माया, साज़िशें
दलदल में धँसते जा रहे।
क़ब्र पर खड़ी इमारत
दरअसल है तार तार,
बदनसीबी पर मैं उसकी
ख़ूब रोया ज़ार-ज़ार।
वो शर्मसार देखती
झुकी निगाह, लिये मलाल,
दिया मेरे मन का, रोशन
कर रहा है ये जहान!
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