मसीहा
प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'
दर-ब-दर भटका किए
हम किससे कहते ‘थक गए’
चिलचिलाती धूप में
वो बन के साया आ गया . . .
बूँद को तरसा किए
बस रेत ही का ढेर थे
ख़ुश्क से इस दौर में
वो बन के सागर आ गया . . .
रात गहरी थी भयानक
सूझता कुछ भी न था
सहमे सिमटे चल रहे
वो बन के जुगनू आ गया . . .
कड़क रही थी बिजलियाँ
सरपट हवा पुरज़ोर थी
सूझता कुछ भी न था
वो रहनुमा बन आ गया . . .
दूर तक बस धूल ही थी
मंज़िलें भी लापता
बाँटने तन्हाइयाँ
वो हमसफ़र बन आ गया . . .
टीसते थे ज़ख़्म गहरे
चोट दिल पर झेलकर
आह! बैठे थे दबा
हमदर्द बन वो आ गया . . .
रुँधे गले में उठ रही थी
सिसकियाँ दबी दबी
शोर मेरे जी का कहने
हमज़ुबां बन आ गया . . .
ज़िन्दगी का रुख़ बदल
वो ले चला जिस भी तरफ़
काट बन्धन दर्द के
वो बन मसीहा आ गया!
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